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”भक्ति और भक्त”
आज रामायण में एक संवाद सुना
“ज्ञान पुरुष स्वरूप है, भक्ति और माया स्त्री स्वरूप हैं। इसी कारण ज्ञान पर माया का प्रभाव हो सकता है किंतु भक्ति पर नहीं!”
सो मन में एक कौतूहल हुआ कि क्यों भक्ति को ज्ञान पर प्रधानता मिलती है और वास्तव में भक्ति क्या है? और “भक्त” शब्द तो वैसे भी आजकल बहुत प्रचलन में है।
भक्त कौन है?
भक्त शब्द का शाब्दिक अर्थ है विशेष रूप से भगवान का भजन,पूजन,वंदन,स्मरण और स्तुति निरंतर नियमित रूप से करने वाला।
भगवान कृष्ण ने ४ प्रकार के भक्त बताए हैं-
चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन। आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ।।
भगवान श्रीकृष्ण ने इस श्लोक के माध्यम से चार प्रकार के सत्कर्मी भक्तों का वर्णन किया है जो भगवान को भजते हैं।अर्थार्थी,आर्त,जिज्ञासु और प्रेमी ज्ञानी भक्त। भाव और उद्देश्य के भेद के कारण भगवान ने भक्तों को चार अलग अलग श्रेणियों में रखा है।
हमारे ग्रंथों में परमात्मा से मिलने के ३ मार्ग बताए गये हैं-
१. कर्ममार्ग
२. ज्ञानमार्ग
३. भक्तिमार्ग
कर्ममार्ग और ज्ञानमार्ग एक अंत को प्राप्त करने का साधन है।
कर्ममार्ग के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है- न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्‌ ।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः मनुष्य किसी भी समय में क्षण-मात्र भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता है क्योंकि प्रत्येक मनुष्य प्रकृति से उत्पन्न गुणों द्वारा विवश होकर कर्म करता है।
उदाहरण, यदि कोई कर्म करता है, ठीक जैसे कि वेद में बिना किसी त्रुटि के चित्रित किये गए हैं तो कर्म के फलस्वरूप व्यक्ति के लिए स्वर्ग की पुष्टि होगी। व्यक्ति समयनिर्धारित अवधि के लिए स्वर्गिक आनंद लेगा। उन विलासिता का अनुभव करने के बाद, उसे जीवन के निचले रूपों में वापस भेजा जाएगा।
जिससे एक बार फिर से जन्म और मृत्यु के असंख्य चक्रों से गुजरना होगा। जब मानव रूप दिया जाता है, तो व्यक्ति कर्म करने के अधिकार को वापस प्राप्त कर लेगा। सो कर्म मात्र स्वर्गिक सुख प्राप्त करने का एक माध्यम मात्र है
अब ज्ञान मार्ग को देखते हैं। ज्ञान के मार्ग पर चलने का अंतिम परिणाम अज्ञान को दूर करना है जो माया के कारण होता है।

माया के लिए कहा गया है -
मायां तु प्रकृतिं मायिनं तु महेश्वरम् । तस्यावयव भूतैस्तु व्यापतं सर्वमिदं जगत।
माया के २ प्रकार माने गए हैं-
१. स्वरूपावरिका माया अथवा अविद्या माया - यह प्रकार स्वयं की असली पहचान को छुपाता है और गलत धारणा बनाता है कि "मैं ही यह शरीर हूँ"
२. गुणावरिका माया अथवा विद्या माया -ज्ञान प्राप्त हो जाता है तो वह माया के रजोगुण और तमोगुण को तो जीत लेता है किंतु सतफिर भी परे ही रहता हैं। ज्ञानी अविद्या माया के पार चला जाता है और आत्मज्ञान की स्थिति में होता है,इस उच्च अवस्था को प्राप्त करनेके बाद भी परमात्मज्ञान नहीं होता।
गीता में भी कहा गया है-
भक्त्यामामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः ।
ततो मां तत्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम् ॥
अर्थात् भक्ति से परमात्मा का अभिज्ञान होता है
आदि शंकरचार्य ने भी कहा है-

शुद्धयतिनान्तरात्मा कृष्णपदाम्भोजभक्तिमृते ॥
भगवान् की भक्ति के बिना चित्त की शुद्धि नहीं हो सकती।
आइए अब भक्तिमार्ग को समझने का प्रयत्न करें-

भक्त्या संजायते भक्त्या -
भक्ति से भक्ति उत्पन्न होती है, भक्ति का परिणाम भक्ति के सिवा कुछ और हो ही नहीं सकता। भक्ति चिरस्थायी और सदैववृद्धि है। भक्ति कारण भी है और परिणाम भी। भक्ति प्रारम्भ भी है और अंत भी।
देबर्षि नारद ने भी कहा है-
सा त्वस्मिन् परमप्रेमरूपा, अमृतस्वरूपा च।यल्लब्ध्वा पुमान सिद्धो भवति, अमृतो भवति, तृप्तो भवति।
वेद व्यास ने बड़े विस्तार से वेदों की समीक्षा की और अंततः घोषणा की कि सभी वेदों का सार श्री कृष्ण भक्ति है-

आलोड्य सर्वशस्त्राणि विचार्य च पुनः पुनः ।
इदमेकं सुनिष्पन्नं ध्येयो नारायणो हरिः।।
भगवान कृष्ण ने तो स्वयं कहा है -
मां च योअव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते ।
स गुराणंसमतीत्यैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते।।
इन सभी विवरणों का सार यह है: ईश्वर के दिव्य प्रेम-आनंद में पूर्ण रूप से संलग्नित और समर्पित होना ही भक्ति है।
श्रीकृष्ण शरणम मम: 🙏🙏🙏🚩
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