भगवान् बुद्ध ने 14 सवालों का जवाब नहीं दिया था। उनमें से एक सवाल जीवन के उद्देश्य के बारे में भी था। जिस सवाल को गौतम बुद्ध जैसे महाज्ञानी भी नहीं हल कर पाए उस सवाल का जवाब आज के आधुनिक समाज ने खोज लिया है.
आज के मानव के अनुसार जीवन का एकमात्र उद्देश्य है प्रदर्शन। आज की पूरी जीवन शैली प्रदर्शन पर आधारित है। जीवन को ऐसी जियो जैसे शोकेस में सजा रहे हो। जैसे फिल्म बना रहे हो। दूसरों को दिखाने के लिए।
फ्रेंच फिलोसोफर Guy Debord ने आधुनिक समाज को "Society of स्पेक्टेकल, मतलब तमाशबीन समाज" की संज्ञा दी है। उनके अनुसार आजकल की जीवनशैली जीने के बजाय दिखावे को प्राथमिकता देती है। लोग रेस्टोरेंट खाना खाने नहीं बल्कि खाने की फोटो खींच के सोशल मीडिया पे डालने जाते हैं।
जब तक खाने की 170 फोटो खींच के व्हाट्सप्प पे नहीं डाली तब तक खाने का फायदा ही क्या? खाना चाहे कतई घटिया है मगर यदि पिक पे ढेर सारे लाइक आये तो पैसा वसूल। अगर पाँच मिनट तक किसी ने फैंटास्टिक नहीं लिखा तो खाने का मजा ही बिगड़ जाता है।
पर्यटन का एकमात्र उद्देश्य हर जगह जा के सेल्फी लेकर फेसबुक पे पोस्ट करना रह गया है। पहले लोग ऋषिकेश जा के गंगा में डुबकी लगाते, आजकल गंगाजी के साथ सेल्फी लेकर वापिस आ जाते हैं, क्यूंकि नदी में नहाना "is so unhygienic ".
इसी कड़ी में आते हैं स्पेशल डेज - (विशिष्ट दिवस)। पर्यावरण दिवस, पृथ्वी दिवस, महिला दिवस, प्रेम दिवस, मदर्स डे, फादर्स डे, फ्रेंडशिप डे, अलाना डे फलाना डे ढिमाका डे। इन डेज का एक ही उद्देश्य होता है वो है दिखावा।
बाकी दिन आप चाहें घर में नौ-नौ AC चला के बैठे रहें मगर अगर पृथ्वी दिवस के दिन एक घंटे के लिए लाइट बुझा ली तो आप से बड़ा पृथ्वी का संरक्षक कोई नहीं।
आपका खुद का 9 एकड़ का फार्म हाउस चाहे 15000 पेड़ काट के बनाया हो लेकिन पर्यावरण दिवस के दिन कैमरे के सामने चेहरा करके एक आम के पौधे को पानी देना ही है। बाद में चाहे उस पेड़ को आपका प्रिय डॉगी नोंच डाले, आपके तो सारे पाप धुल चुके हैं।
अब आप ख़ुशी से फेसबुक पे अपने पर्यावरण प्रेमी होने का ऐलान कर सकते हैं। ऐसा ही एक डे आज है। हिंदी डे, सॉरी, हिंदी दिवस।
बाकी दिन आप चाहे हिंदी का मजाक बनाते फिरें, ट्रैन को लोहपथगामिनी कहकर चिढ़ायें, क्रिकेट को "गोल गट्टम लकड़ पट्टम दे दना-दन" खेल कहें, आज आपको लोगों को सोशल मीडिया पे हिंदी यूज़ करने का ज्ञान देना ही है। हिंदी को राष्ट्र भाषा का दर्जा देने की मांग का तमाशा करना है।
हिंदी को राष्ट्र भाषा देने की मांग संविधान सभा में भी उठी थी। लेकिन जब माननीयों से पूछा गया कि हिंदी का वास्तविक स्वरुप क्या है तो कोई एकमत न हो सका। किसी को संस्कृत युक्त हिंदी से काम कुछ भी मंजूर न था तो कोई हिंदी में पारसी शब्दों की इस्तेमाल की छूट चाहता था।
हिंदी के पक्षकार आपस में ही लड़ बैठे। अंत में राष्ट्रभाषा का मुद्दा छोड़ के आठवीं अनुसूची बनायीं गयी। आजकल हिंदी के लिए 14 सितम्बर को तमाशा करके अपने कर्त्तव्य कि इतिश्री कर ली जाती है। असल में हमारा पूरा जीवन ही एक तमाशा बन गया है।
लोगों को दिखाने वाला तमाशा। बर्थडे पे टोपी लगा के जोकर जैसा दिखने का तमाशा। न्यू ईयर पे रात को 12 बजे दारु पी फूहड़ों की तरह नाचने का तमाशा। ये सारे दिवस हमारे आधुनिक समाज की स्वार्थपरकता का प्रतीक है।
नहीं मनाना मुझे कोई डे। वैसे भी आजकल लॉगिन डे से ही पेट भर जाता है। और कुछ मानाने का मन ही नहीं करता।
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थ्रेड: #बेगानी_शादी
नौकरीपेशा आदमी के लिए जिंदगी की हर चीज मुसीबत की तरह ही लगती है। फलाने की शादी है। ज्यादा करीब हुआ तो छुट्टी लेनी पड़ेगी, नहीं तो ऑफिस से जल्दी निकलकर शादी में जाना पड़ेगा। अगर फैमिली रिलेशन है तो वाइफ को भी साथ ले जाना पड़ेगा।
नहीं तो कोशिश तो अकेले ही अटेंडेंस लगाने की रहती है। आठ बजे ऑफिस से छूटो, फिर शादी में जाओ। लिफाफा भी तो देना है। घर पहुँचते पहुँचते 11 बज जाते हैं। त्यौहारों का तो और भी बुरा हाल है। एक दिन की छुट्टी में क्या त्यौहार मनाये आदमी।
दिवाली पे अक्सर एक दिन की छुट्टी आती है। कई जगह दो दिन की और कई जगह तो कोई छुट्टी ही नहीं। एक दिन की छुट्टी में क्या दिवाली मनाये आदमी?
थ्रेड: #हंस_चला_बगुले_की_चाल
भारत एक मानसून आधारित देश हैं जहाँ साल में एक तिहाई समय मानसून का होता है। मानसून में जबरदस्त बरसात होती है। साल भर के हिस्से की बरसात चार महीनों में ही हो जाती है। बाकी समय लगभग सूखा ही रहता है।
यहाँ के मानसून को समझना विदेशियों के लिए हमेशा से एक टेढ़ी खीर ही रहा। विशेषकर अंग्रेज तो मानसून से इतने परेशान थे कि भारत की कृषि व्यवस्था की रीढ़ तोड़कर ही माने। लेकिन भारतीयों के लिए मानसून जीवनशैली का एक अभिन्न अंग था। हमारी जीवनशैली मानसून के हिसाब से ढली हुई थी।
मानसून के "चौमासे" में न तीर्थ यात्रा होती थी और ना ही शुभ कार्य जैसे विवाह इत्यादि। इन चार महीनों में हो देवताओं से सोने की परंपरा शुरू हुई थी वो आज भी जारी है। राम ने भी लंका पर चढ़ाई चार महीने के लिए रोकी थी और मानसून के दौरान माल्यवान पर्वत पर इंतज़ार किया था।
थ्रेड: #अंधी_पीसे_कुत्ता_खाय
भूखी जनता राजा के पास पहुंची: महाराज!!! विदेशी सब लूट के ले गए। खाने को कुछ नहीं है। कुछ कीजिये।
राजा (मंत्रियों से): सबके भोजन का इंतज़ाम करो। और सबको अन्न उगाने के लिए पर्याप्त भूमि, बीज खाद दो ताकि भविष्य में कोई भूखा न रहे।
कुछ समय बाद राज्य के सभी धनी व्यापारी राजा के पास पहुंचे: महाराज!!! हम तो बर्बाद हो गए।
राजा: क्या हुआ?
व्यापारी: महाराज!!! लोग खुद ही अन्न उगा रहे हैं और खा रहे हैं। साथ ही बुरे समय के लिए अन्न बचा भी रहे हैं। लोग आत्मनिर्भर हो रहे हैं। हमारी किसी को जरूरत ही नहीं।
फिर हमारा क्या होगा?
राजा: तो मैं क्या करूँ? जनता को अन्न उगाने से तो नहीं रोक सकता।
व्यापारी: लेकिन अन्न बचाने से तो रोक सकते हैं। ताकि हमारी भी दुकान चल सके। याद रखिये की आपका सिंहासन रथ वगैरह सब हमने ही स्पांसर किया हुआ है।
तो हुआ यूं कि पिछले महीने हमारी मोबाइल फ़ोन की एलिजिबिलिटी रिन्यू हुई। और हमारा फ़ोन भी काफी पुराना हो चुका था। छः साल से एक ही फ़ोन को चला रहे थे। हमारे फ़ोन को लोग ऐसे नजरों से देखते थे
जैसे कि हड़प्पा की खुदाई से निकला हुआ कोई नमूना देख लिया हो। लेकिन हम भी उस पुराने फ़ोन को घूंघट के ऑउटडेटेड रिवाज़ की तरह चलाये जा रहे थे। लेकिन समस्या तब हुई जब मोबाइल बैंकिंग के एप्प ने एंड्राइड 8 को ब्रिटिशराज घोषित करके आज़ादी की मांग कर दी।
अब तो हमें नया फ़ोन चाहिए ही था। अब चूंकि हम मोबाइल की दुनिया में चल रही क्रांति से नावाक़िफ़ थे इसलिए हमने यूट्यूब का रुख किया। वहां हमको अलग ही लेवल की भसड़ मिली। उनके बारे में बाद में बात करेंगे।
नोटबंदी जैसी तुग़लकी स्कीम जिससे सिर्फ एक पार्टी और चंद पूंजीपतियों को हुआ, लेकिन पूरा देश एक एक पैसे के लिए तरस गया, धंधे बर्बाद हो गए, बैंकरों ने अपनी जान खपा दी, दिन रात पत्थरबाजी झेली, रोज गालियां खाई,
साहब के कपड़ों की तरह दिन में कई कई बार बदले नियमों को झेला, नुक्सान की भरपाई जेब से करी। और जैसा कि होना था, भारी मीडिया मैनेजमेंट और ट्रोल्स की फ़ौज के बावजूद नोटबंदी फेल साबित हुई।
जब नोटबंदी फेल हुई थी तो बड़ी बेशर्मी से इन लोगों ने नोटबंदी की विफलता का ठीकरा बैंकों के माथे फोड़ दिया।
"अजी वो तो बैंक वाले ही भ्रष्ट हैं वरना जिल्लेइलाही ने तो ऐसे स्कीम चलाई थी कि देश से अपराध ख़त्म ही हो जाना था।"
थ्रेड: #ड्यू_डिलिजेंस
बैंक में ड्यू डिलिजेंस बहुत जरूरी चीज है। बिना ड्यू डिलिजेंस के हम लोन देना तो दूर की बात है कस्टमर का करंट खाता तक नहीं खोलते।
लोन देने से पहले पचास सवाल पूछते हैं। पुराना रिकॉर्ड चेक करते हैं। चेक बाउंस हिस्ट्री चेक करते हैं।
और लोन देने के बाद भी उसकी जान नहीं छोड़ते। किसी कस्टमर के खाते में अगर एक महीने किश्त ना आये तो उसकी CIBIL खराब हो जाती है। और तीन महीने किश्त न आये तो खाता ही NPA हो जाता है और फिर उसे कोई लोन नहीं देता। #12thBPS
अगर डॉक्यूमेंट देने में या और कोई कम्प्लाइंस में ढील बरते तो बैंक पीनल इंटरेस्ट चार्ज भी करते हैं। लेकिन बैंकों का ये ड्यू डिलिजेंस केवल कस्टमर के लिए ही है। पिछले 56 सालों से बैंकरों का अपना रीपेमेंट टाइम पर नहीं आ रहा। हर पांच साल में बैंकरों का वेज रिवीजन ड्यू हो जाता है।