लोकतंत्र या गुंडातंत्र
भारत के संविधान के अनुसार लोकतंत्र के तीन स्तंभ हैं आइए उनका वर्णन देखते हैं। 1. विधायिका
विधि यानी नियम। विधायिका (Legislature) या विधानमंडल किसी राजनैतिक व्यवस्था के उस संबंध को कहा जाता है जिसे नियम कानून व जन नीतियां बनाने, बदलने व हटाने का अधिकार हो।
भारत में राष्ट्रीय स्तर पर दो-सदनीय विधायिका है जो संसद कहलाती है और राज्य स्तर पे विधानसभा।
विधायिका की ये परिभाषा संविधान लिखते वक्त दी गई थी परन्तु इतिहास साक्षी है कि किसीभी सरकार के बहुमत में आते ही उसके नेतागण इस विधायिका को अपनी रखैल समझते हैं और जनता को उसी चश्मे से देखने
पे मजबूर करते जो वो दिखाते हैं। ये स्वयं को भारत के विधान से ऊपर समझते हैं। उदाहरण स्वरूप महाराष्ट्र में बैंकरों पर आए दिन होते हमले है। सारे हमले राजनीति से प्रेरित हैं और इनको ना विधि व्यवस्था की फ़िक्र है ना कानून व्यवस्था की।
2. कार्यपालिका
कार्यपालिका (Executive) का काम होता है कि विधायिका जो नियम बनाए वह उसे लागू करवाए। अर्थात ये वो लोग हैं जो संघीय लोक सेवा आयोग के बाबू कहलाते हैं। अब जब विधायिका अपने सदस्यों यानी नेता लोग पे ही अंकुश नहीं लगा सकती तो ये बाबु लोग भी उसकी कद्र नहीं करते और अंततः
नेताओ के सेवक बन के रह जाते हैं वरना वहीं नेता इनकी औकात दो कौड़ी की भी नहीं छोड़ते। हमने एक नेता को अपने राज्य के राजधानी के DM से खैनी ठोकवाते, पीकदान पकड़वाते भी देखा है।
ये बाबू लोग नेताओं के कहने पर लोकतंत्र की हत्या करने में भी नहीं हिचकते। इसका ज्वलंत उदाहरण आज मुंबई में
देखने मिला। जब तक नेताजी का हाथ रहा तब तक वहीं निर्माण वैध था परन्तु नेताजी के रूष्ट होते ही बिना किसी कानूनी कारवाई के दो दिन के अंदर उसे अवैध घोषित कर ढहा दिया गया या बड़े नेताजी के आगमन पे बैंकों को साप्ताहिक छुट्टी पे भी खुलने का आदेश देना ताकि प्रधान भाषण में गिनती गिना सकें
3. न्यायपालिका
न्यायपालिका (Judiciary) भारतीय लोकतंत्र का एक प्रमुख अंग है। न्यायपालिका कानून के अनुसार न चलने वालों को दणडित करती है। न्यायपालिका विवादों को सुलझाने का काम करती है। सभी को समान न्याय सुनिश्चित करवाना न्यायपालिका का असली काम है।
इस एक स्तंभ की विश्वसनीयता पे हमेशा गर्व रहा है क्योंकि इससे कभी पक्षपात ना हो इसी लिए कानून की देवी की आंखों पे पट्टी बांध कर दिखाया जाता है। परन्तु इसकी पट्टी ही इसकी निर्बलता बन इसे चंद रसूख वालों की गुलाम बना देती है। आंखों पे बांधी पट्टी के कारण ये देख नहीं पाई की एक शख्स ने
शराब के नशे में धूत्त होकर फूथपाथ पे सो रहे लोगों को कुचल दिया। ये तो यह भी मान गए के सैकड़ों लोगों से भरी पार्टी में एक लड़की को गोली मारी और कोई भी उस मुजरिम को नहीं देख पाया। यहां एक दरिंदे बलात्कारी को सिर्फ़ इसलिए छोड़ दिया जाता क्यों की उसके बालिग होने में दो महीने बचे थे।
यहां एक गरीब बरसों कचहरी के चक्कर लगाता है इंसाफ़ की आशा में और कोई रसूखदार पैसों के दम पर इंसाफ़ ख़रीद लेता है।
मैं आप सबसे ये पूछना चाहता हूं की क्या वाकई हमारे देश में लोकतंत्र जीवित है?
क्या लोकतंत्र के तीनों स्तंभ अपनी जिम्मेदारियों का पूर्ण निष्ठा से निर्वहन कर रहे हैं?
अगर आपका जवाब नहीं है तो आप कब जागेंगे और इस अन्याय के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाएंगे? #RIPDemocracy
*❀ दूसरों को सही-गलत साबित करने में ❀*
*✦जल्दबाजी न करें✦*
*एक प्रोफेसर, अपनी क्लास में कहानी सुना रहे थे, जो कि इस प्रकार है –*
*एक बार समुद्र के बीच में एक बड़े जहाज पर बड़ी दुर्घटना हो गयी। कप्तान ने, शिप खाली करने का आदेश दिया,
जहाज पर एक युवा दम्पति था, जब लाइफबोट पर चढ़ने का नम्बर युवा दम्पति का आया, तो देखा गया नाव पर केवल एक☝️ व्यक्ति के लिए ही जगह है, इस मौके पर आदमी ने औरत को छोड़ दिया और नाव पर कूद गया।*
*डूबते हुए जहाज पर खड़ी औरत ने जाते हुए अपने पति से चिल्लाकर एक वाक्य कहा।*
*अब प्रोफेसर ने रुककर अपने सभी स्टूडेंट्स से पूछा:- तुम लोगों को क्या लगता है, उस स्त्री ने अपने पति से क्या कहा होगा?*
*ज्यादातर विद्यार्थी फ़ौरन चिल्लाये की, स्त्री ने कहा होगा, मैं तुमसे नफरत करती हूँ ! I hate you !*
बड़ी बेचैनी से रात कटी।
बमुश्किल सुबह एक रोटी खाकर, घर से अपने शोरूम के लिए निकला।
आज किसी के पेट पर पहली बार लात मारने जा रहा हूँ।
ये बात अंदर ही अंदर कचोट रही है।
ज़िंदगी में यही फ़लसफ़ा रहा मेरा कि, अपने आस पास किसी को, रोटी के लिए तरसना ना पड़े,
पर इस विकट काल मे अपने पेट पर ही आन पड़ी है।
दो साल पहले ही अपनी सारी जमा पूंजी लगाकर कपड़े का शोरूम खोला था,मगर दुकान के सामान की बिक्री अब आधी हो गई है।अपने कपड़े के शोरूम में दो लड़के और दो लड़कियों को रखा है मैंने ग्राहकों को कपड़े दिखाने के लिए। लेडीज
डिपार्टमेंट की दोनों लड़कियों को निकाल नहीं सकता। एक तो कपड़ो की बिक्री उन्हीं की ज्यादा है, दूसरे वो दोनों बहुत गरीब हैं। दो लड़कों में से एक पुराना है, और वो घर में इकलौता कमाने वाला है।
जो नया वाला लड़का है दीपक, मैंने विचार उसी पर किया है। शायद उसका एक भाई भी है,
हमारे बैंकर दोस्त @SinghForSewa03 जी की डायरी के कुछ पन्ने आपको प्रस्तुत कर रहे।
ये प्रसंग एक ग्रामीण क्षेत्र की शाखा के रोकड़िया और प्रधान के बीच की वार्ता का है।
प्रधान जी: कैशियर साहब नमस्कार
कैशियर: नमस्कार प्रधान जी.. बताएं
प्र. जी: सर मेरे गांव से एक माता जी नगद भुगतान के लिए आईं थी अभी, आपने मना कर दिया नगद देने से (माताजी तमतमाए हुए पीछे बैठी थी)
कै.: प्रधान जी ये 2017 से नहीं खाता में कोई लेन देन नहीं की थीं तो खाता निष्क्रिय हो गया है। KYC करना होगा, मैंने इनको बता दिया है। आज ये कोई दस्तावेज
नहीं लाई है तो संभव ना हो पाएगा।
प्र. जी: राशन कार्ड तो है।
कै.: राशन कार्ड तो मान्य दस्तावेज़ नहीं है।
प्र. जी: इतना दूर गांव है कैशियर साहब खाली परेशान कर रहें हैं थोड़ा" मानवीय तौर" पर भी हो सकता है। आप भुगतान कर दीजिए मैं कल KYC भिजवा दूंगा। (गांव से शाखा सात km दूर है
पिछले कुछ दिनों से बैंकरों पे होने वाली शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना से परेशान हो कर सोचते सोचते मै नोटaबंदी के समय में पहुंच गया। उस समय भी बैंकरों को 52 दिनों तक आर्थिक मानसिक और शारीरिक प्रताड़ना के दौर से गुजरना पड़ा था। और उस त्याग के बदले इनाम स्वरूप इस योजना की विफलता का
श्रेय हम बैंकरों को ही दिया गया।
हालांकि व्यक्तिगत रूप से मैं इस योजना का पक्षधर था और ये मानता था कि इसके सही कार्यान्वयन से काले धन के ऊपर करारा आघात किया जा सकता है। इस योजना के विफल होने से तमतमाई सरकार, अर्थशास्त्री और सारे एजेंसी ने आनन फानन में जैसे एक आसान शिकार समझ कर
बैंकरों के विरूद्ध जमकर कार्रवाई करी। कई बैंकरों पे केस दर्ज़ हुआ सज़ा भी हुई। परन्तु किसी ने भी इस विफलता के असली कारणों को जानने का प्रयास नहीं किया।
मैं कोई अर्थशास्त्री या जांच एजेंसी वाला तो नहीं हूं लेकिन प्रैक्टिकली जो दिखा और जो मुझे समझ आया आज उसे बताने की कोशिश कर रहा।
नमस्कार दोस्तों
दोस्तों आज मैं कुछ दिन पहले घटी एक ऐसी घटना का ज़िक्र करना चाहता हूं जिसने मेरी अंतरात्मा को झकझोर के रख दिया और मुझे ये सोचने पे मजबूर कर दिया के हम किस दिशा में चल रहे हैं। शनिवार रविवार की छुट्टी थी तो पापा बोले के चलो गांव घूम आते है जो मेरे घर से क़रीब
नब्बे km ही है। पुरखों की अर्जित किए हुए खेत हैं थोड़े जिसपे इस वक़्त धान रोपाई की हुई है। वैसे तो मेरा मन बिल्कुल भी नहीं था जाने का लेकिन पापा तो पापा ठहरे हो गए शुरू के तुमको अपने ज़मीन का खेत का पता होना चाहिए कहां है कितना है और bla bla तो भई इतना सुनने के बाद शनिवार को हम
पहुंचे गांव। यहीं पर मुझे वो शख्स मिला जिसने एक सवाल से मेरी बोलती बंद कर दी मैं बिल्कुल निरुत्तर हो गया। आज भी उसके उस सवाल का जवाब ना ढूंढ पाया तो ये सोच कर आप सब से शेयर करना चाहता हूं के शायद कुछ बोझ हल्का हो जाए। हालांकि हमारे खेत खलियन अच्छे खासे है सालों पहले हमारे
अच्छे से याद है , बारिश बहुत कम हुई थी उस साल में , दिन 22 जुलाई 2012.
जिला रायगढ़ के पास 50 किमी दूर सारंगढ़ तहसील ।
नई नई जोइनिंग थी ,जोश लबालब भरा था ।
फिर क्या बस पकड़ी और निकल लिए ।
अपना मन भी साहब बना हुआ था, भाई सरकारी नौकरी ग्रामीण बैंक में , ऑफिसर वाली , कहाँ मिलती है इतनी आसानी से ?
पर पता नहीं था जोश ठंडा होने वाला है , जैसे ही यात्रा समाप्त हुई , बस स्टैंड पे उतरे अगल बगल का माहौल देखा ,कीचड़ वाली रोड और एक
धूल भरी हवा का तेज़ चमाट पड़ा मानो जैसे तेज़ नींद से उठा दिया हो ।
हिम्मत करके हमने भी पता पूंछा, मन ही मन सोचा अरे कोई नहीं शहर का क्या? शाखा मस्त होनी चाहिए ।
दिल को मानते हुए चल दी पैदल पास ही पूंछताछ करने के बाद गंतव्य स्थान पहुँचे ।
शाखा में एंट्री, मानो जैसे खुद को