क्या ‘धार्मिक कट्टरवाद बनाम धर्मनिरपेक्षतावाद’ की लड़ाई अब एक नए दौर ‘उदार धर्मनिरपेक्षतावाद ( सेक्युलरवाद) बनाम कट्टर धर्मनिरपेक्षतावाद’ में तब्दील होती जा रही है?
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यह सवाल इसलिए क्योंकि धर्मनिरपेक्ष समाज और सत्ता तंत्र का पालन कहे जाने वाले फ्रांस में इस को लेकर तगड़ी बहस छिड़ी है कि धार्मिक और विशेषकर इस्लामिक कट्टरवाद से मुकाबला किस तरह से किया जाए।
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इस सवाल का उत्तर वाकई जटिल है कि धार्मिकता की हदें कहां तक होनी चाहिए और धर्मनिरपेक्षता को किस हद सहिष्णुता का मास्क पहनना चाहिए। कुछ लोग तर्क दे सकते हैं कि धर्मनिरपेक्षता में धार्मिक सहिष्णुता स्वत: निहित है।
यानी तुम्हारी भी जय-जय और हमारी भी जय-जय!
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लेकिन वास्तव में यह अर्द्ध सत्य ही है।
क्योंकि धर्मनिरपेक्षता (सेक्युलरिज्म, आजकल सेक्युलिरिटी शब्द भी प्रचलन में है) की परिभाषा वास्तव में क्या है?
सर्व धर्म समभाव, पंथ निरपेक्षता अथवा सभी धर्मों की सार्वजनिक उपस्थिति को अमान्य करना, इस आधार पर कि...
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...जब राज्य की अवधारणा ही धर्मविहीन है तो किसी को भी अपने धार्मिक विश्वासों अथवा अस्मिता का सरेआम प्रदर्शन नहीं करना चाहिए और न ही राज्य को कोई ऐसा कृत्य करना चाहिए, जिससे राज सत्ता और धर्म सत्ता का कोई घालमेल दिखे।
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यदि कोई ऐसा करता है तो उसे सख्ती से रोका जाए, क्योंकि धर्म पालन तथा धार्मिक कर्मकांड नितांत निजी मामले हैं, जो घर की चारदीवारी या किसी धर्म स्थल की चौहद्दी तक ही स्वीकार्य हैं।
फ्रांस दुनिया का वो देश है, जिसका अधिकृत धर्म ही ‘धर्मविहीनता’ है।
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यानी ‘धर्म विहीन राज्य' ही फ़्रांस का सरकारी धर्म है। इसे फ्रेंच भाषा में ‘लैसिते’ कहा जाता है, जिसका शाब्दिक अर्थ है ‘धर्म से मुक्ति।‘ अर्थात ‘धर्म से मुक्ति’ ही फ्रांस की राष्ट्रीय विचारधारा है।
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बीबीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक राजनीतिक प्रेक्षक डोमिनिक मोइसी ने हाल में अपनी एक टिप्पणी में कहा था कि ये (लैसिते) पर से थोपी गई एक प्रथा है। उन्होंने कहा- "लैसिते (फ्रांसीसी) गणतंत्र का पहला धर्म बन गया है।"
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धर्मविहीन राज्य की यह संकल्पना फ्रांस की उस राज्य क्रांति से उपजी है, जिसके मुताबिक धर्म को मानना व्यक्ति का निजी मामला है। उसे दूसरे पर न तो थोपा जाना चाहिए और न ही ऐसा कोई काम या प्रैक्टिस की जानी चाहिए, जिससे आप किसी खास धर्म के अनुयायी हैं, यह प्रकट हो।
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यानी अगर आप फ्रांस में हैं तो फ्रांसीसी पहले हैं। ईसाई, मुसलमान, यहूदी या और किसी धर्म के अनुयायी बाद में। हां, आपको निजी तौर पर इबादतगाहों में जाने और धर्म के पालन की छूट है।
अब यहां प्रश्न यह है कि कौन सा अधिकार ज्यादा बड़ा है?
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धर्म के अनुसार आचरण का या फिर ऐसा करने को नकारने का?
मतलब साफ है कि यदि आप को धर्म के पालन का जितना हक है, उतना ही उसका पालन न करने का भी है। ऐसे में यदि राज्य धर्म, धर्मविहीनता है और कोई व्यक्ति इसका उल्लंघन करता है तो उसके साथ कैसा बर्ताव किया जाना चाहिए?
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इस प्रश्न के दो उत्तर हो सकते हैं। पहला, उसके प्रति सहनशील रवैया अपनाया जाना चाहिए और दूसरा ऐसी किसी भी कोशिश को सख्ती से दबाया जाना चाहिए।
दोनो स्थितियों में धर्मनिरपेक्षता का झंडा ऊंचा रहेगा, लेकिन धार्मिक कट्टरता से निपटने का तरीका अलग-अलग होगा।
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फ्रांस बनाम मुस्लिम राष्ट्रों का यह टकराव जल्द नहीं थमा तो आगे यह गंभीर वैश्विक संकट का रूप भी ले सकता है। यूं तो भारत का इस घटनाक्रम से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है, लेकिन इसका परोक्ष असर हम पर भी होगा, तय मानिए।
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बावजूद इस विश्वास के कि भारतीय समाज और सत्ता तंत्र का चरित्र, हमारी परंपरा व सामाजिक सौहार्द के अटूट धागे हमें ऐसे ‘अतिवाद’ से बचा लेंगे।
असली सवाल फिर भी बाकी रहेगा कि अल्पसंख्यक धार्मिक आग्रहों और बहुसंख्यक मान्यताओं के बीच तालमेल कैसे और किस हद बैठाया जाना चाहिए?
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भारत के संदर्भ में कट्टर धर्मनिरपेक्षता ज्यादा सही है या उदार धर्मनिरपेक्षता?
सर्वधर्म समभाव उचित है या धर्मविहीनता का आग्रह?
क्योंकि राज्य को पूरी तरह ‘धर्म मुक्त’ करने के भी अपने सामाजिक-राजनीतिक खतरे हैं, जो हम फ्रांस में देख रहे हैं।
हमें किस राह पर चलना चाहिए?
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एक प्रधानमंत्री को क्या विधान सभा चुनावों मे अपने गठबंधन के लिए प्रचार करना चाहिए ?
प्रधानमंत्री पद की एक गरिमा होती है क्योंकि वह देश का प्रधानमंत्री होता है न कि किसी दल गठबंधन का प्रधानमंत्री होता है।
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ऐसे में जब प्रधानमंत्री के लिए लोकसभा चुनाव होते हैं केवल तभी अपने गठबंधन हेतु चुनाव प्रचार करना चाहिए जो न्यायसंगत होता है. लेकिन प्रधानमंत्री होते हुए किसी राज्य मे विधान सभा चुनावों में गठबंधन हेतु प्रचार करना न्यायसंगत नहीं लगता।
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क्योंकि विधानसभा चुनाव में यदि विरोधी सत्ता में जीत कर आ जाये तो क्या प्रधानमंत्री उस विरोधी को कहे शब्द वापिस लेगा ?
क्या उस सत्ता पक्ष को स्वीकार नहीं करेगा ?
क्या उसे केन्द्र की ओर से असहयोग करेगा ?
अंदेशा तो था ही, अब विज्ञान ने भी कह दिया है कि हम अपनी अक्कल दाढ़ खोते जा रहे हैं। अक्ल गंवाने का सबूत तो इंसान पहले भी कई बार दे चुका है, लेकिन डाढ़ के जाते रहने की पुष्टि अब हुई है।
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आप मानें न मानें, एक प्रजाति के रूप में हम मनुष्यों में कई बदलाव हो रहे हैं। ये बदलाव शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और भौतिक रूप में हैं। इसे माइक्रोइवोल्युशन कहा जा रहा है।
शोधकर्ताओं के मुताबिक बीते 250 सालों में मनुष्य की संरचना में तेजी से परिवर्तन हो रहे हैं।
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हाल में ऑस्ट्रेलिया के वैज्ञानिकों ने एक रिसर्च में चौंकाने वाला खुलासा किया िक एक तरफ मनुष्य की अकल दाढ़ विलुप्ति की कगार पर है तो दूसरी तरफ हमारी बांहों में एक अतिरिक्त आर्टरी (धमनी) पाई जा रही है।
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पहली स्त्री है
जिसके दूध के दाँत नहीं टूटे
उसे चॉकलेट पसन्द है
उसका मुँह दबोचा गया एकांत में
और कहा गया "चुप रहना"
समय आने पर उसे दफ़ना दिया जाएगा
या जला दिया जाएगा
उसी एकांत में
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दूसरी स्त्री क़ैद है
रिश्तों की चारदीवारी में
उसकी जाँघें खरोंचकर
टाँगों के बीच भरी गईं
सुहाग की निशानियाँ
उसके गालों को खींचकर
चिपका दिया गया
मर्यादा की दीवारों से
ताकि बनी रहे उसके होठों पर
चिरकाल तक एक स्थिर मुस्कान
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तीसरी स्त्री वो है जो
उठा ली गयी राह चलते
उसे बांध दिया गया
जकड़कर
मजबूर किया गया उसे
साँस लेने को
जब तक उसके शरीर से
माँस का एक-एक क़तरा
न नोच लिया गया हो
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प्रधान न्यायाधीश की टिप्पणी से देश में ‘अभिव्यक्ति की आजादी’ और उसकी परिसीमा का मुद्दा फिर चर्चा में है। शाहीन बाग प्रकरण में अपने निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि विरोध प्रदर्शन का संवैधानिक अधिकार सब को है, लेकिन इसकी आड़ में सार्वजनिक स्थान पर कब्जा नहीं किया जा सकता।
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जबकि तब्लीगी जमात से जुड़े मामले में एक याचिका पर सुनवाई में चीफ जस्टिस एस.ए.बोबडे ने गंभीर टिप्पणी की कि आज ‘अभिव्यक्ति की आजादी’ सबसे ज्यादा दुरूपयोग हो रहा है। इन पर बहुत गंभीरतापूर्वक विचार करने की जरूरत है।
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बेशक आज जरूरत इस बात की भी है कि कोर्ट को ऐसी टिप्पणी करने की नौबत क्यों आई? और ऐसा होने देने के लिए कौन जिम्मेदार है, तंत्र की मनमानी या व्यक्ति की स्वच्छंदता?
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मैं कांग्रेस को सिर्फ इसलिये नहीं पसन्द करता कि आज़ादी की लड़ाई में इसके लीडरों ने देश का नेतृत्व किया..
बल्कि मेरी सोच, मेरी विचारधारा का राजनैतिक पटल पर कोई दल यदि प्रतिनिधित्व करता है तो वह काँग्रेस है।
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मैं जानता हूँ, व्यक्तिपूजक होना खतरनाक होता है,किन्तु नेहरू के प्रति मुझे आकर्षण है। मुझे नेहरू की तार्किकता और बुद्धिमानी आकर्षित करती है,
गांधी जी की सात्त्विक सीमा है, नेहरू की व्यवहारिकता असीम है।
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तमाम मानवीय कमजोरियों और भूलों के बावजूद सिर्फ नेहरू ही इस देश के सलामी बल्लेबाज बन सकते हैं, यह सोचने की दूरदर्शिता गांधी जी में थी और वे सही साबित हुए।
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