1) Athiests reject ईश्वर/God denying His existence. 2) Buddhism negates ईश्वर/God by declaring their "Shunya" to be higher and ultimate reality substartum for the existence of any gods/goddesses 1/
3) Upanishads transcend ईश्वर/God by declaring अखंड अद्ववय ज्ञान (ब्रह्म) to be ultimate reality and1+
स ब्रह्मा स शिवः सेन्द्रः सोऽक्षरः परमः स्वराट् ।
स एव विष्णुः स प्राणः स कालोऽग्निः स चन्द्रमाः ॥~कैवल्योपनिषत् (८) sanskritdocuments.org/doc_upanishhat… 2/
Abv also explains why one can not accept Ishwara (निरीश्वरवादी like Sankhya and Purva Mimansa) and yet be Aastik and Vedic.
Aastikata is about accepting ज्ञान as root of the existence (ie both Drashta and Drishya)
Pappu ke paas itna dimmag nahin hai. Uske handlers (Sekoolar-Savarnas and their western Masters) karte hain ye sab. There is nothing new in it. In the beginning, in Padre/Pastor narrative Hindu heathen, like any other pagan, 1/
was described as violent, immoral, and sexually deviant and a threat to the (Christian) world order and peace(1500-1885).
With secularization of Christianity, "violent" Hindu Heathen became "communal". Thus was born the threat of "Hindu communalism"
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and Colonial office coolie class of Hindus (with Congress as a political platform) became a bulwark against it saving India and particularly Muslims from the Hindu Communalism of RSS and BJP(1885-2014).
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The Sengol that Sri Modi is using to resurrect Bharat out of secular slumber has very deep relevance to the Bharatiya model of governance. It is called “Dharma Danda” in our traditions.
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As part of the coronation ritual, the newly coronated king (thru mantras) says “I am going to rule with my Raja Danda” meaning to say “I will rule thru my authority and might to punish”.
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Then the priest or Raja Guru hits the King with Dharma Danda and says (thru mantras); “rule with Dharma Danda” and hands over the Sengol/Dharma-Danda.
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जैसे रावण ने नर्मदाजी के सारे पत्थरों में शिव प्राण प्रतिष्ठा कर दी ताकि सामान्यजन को भगवान शिव की पूजा करने के लिये प्राणप्रतिष्ठा करवाने के झंझट में न पड़ना पडे़ और वो सीधे-२ नर्मदा के पत्थर को शिवलिङ्ग के रुप में पूजना शुरु कर दे,
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वैसे ही नारदजी ने भगवान श्रीराम से रामनाम की मन्त्ररुप से समष्टि दीक्षा करवायी। जिससे (कलियुग में ) श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ गुरु मिले की ना मिले, लेकिन कोई अगर चाहे तो स्वयं से राम नाम को मन्त्र को जपना शुरु कर सकता है।
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"तब नारद बोले हरषाई। अस बर मागउँ करउँ ढिठाई॥
जद्यपि प्रभु के नाम अनेका। श्रुति कह अधिक एक तें एका॥
राम सकल नामन्ह ते अधिका। होउ नाथ अघ खग गन बधिका॥
दोहा :
राका रजनी भगति तव राम नाम सोइ सोम।
अपर नाम उडगन बिमल बसहुँ भगत उर ब्योम॥
Somehow I feel Oak too was honestly wrong. But then he took himself too seriously and became stubborn about his childish "discovery" (or "discoveries"). At present his situation is like
a string attached to it is so set in the ground that it revolves from the weight of the parrot when it lights upon it, and the bird, confused by the motion, fancies it is entangled in the string, though it is really loose and might fly away if it tried.
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अगर ब्राह्मण जाति में (आजकल के ब्राह्मण चाहे जैसे भी हों) ०.००००१% भी गुरुबुद्धि है (०.००००१% भी शास्त्र की समझ है) तो किसी भी ब्राह्मण स्त्री के प्रति किसी के मन में (जो ब्राह्मण नही है) भोग्या का भाव कैसे आ सकता है।
बिना अब्राहमिक (आततायी/असुर) संस्कार के ब्राह्मण स्त्री के भोग की इच्छा नही उठ सकती।
मैं उसके पहले की बात कर रहा हूँ। बुद्धि के अनुकूल हुये बिना मन में कोई संकल्प आता नही। एक उदाहरण से स्पष्ट करता हूँ। जिस वस्तु को हम गंदा समझते हैं उसको खाने का मन में संकल्प ही नही उठता। 1/3
किसी देवता की स्तुति में प्रयुक्त होने वाले अर्थ-स्मारक वाक्य को 'मन्त्र' कहते हैं। यज्ञयागादि के अनुष्ठान का विस्तृत विवेचन करने वाले ग्रन्थ को 'ब्राह्मण' कहते हैं । मन्त्र समूह को 'संहिता' कहते हैं।संहितायें चार हैं—ऋक्, साम, यजुः और अथर्व।
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इनका संकलन यज्ञानुष्ठान की दृष्टि से किया गया है । यज्ञयागादि के विधिपूर्वक अनुष्ठान के लिये चार ऋत्विजों की आवश्कता होती है— होता, जो स्तुति-मन्त्रों के उच्चारण से देवताओं का आह्वान करता है; उद्गाता, जो मधुर स्वर में मन्त्र गान करता है;
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