एक प्रधानमंत्री को क्या विधान सभा चुनावों मे अपने गठबंधन के लिए प्रचार करना चाहिए ?
प्रधानमंत्री पद की एक गरिमा होती है क्योंकि वह देश का प्रधानमंत्री होता है न कि किसी दल गठबंधन का प्रधानमंत्री होता है।
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ऐसे में जब प्रधानमंत्री के लिए लोकसभा चुनाव होते हैं केवल तभी अपने गठबंधन हेतु चुनाव प्रचार करना चाहिए जो न्यायसंगत होता है. लेकिन प्रधानमंत्री होते हुए किसी राज्य मे विधान सभा चुनावों में गठबंधन हेतु प्रचार करना न्यायसंगत नहीं लगता।
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क्योंकि विधानसभा चुनाव में यदि विरोधी सत्ता में जीत कर आ जाये तो क्या प्रधानमंत्री उस विरोधी को कहे शब्द वापिस लेगा ?
क्या उस सत्ता पक्ष को स्वीकार नहीं करेगा ?
क्या उसे केन्द्र की ओर से असहयोग करेगा ?
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क्या यह न्यायसंगत है कि एक प्रधानमंत्री ऐसे संकेत लोगों को दे कि मेरी पार्टी संगठन सत्ता मे आई तो ही राज्य में विकास होगा और हम उसे ज्यादा मदद देंगे आदि।
क्या यह राजनीति एक प्रकार का ब्लैकमैलिंग नहीं होगी ?
क्या ऐसा बोलना करना लोकतंत्र की हत्या नहीं है ?
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क्या ऐसा करना एक फेड्रल सिस्टम के देश के प्रधानमंत्री को शोभा देता है जो लोकतंत्र की मूल भावनाओं से खिलवाड करता है?
मेरा मानना है ऐसा प्रधानमंत्री को नहीं करना चाहिए यदि करना ही है तो चुनावी प्रचार तक अपने पद से मुक्त होकर करना चाहिए।
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क्या आज तक किसी दूसरे प्रधानमंत्री को विधानसभा चुनाव में प्रचार करते देखा है ?
मैंने तो नहीं सुना।
सब कुछ मोदी जी द्वारा ही दिखाया जा रहा है।
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मेरे निजी मत में ऐसा करना प्रधानमंत्री पद की गरिमा के खिलाफ है। शायद उन्हें ऐसा नही करना चाहिए।
यह ठीक नहीं है विशेषकर राज्यों के समूह के तौर पर निर्मित देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था में तो बिल्कुल नहीं।
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क्या ‘धार्मिक कट्टरवाद बनाम धर्मनिरपेक्षतावाद’ की लड़ाई अब एक नए दौर ‘उदार धर्मनिरपेक्षतावाद ( सेक्युलरवाद) बनाम कट्टर धर्मनिरपेक्षतावाद’ में तब्दील होती जा रही है?
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यह सवाल इसलिए क्योंकि धर्मनिरपेक्ष समाज और सत्ता तंत्र का पालन कहे जाने वाले फ्रांस में इस को लेकर तगड़ी बहस छिड़ी है कि धार्मिक और विशेषकर इस्लामिक कट्टरवाद से मुकाबला किस तरह से किया जाए।
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इस सवाल का उत्तर वाकई जटिल है कि धार्मिकता की हदें कहां तक होनी चाहिए और धर्मनिरपेक्षता को किस हद सहिष्णुता का मास्क पहनना चाहिए। कुछ लोग तर्क दे सकते हैं कि धर्मनिरपेक्षता में धार्मिक सहिष्णुता स्वत: निहित है।
अंदेशा तो था ही, अब विज्ञान ने भी कह दिया है कि हम अपनी अक्कल दाढ़ खोते जा रहे हैं। अक्ल गंवाने का सबूत तो इंसान पहले भी कई बार दे चुका है, लेकिन डाढ़ के जाते रहने की पुष्टि अब हुई है।
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आप मानें न मानें, एक प्रजाति के रूप में हम मनुष्यों में कई बदलाव हो रहे हैं। ये बदलाव शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और भौतिक रूप में हैं। इसे माइक्रोइवोल्युशन कहा जा रहा है।
शोधकर्ताओं के मुताबिक बीते 250 सालों में मनुष्य की संरचना में तेजी से परिवर्तन हो रहे हैं।
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हाल में ऑस्ट्रेलिया के वैज्ञानिकों ने एक रिसर्च में चौंकाने वाला खुलासा किया िक एक तरफ मनुष्य की अकल दाढ़ विलुप्ति की कगार पर है तो दूसरी तरफ हमारी बांहों में एक अतिरिक्त आर्टरी (धमनी) पाई जा रही है।
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पहली स्त्री है
जिसके दूध के दाँत नहीं टूटे
उसे चॉकलेट पसन्द है
उसका मुँह दबोचा गया एकांत में
और कहा गया "चुप रहना"
समय आने पर उसे दफ़ना दिया जाएगा
या जला दिया जाएगा
उसी एकांत में
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दूसरी स्त्री क़ैद है
रिश्तों की चारदीवारी में
उसकी जाँघें खरोंचकर
टाँगों के बीच भरी गईं
सुहाग की निशानियाँ
उसके गालों को खींचकर
चिपका दिया गया
मर्यादा की दीवारों से
ताकि बनी रहे उसके होठों पर
चिरकाल तक एक स्थिर मुस्कान
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तीसरी स्त्री वो है जो
उठा ली गयी राह चलते
उसे बांध दिया गया
जकड़कर
मजबूर किया गया उसे
साँस लेने को
जब तक उसके शरीर से
माँस का एक-एक क़तरा
न नोच लिया गया हो
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प्रधान न्यायाधीश की टिप्पणी से देश में ‘अभिव्यक्ति की आजादी’ और उसकी परिसीमा का मुद्दा फिर चर्चा में है। शाहीन बाग प्रकरण में अपने निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि विरोध प्रदर्शन का संवैधानिक अधिकार सब को है, लेकिन इसकी आड़ में सार्वजनिक स्थान पर कब्जा नहीं किया जा सकता।
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जबकि तब्लीगी जमात से जुड़े मामले में एक याचिका पर सुनवाई में चीफ जस्टिस एस.ए.बोबडे ने गंभीर टिप्पणी की कि आज ‘अभिव्यक्ति की आजादी’ सबसे ज्यादा दुरूपयोग हो रहा है। इन पर बहुत गंभीरतापूर्वक विचार करने की जरूरत है।
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बेशक आज जरूरत इस बात की भी है कि कोर्ट को ऐसी टिप्पणी करने की नौबत क्यों आई? और ऐसा होने देने के लिए कौन जिम्मेदार है, तंत्र की मनमानी या व्यक्ति की स्वच्छंदता?
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मैं कांग्रेस को सिर्फ इसलिये नहीं पसन्द करता कि आज़ादी की लड़ाई में इसके लीडरों ने देश का नेतृत्व किया..
बल्कि मेरी सोच, मेरी विचारधारा का राजनैतिक पटल पर कोई दल यदि प्रतिनिधित्व करता है तो वह काँग्रेस है।
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मैं जानता हूँ, व्यक्तिपूजक होना खतरनाक होता है,किन्तु नेहरू के प्रति मुझे आकर्षण है। मुझे नेहरू की तार्किकता और बुद्धिमानी आकर्षित करती है,
गांधी जी की सात्त्विक सीमा है, नेहरू की व्यवहारिकता असीम है।
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तमाम मानवीय कमजोरियों और भूलों के बावजूद सिर्फ नेहरू ही इस देश के सलामी बल्लेबाज बन सकते हैं, यह सोचने की दूरदर्शिता गांधी जी में थी और वे सही साबित हुए।
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