देश की दुर्दशा के चूल्हे में ही राजनीति की रोटियां सिकती हैं। सबने सेकी हैं। सात-आठ साल पहले भी देश की हालत खराब थी। कुछ घोटालों की मेहरबानी, कुछ पॉलिसी पैरालिसिस की।
एक मंझे हुए राजनेता ने उस संकटकाल को बढ़िया भुनाया। आज फिर देश संकट में है। ये काल भी दुर्दशा का ही है। विशेषकर अर्थव्यस्था के सितारे गर्दिश में हैं। और कारण किसी से भी छुपे नहीं हैं। सरकार की बेतरतीब नीतियां, पदाधिकारियों का अहंकार, भांग खायी हुई मीडिया।
ऐसे में सबको आशा होती है विपक्ष से। इसलिए नहीं कि विपक्ष के नेता बेहतर हैं या ईमानदार हैं। बल्कि इसलिए कि, शायद इस संकट के समय में वो भी अपनी राजनीतिक रोटियां सेकने की कोशिश करेगा और सरकार पर दबाव बनाएगा। शायद सरकार उससे चेत जाए।
इंदिरा सरकार जब निरंकुश हुई थी तब विपक्ष और जननायकों ने ऐसा आंदोलन खड़ा किया था की सरकार की नींद उड़ गयी थी। लोगों ने पेट्रोल डीजल के दाम बढ़ने के विरोध में अटल बिहारी जी को संसद में बैलगाड़ी ले जाते हुए देखा है।
2003-04 में कांग्रेस ने तेल और आलू प्याज के दाम को लेकर जो विरोध प्रदर्शन किये थे कि सरकार गिर गयी थी। आज भी सरकार खूब मौके दे रही है विपक्ष वालों को, कि आओ हमारे खिलाफ लोगों को जागरूक करो, आंदोलन जगाओ।
सरकारी कर्मचारियों पे काम का बोझ बढ़ता जा रहा है, वे रोज विपक्ष के नेताओं के सामने अपने दुखड़े सुनाते हैं। कल ही दशकों से काम कर रहे वफादार कर्मचारियों को लात मार के निकालने का आदेश जारी हुआ है। युवा बेरोजगार है और सरकारी भर्तियां रोक दी गयी हैं,
सारा काम ठेके पे उठाये हुए 6000 रुपये महीने वाले मजदूरों से कराया जा रहा है, प्राइवेट वाले पहले से ही hire - fire का गेम खेल रहे हैं। PSU वालों की नौकरी पे अलग से तलवार लटका रखी है।
बैंकरों की हालत तो उस गाय के जैसी हो रखी है जिससे मालिक पूरा दूध भी निकालता है, हल में भी जोतता है और गाड़ी में भी। और रात को कसाईखाने के बाहर बाँध देता है। लगभग हर वर्ग परेशान है। इतने मुद्दे हैं कि एक एक मुद्दे पे सरकार को घुटने पे लाया जा सकता है।
आज भी गूंगी बहरी सरकार से परेशान लोग ट्विटर पे राहुल गाँधी, अखिलेश यादव, यशस्वी यादव, जैसे नेताओं को टैग करते दिखाई देते हैं। उनको लगता है कि ये सरकार पर प्रहार करेंगे, उसकी जड़ें हिलाएंगे।
पर ये बात देखने वाली है कि ये सभी "युवा" नेता बस एक दो ट्वीट करके अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं। कई लोग नए आकांक्षी नेताओं जैसे कन्हैया कुमार, हंसराज मीणा, चंद्रशेखर आज़ाद (सस्ता वाला), हार्दिक पटेल को भी गुहार लगाते हैं। परन्तु ये भी जातिवाद से ऊपर नहीं उठ पाते।
किसी को जनता कि समस्याओं में रूचि नहीं है। सबको सीधे बिना आपातकाल का विरोध किये लालू मुलायम नीतीश जैसी पदवी और लोकप्रियता चाहिए। मुझे इस पीढ़ी के नेताओं से कभी उम्मीद नहीं रही। ये आपातकाल में डंडे खाये हुए नहीं बल्कि अय्याशी में पले बढे जबरदस्ती के नेता हैं।
इनसे कोई भी उम्मीद रखना बेकार है। ये इतने बेकार हैं कि लोग सरकार से परेशान हैं मगर फिर भी इनको वोट देने के तैयार नहीं। नेहरूजी ने कहा था की आराम हराम है। आजकल के युवा नेताओं को हरामखोरी काफी पसंद है।
देश की इस दुर्दशा के लिए जिम्मेदार सिर्फ ये निरंकुश सरकार की नहीं बल्कि ये नाकारा विपक्ष के नेता भी है।
थ्रेड: #बेगानी_शादी
नौकरीपेशा आदमी के लिए जिंदगी की हर चीज मुसीबत की तरह ही लगती है। फलाने की शादी है। ज्यादा करीब हुआ तो छुट्टी लेनी पड़ेगी, नहीं तो ऑफिस से जल्दी निकलकर शादी में जाना पड़ेगा। अगर फैमिली रिलेशन है तो वाइफ को भी साथ ले जाना पड़ेगा।
नहीं तो कोशिश तो अकेले ही अटेंडेंस लगाने की रहती है। आठ बजे ऑफिस से छूटो, फिर शादी में जाओ। लिफाफा भी तो देना है। घर पहुँचते पहुँचते 11 बज जाते हैं। त्यौहारों का तो और भी बुरा हाल है। एक दिन की छुट्टी में क्या त्यौहार मनाये आदमी।
दिवाली पे अक्सर एक दिन की छुट्टी आती है। कई जगह दो दिन की और कई जगह तो कोई छुट्टी ही नहीं। एक दिन की छुट्टी में क्या दिवाली मनाये आदमी?
थ्रेड: #हंस_चला_बगुले_की_चाल
भारत एक मानसून आधारित देश हैं जहाँ साल में एक तिहाई समय मानसून का होता है। मानसून में जबरदस्त बरसात होती है। साल भर के हिस्से की बरसात चार महीनों में ही हो जाती है। बाकी समय लगभग सूखा ही रहता है।
यहाँ के मानसून को समझना विदेशियों के लिए हमेशा से एक टेढ़ी खीर ही रहा। विशेषकर अंग्रेज तो मानसून से इतने परेशान थे कि भारत की कृषि व्यवस्था की रीढ़ तोड़कर ही माने। लेकिन भारतीयों के लिए मानसून जीवनशैली का एक अभिन्न अंग था। हमारी जीवनशैली मानसून के हिसाब से ढली हुई थी।
मानसून के "चौमासे" में न तीर्थ यात्रा होती थी और ना ही शुभ कार्य जैसे विवाह इत्यादि। इन चार महीनों में हो देवताओं से सोने की परंपरा शुरू हुई थी वो आज भी जारी है। राम ने भी लंका पर चढ़ाई चार महीने के लिए रोकी थी और मानसून के दौरान माल्यवान पर्वत पर इंतज़ार किया था।
थ्रेड: #अंधी_पीसे_कुत्ता_खाय
भूखी जनता राजा के पास पहुंची: महाराज!!! विदेशी सब लूट के ले गए। खाने को कुछ नहीं है। कुछ कीजिये।
राजा (मंत्रियों से): सबके भोजन का इंतज़ाम करो। और सबको अन्न उगाने के लिए पर्याप्त भूमि, बीज खाद दो ताकि भविष्य में कोई भूखा न रहे।
कुछ समय बाद राज्य के सभी धनी व्यापारी राजा के पास पहुंचे: महाराज!!! हम तो बर्बाद हो गए।
राजा: क्या हुआ?
व्यापारी: महाराज!!! लोग खुद ही अन्न उगा रहे हैं और खा रहे हैं। साथ ही बुरे समय के लिए अन्न बचा भी रहे हैं। लोग आत्मनिर्भर हो रहे हैं। हमारी किसी को जरूरत ही नहीं।
फिर हमारा क्या होगा?
राजा: तो मैं क्या करूँ? जनता को अन्न उगाने से तो नहीं रोक सकता।
व्यापारी: लेकिन अन्न बचाने से तो रोक सकते हैं। ताकि हमारी भी दुकान चल सके। याद रखिये की आपका सिंहासन रथ वगैरह सब हमने ही स्पांसर किया हुआ है।
तो हुआ यूं कि पिछले महीने हमारी मोबाइल फ़ोन की एलिजिबिलिटी रिन्यू हुई। और हमारा फ़ोन भी काफी पुराना हो चुका था। छः साल से एक ही फ़ोन को चला रहे थे। हमारे फ़ोन को लोग ऐसे नजरों से देखते थे
जैसे कि हड़प्पा की खुदाई से निकला हुआ कोई नमूना देख लिया हो। लेकिन हम भी उस पुराने फ़ोन को घूंघट के ऑउटडेटेड रिवाज़ की तरह चलाये जा रहे थे। लेकिन समस्या तब हुई जब मोबाइल बैंकिंग के एप्प ने एंड्राइड 8 को ब्रिटिशराज घोषित करके आज़ादी की मांग कर दी।
अब तो हमें नया फ़ोन चाहिए ही था। अब चूंकि हम मोबाइल की दुनिया में चल रही क्रांति से नावाक़िफ़ थे इसलिए हमने यूट्यूब का रुख किया। वहां हमको अलग ही लेवल की भसड़ मिली। उनके बारे में बाद में बात करेंगे।
नोटबंदी जैसी तुग़लकी स्कीम जिससे सिर्फ एक पार्टी और चंद पूंजीपतियों को हुआ, लेकिन पूरा देश एक एक पैसे के लिए तरस गया, धंधे बर्बाद हो गए, बैंकरों ने अपनी जान खपा दी, दिन रात पत्थरबाजी झेली, रोज गालियां खाई,
साहब के कपड़ों की तरह दिन में कई कई बार बदले नियमों को झेला, नुक्सान की भरपाई जेब से करी। और जैसा कि होना था, भारी मीडिया मैनेजमेंट और ट्रोल्स की फ़ौज के बावजूद नोटबंदी फेल साबित हुई।
जब नोटबंदी फेल हुई थी तो बड़ी बेशर्मी से इन लोगों ने नोटबंदी की विफलता का ठीकरा बैंकों के माथे फोड़ दिया।
"अजी वो तो बैंक वाले ही भ्रष्ट हैं वरना जिल्लेइलाही ने तो ऐसे स्कीम चलाई थी कि देश से अपराध ख़त्म ही हो जाना था।"
थ्रेड: #ड्यू_डिलिजेंस
बैंक में ड्यू डिलिजेंस बहुत जरूरी चीज है। बिना ड्यू डिलिजेंस के हम लोन देना तो दूर की बात है कस्टमर का करंट खाता तक नहीं खोलते।
लोन देने से पहले पचास सवाल पूछते हैं। पुराना रिकॉर्ड चेक करते हैं। चेक बाउंस हिस्ट्री चेक करते हैं।
और लोन देने के बाद भी उसकी जान नहीं छोड़ते। किसी कस्टमर के खाते में अगर एक महीने किश्त ना आये तो उसकी CIBIL खराब हो जाती है। और तीन महीने किश्त न आये तो खाता ही NPA हो जाता है और फिर उसे कोई लोन नहीं देता। #12thBPS
अगर डॉक्यूमेंट देने में या और कोई कम्प्लाइंस में ढील बरते तो बैंक पीनल इंटरेस्ट चार्ज भी करते हैं। लेकिन बैंकों का ये ड्यू डिलिजेंस केवल कस्टमर के लिए ही है। पिछले 56 सालों से बैंकरों का अपना रीपेमेंट टाइम पर नहीं आ रहा। हर पांच साल में बैंकरों का वेज रिवीजन ड्यू हो जाता है।