हल्दीघाटी महासंग्राम १८ जून १५७६ का इतिहास
दुष्ट व आसुरी प्रवृत्ति के यवनों का सामना करने के लिए प्रताप ने भी अपनी सेना का लोह सिंह में पड़ाव डाल दिया। पूरे मेवाड़ के मैदानी इलाके खाली करवा कर जनता को सुरक्षित पहाड़ों पर भेज दिया। प्रताप की सेना में ३६ बिरादरी के लोग शामिल थे।
प्रताप की ३००० की सेना शत्रु पर टूट पड़ने को तत्पर थी। ४०० भील सैनिकों ने भी पहाड़ों पर मोर्चाबंदी कर ली थी। भील इस इलाक़े को बहुत अच्छे से जानते थे और महाराणा को इसका बहुत फ़ायदा हुआ।
१८ जून १५७६ ईस्वी का पावन दिन हल्दीघाटी महासंग्राम के रूप में अमर हो गया। इसी दिन प्रताप ने हल्दीघाटी के एक संकरे दर्रे से निकलकर मुगल सेना पर आक्रमण कर दिया।
राणा की सेना में झालामान, हकीम खां, ग्वालियर के राजा रामसिंह तंवर आदि वीर थे। इस भीषण आक्रमण को मुगल सेना झेल नहीं पाई।
सीकरी के शहजादे शेख मंजूर, गाजी खां बदख्शी हरावल दस्ते में थे। प्रताप सेना ने प्रचंड हमला बोला तो मुगल सेना 8 -10 कोस तक भागती चली गई और मोलेला स्थित अपने डेरे तक पहुंच गई। इस पहले ही आक्रमण के कारण मुगलों के छक्के छूट गए तथा सारी सेना में भयंकर डर व्याप्त हो गया।
ऐसी स्थिति में चंदावल दस्ते के प्रमुख मिहत्तर खां ने ढोल बजाकर मुगल सेना को रोका और कहा कि अकबर स्वयं आ रहा है। इससे सेना को ढांढस बंधा। बिखरी सेना को एकत्रित कर खमनोर ग्राम के मैदान पर लाया गया। यह स्थान रक्त तलाई कहलाता है।
घनघोर युद्ध हुआ और मुगल सेना को उल्टे पांव लौटना पड़ा।
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