कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतꣳ समाः ।
एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे ॥ २॥
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To figure out the principle being stated I will quote all the relevant shlokas.
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here are the relevant shlokas with Hindi translation.
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यज्ञैरिष्ट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते ।
ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोक-
मश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान् ॥ ९-२०॥
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4/
क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति ।
एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना
गतागतं कामकामा लभन्ते ॥ ९-२१॥
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6/
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ॥ ९-२२॥
अनन्य भाव से मेरा चिन्तन करते हुए जो भक्तजन मेरी ही उपासना करते हैं, उन नित्ययुक्त पुरुषों का योगक्षेम मैं वहन करता हूँ।।
7/
तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम् ॥ ९-२३॥
हे कौन्तेय ! श्रद्धा से युक्त जो भक्त अन्य देवताओं को पूजते हैं, वे भी मुझे ही अविधिपूर्वक पूजते हैं।।
8/
न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते।।9.24।।
क्योंकि सब यज्ञों का भोक्ता और स्वामी मैं ही हूँ, परन्तु वे मुझे तत्त्वत: नहीं जानते हैं, इसलिए वे गिरते हैं, अर्थात् संसार को प्राप्त होते हैं।।
9/
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम् ॥ ९-२५॥
देवताओं के पूजक देवताओं को प्राप्त होते हैं, पितरपूजक पितरों को जाते हैं, भूतों का यजन करने वाले भूतों को प्राप्त होते हैं और मुझे पूजने वाले भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं।।
8/
संन्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि ॥ ९-२८॥
इस प्रकार तुम शुभाशुभ फलस्वरूप कर्मबन्धनों से मुक्त हो जाओगे; और संन्यासयोग से युक्तचित्त हुए तुम विमुक्त होकर मुझे ही प्राप्त हो जाओगे।।
9/
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति ॥ ९-३१॥
हे कौन्तेय, वह शीघ्र ही धर्मात्मा बन जाता है और शाश्वत शान्ति को प्राप्त होता है(शश्वच्छान्तिं निगच्छति) । तुम निश्चयपूर्वक सत्य जानो कि मेरा भक्त कभी नष्ट नहीं होता।।
10/
"प्लवा ह्येते अदृढा यज्ञरूपा
अष्टादशोक्तमवरं येषु कर्म ।
एतच्छ्रेयो येऽभिनन्दन्ति मूढा
जरामृत्युं ते पुनरेवापि यन्ति ॥" ~ मुण्डकोपनिषत् (1/2/7)
11/
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नान्यच्छ्रेयो वेदयन्ते प्रमूढाः ।
नाकस्य पृष्ठे ते सुकृतेऽनुभूत्वेमं
लोकं हीनतरं वा विशन्ति ॥ "~ मुण्डकोपनिषत् (1/3/10)
12/
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"अथ येऽन्यथातो विदुरन्यराजानस्ते क्षय्यलोका भवन्ति"~ छान्दोग्योपनिषत् (7/25/2)
13/
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"तं यथायथोपासते तथैव भवति ।" ~ मुद्गलोपनिषत् (3/3)
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"देवो॒ भूत्वा॒ देवा॒न॒प्येति"~ बृहदारण्यकोपनिषत् (4/1/2)
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"मामेव प्राप्स्यसि ।" ~ त्रिपाद्विभूतिमहानारायणोपनिषत् (8/1)
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"संन्यासयोगयुक्तात्मा ज्ञानवान्मोक्षवान्भव ॥"~अन्नपूर्णोपनिषत्(5/47)
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"ततः शुभाशुभकर्माणि सर्वाणि सवासनानि नश्यन्ति" ~ त्रिपाद्विभूतिमहानारायणोपनिषत् (5/1)
"विमुक्तश्च विमुच्यते" ~ कठोपनिषत् (2/2/1)
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"तेषां शान्तिः शाश्वती"~ ~ कठोपनिषत् (2/2/13)
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"दुराचाररतो वापि मन्नामभजनात्कपे ॥
सालोक्यमुक्तिमाप्नोति न तु लोकान्तरादिकम् ।" ~ मुक्तिकोपनिषत् (1/18-19)
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भक्तिनिष्ठो भव ।
भक्तिनिष्ठो भव ।
मदीयोपासनां कुरु । " ~ त्रिपाद्विभूतिमहानारायणोपनिषत् (8/1)
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I hope it suffice.😊
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