आज रामायण में एक संवाद सुना
“ज्ञान पुरुष स्वरूप है, भक्ति और माया स्त्री स्वरूप हैं। इसी कारण ज्ञान पर माया का प्रभाव हो सकता है किंतु भक्ति पर नहीं!”
भक्त शब्द का शाब्दिक अर्थ है विशेष रूप से भगवान का भजन,पूजन,वंदन,स्मरण और स्तुति निरंतर नियमित रूप से करने वाला।
चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन। आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ।।
१. कर्ममार्ग
२. ज्ञानमार्ग
३. भक्तिमार्ग
कर्ममार्ग और ज्ञानमार्ग एक अंत को प्राप्त करने का साधन है।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः मनुष्य किसी भी समय में क्षण-मात्र भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता है क्योंकि प्रत्येक मनुष्य प्रकृति से उत्पन्न गुणों द्वारा विवश होकर कर्म करता है।
माया के लिए कहा गया है -
मायां तु प्रकृतिं मायिनं तु महेश्वरम् । तस्यावयव भूतैस्तु व्यापतं सर्वमिदं जगत।
१. स्वरूपावरिका माया अथवा अविद्या माया - यह प्रकार स्वयं की असली पहचान को छुपाता है और गलत धारणा बनाता है कि "मैं ही यह शरीर हूँ"
भक्त्यामामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः ।
ततो मां तत्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम् ॥
अर्थात् भक्ति से परमात्मा का अभिज्ञान होता है
शुद्धयतिनान्तरात्मा कृष्णपदाम्भोजभक्तिमृते ॥
भगवान् की भक्ति के बिना चित्त की शुद्धि नहीं हो सकती।
भक्त्या संजायते भक्त्या -
भक्ति से भक्ति उत्पन्न होती है, भक्ति का परिणाम भक्ति के सिवा कुछ और हो ही नहीं सकता। भक्ति चिरस्थायी और सदैववृद्धि है। भक्ति कारण भी है और परिणाम भी। भक्ति प्रारम्भ भी है और अंत भी।
सा त्वस्मिन् परमप्रेमरूपा, अमृतस्वरूपा च।यल्लब्ध्वा पुमान सिद्धो भवति, अमृतो भवति, तृप्तो भवति।
आलोड्य सर्वशस्त्राणि विचार्य च पुनः पुनः ।
इदमेकं सुनिष्पन्नं ध्येयो नारायणो हरिः।।
मां च योअव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते ।
स गुराणंसमतीत्यैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते।।