Thread:
डिस्क्लेमर: यह एक निराशावादी thread है
सामाजिक आंदोलन दो तरह के होते हैं। "ओल्ड सोशल मूवमेंट (OSM)" और "न्यू सोशल मूवमेंट(NSM)"। OSM जो कि पहले काफी प्रचलित था, समाज के निम्न वर्ग के लिए होता है। इसमें जो पीड़ित है वहीं आंदोलनकारी भी होता है। वही सड़क पे उतरता है।
NSM आजकल प्रचलित है। इसमें मुख्यतया मिडिल क्लास प्रताड़ित वर्ग होता है। लेकिन चूंकि मिडिल क्लास के पास समय की भीषण कमी होती है वो खुद सड़क पे उतर के सरकार का विरोध नहीं कर सकता। इसके कई कारण हैं। एक तो इमेज का इश्यू। मिडिल क्लास की इमेज शांत स्वभाव वाले मेहनतकश इंसान की होती है।
सड़क पे उतारने से उस इमेज बार बुरा असर पड़ता है। दूसरा ये कि मिडिल क्लास को डरना आसान है। लोअर क्लास की तरह ये जेब से खाली नहीं होते। इनके पास खोने के लिए काफी कुछ होता है। सड़क पे उतरेंगे तो जो है उसके खोने के चांस रहते हैं। उस थोड़े को बचाने के चक्कर में ही ये सहनशील हो जाता है
Salaries मिडिल क्लास को तो तीन दिन की स्ट्राइक भी भारी पड़ती है क्यूंकि पैसा कटता है। इसलिए NSM में आंदोलनकारी किराए पे लिए जाते हैं। NSM के आंदोलनकारियों का प्रमुख धंधा ही आंदोलन करने का, सड़कों पे प्रदर्शन करने का सरकार पे दवाब बनाने का होता है।
ये लोग NGO, human rights groups, professional एक्टिविस्ट, पत्रकार, वामपंथी लेखक, वकील वगैरह होते हैं। इनके पास आंदोलन करने के साधन रेडीमेड तैयार रहते हैं। बस आप इनको बुलाइए, मुद्दा बताइए, इनसे मोलभाव कीजिए, और आंदोलन तैयार।
बदले में आप इनको मेंबरशिप फी के नाम पे पैसा दे सकते हैं। इनको मानवाधिकारों के प्रणेता के रूप में प्रसिद्धि मिल जाती है। इनके NGO फेमस हो जाते हैं। इनकी किताबें बिक जाती हैं। कभी कभी सरकार में अच्छा पद भी पा जाते हैं (किसी का नाम नहीं लूंगा)।
विपक्ष चूंकि खुद सरकार में भागीदार होता है इसलिए वो NSM में आंदोलनकारी नहीं हो सकता। वो पॉलिटिकल हवा दे सकता है मगर मिडिल क्लास विपक्ष को उस आंदोलन का नेता कभी नहीं बनाता ना ही विपक्ष बनना चाहता है। क्यूंकि इससे आंदोलन राजनीतिक हो जाता है और मुख्य मुद्दा दब जाता है।
वैसे तो सरकारी उपक्रमों का निजीकरण एक बहुत बड़ा मुद्दा है और इसके विरोध के लिए प्रोफेशनल आंदोलनकारियों को बुलाने की भी जरूरत नहीं पड़ती। वे लोग तो ऐसे मुद्दे की तलाश में हमेशा ही रहते हैं। फिर इस बार ऐसा क्या हुआ कि सरकार धड़ल्ले से निजीकरण कर रही है और कोई आंदोलन नहीं?
कुछ लोग Corona का प्रभाव कह सकते हैं मगर मेरे विचार से Corona छोटा कारण है। दरअसल आंदोलनकारी वर्ग इस समय कहीं और व्यस्त है। पिछले कुछ दिनों में सरकार ने कुछ राष्ट्रवादी फैसले लिए जैसे Art 370 abolition, abolition of Triple Talaq, enactment of CAA,
अरेस्ट of CAA riots accused like शारजील इमाम, सफूरा जर्गर वगैरह वगैरह। इस सब मुद्दों का विरोध करने में जनता का भी सपोर्ट कम ही है। इस वजह से इनकी आंदोलन शक्ति भी घटी हुई है। सरकार ने ये समय कतई उपयुक्त चुना है अपना निजीकरण का एजेंडा पूरा करने के लिए।
मिडिल क्लास इस समय बिल्कुल अकेला पड़ चुका है और सरकार प्रहार करे जा रही है। आगे की रणनीति आसान नहीं होगी।
जय हिन्द #StopPrivatisation #निजी_आयोग
• • •
Missing some Tweet in this thread? You can try to
force a refresh
थ्रेड: #बेगानी_शादी
नौकरीपेशा आदमी के लिए जिंदगी की हर चीज मुसीबत की तरह ही लगती है। फलाने की शादी है। ज्यादा करीब हुआ तो छुट्टी लेनी पड़ेगी, नहीं तो ऑफिस से जल्दी निकलकर शादी में जाना पड़ेगा। अगर फैमिली रिलेशन है तो वाइफ को भी साथ ले जाना पड़ेगा।
नहीं तो कोशिश तो अकेले ही अटेंडेंस लगाने की रहती है। आठ बजे ऑफिस से छूटो, फिर शादी में जाओ। लिफाफा भी तो देना है। घर पहुँचते पहुँचते 11 बज जाते हैं। त्यौहारों का तो और भी बुरा हाल है। एक दिन की छुट्टी में क्या त्यौहार मनाये आदमी।
दिवाली पे अक्सर एक दिन की छुट्टी आती है। कई जगह दो दिन की और कई जगह तो कोई छुट्टी ही नहीं। एक दिन की छुट्टी में क्या दिवाली मनाये आदमी?
थ्रेड: #हंस_चला_बगुले_की_चाल
भारत एक मानसून आधारित देश हैं जहाँ साल में एक तिहाई समय मानसून का होता है। मानसून में जबरदस्त बरसात होती है। साल भर के हिस्से की बरसात चार महीनों में ही हो जाती है। बाकी समय लगभग सूखा ही रहता है।
यहाँ के मानसून को समझना विदेशियों के लिए हमेशा से एक टेढ़ी खीर ही रहा। विशेषकर अंग्रेज तो मानसून से इतने परेशान थे कि भारत की कृषि व्यवस्था की रीढ़ तोड़कर ही माने। लेकिन भारतीयों के लिए मानसून जीवनशैली का एक अभिन्न अंग था। हमारी जीवनशैली मानसून के हिसाब से ढली हुई थी।
मानसून के "चौमासे" में न तीर्थ यात्रा होती थी और ना ही शुभ कार्य जैसे विवाह इत्यादि। इन चार महीनों में हो देवताओं से सोने की परंपरा शुरू हुई थी वो आज भी जारी है। राम ने भी लंका पर चढ़ाई चार महीने के लिए रोकी थी और मानसून के दौरान माल्यवान पर्वत पर इंतज़ार किया था।
थ्रेड: #अंधी_पीसे_कुत्ता_खाय
भूखी जनता राजा के पास पहुंची: महाराज!!! विदेशी सब लूट के ले गए। खाने को कुछ नहीं है। कुछ कीजिये।
राजा (मंत्रियों से): सबके भोजन का इंतज़ाम करो। और सबको अन्न उगाने के लिए पर्याप्त भूमि, बीज खाद दो ताकि भविष्य में कोई भूखा न रहे।
कुछ समय बाद राज्य के सभी धनी व्यापारी राजा के पास पहुंचे: महाराज!!! हम तो बर्बाद हो गए।
राजा: क्या हुआ?
व्यापारी: महाराज!!! लोग खुद ही अन्न उगा रहे हैं और खा रहे हैं। साथ ही बुरे समय के लिए अन्न बचा भी रहे हैं। लोग आत्मनिर्भर हो रहे हैं। हमारी किसी को जरूरत ही नहीं।
फिर हमारा क्या होगा?
राजा: तो मैं क्या करूँ? जनता को अन्न उगाने से तो नहीं रोक सकता।
व्यापारी: लेकिन अन्न बचाने से तो रोक सकते हैं। ताकि हमारी भी दुकान चल सके। याद रखिये की आपका सिंहासन रथ वगैरह सब हमने ही स्पांसर किया हुआ है।
तो हुआ यूं कि पिछले महीने हमारी मोबाइल फ़ोन की एलिजिबिलिटी रिन्यू हुई। और हमारा फ़ोन भी काफी पुराना हो चुका था। छः साल से एक ही फ़ोन को चला रहे थे। हमारे फ़ोन को लोग ऐसे नजरों से देखते थे
जैसे कि हड़प्पा की खुदाई से निकला हुआ कोई नमूना देख लिया हो। लेकिन हम भी उस पुराने फ़ोन को घूंघट के ऑउटडेटेड रिवाज़ की तरह चलाये जा रहे थे। लेकिन समस्या तब हुई जब मोबाइल बैंकिंग के एप्प ने एंड्राइड 8 को ब्रिटिशराज घोषित करके आज़ादी की मांग कर दी।
अब तो हमें नया फ़ोन चाहिए ही था। अब चूंकि हम मोबाइल की दुनिया में चल रही क्रांति से नावाक़िफ़ थे इसलिए हमने यूट्यूब का रुख किया। वहां हमको अलग ही लेवल की भसड़ मिली। उनके बारे में बाद में बात करेंगे।
नोटबंदी जैसी तुग़लकी स्कीम जिससे सिर्फ एक पार्टी और चंद पूंजीपतियों को हुआ, लेकिन पूरा देश एक एक पैसे के लिए तरस गया, धंधे बर्बाद हो गए, बैंकरों ने अपनी जान खपा दी, दिन रात पत्थरबाजी झेली, रोज गालियां खाई,
साहब के कपड़ों की तरह दिन में कई कई बार बदले नियमों को झेला, नुक्सान की भरपाई जेब से करी। और जैसा कि होना था, भारी मीडिया मैनेजमेंट और ट्रोल्स की फ़ौज के बावजूद नोटबंदी फेल साबित हुई।
जब नोटबंदी फेल हुई थी तो बड़ी बेशर्मी से इन लोगों ने नोटबंदी की विफलता का ठीकरा बैंकों के माथे फोड़ दिया।
"अजी वो तो बैंक वाले ही भ्रष्ट हैं वरना जिल्लेइलाही ने तो ऐसे स्कीम चलाई थी कि देश से अपराध ख़त्म ही हो जाना था।"
थ्रेड: #ड्यू_डिलिजेंस
बैंक में ड्यू डिलिजेंस बहुत जरूरी चीज है। बिना ड्यू डिलिजेंस के हम लोन देना तो दूर की बात है कस्टमर का करंट खाता तक नहीं खोलते।
लोन देने से पहले पचास सवाल पूछते हैं। पुराना रिकॉर्ड चेक करते हैं। चेक बाउंस हिस्ट्री चेक करते हैं।
और लोन देने के बाद भी उसकी जान नहीं छोड़ते। किसी कस्टमर के खाते में अगर एक महीने किश्त ना आये तो उसकी CIBIL खराब हो जाती है। और तीन महीने किश्त न आये तो खाता ही NPA हो जाता है और फिर उसे कोई लोन नहीं देता। #12thBPS
अगर डॉक्यूमेंट देने में या और कोई कम्प्लाइंस में ढील बरते तो बैंक पीनल इंटरेस्ट चार्ज भी करते हैं। लेकिन बैंकों का ये ड्यू डिलिजेंस केवल कस्टमर के लिए ही है। पिछले 56 सालों से बैंकरों का अपना रीपेमेंट टाइम पर नहीं आ रहा। हर पांच साल में बैंकरों का वेज रिवीजन ड्यू हो जाता है।