‘ये मेरा आखिरी चुनाव है’- जैसा जुमला उस राजनीतिक बूटी की तरह है, जिसका इस्तेमाल सारे वशीकरण मंत्र फेल होने के बाद किया जाता है। निर्मोह के आवरण में सत्ता के मोह पाश की यह ऐसी हवस है, जो मिटते नहीं मिटती और बाहर से भीतर तक ‘मैं ही मैं’ के रूप में गूंजती रहती है।
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नेताओं का बस चले तो वो यमदूतों को भी यह कहकर लौटा दें कि यह मेरा ‘आखिरी चुनाव’ है। अगले चुनाव के वक्त आना। दूसरे शब्दों में कहें तो यह नेताओं के लिए अपने सियासी वजूद की वो जीवन रक्षक दवा है,जिसके कारगर होने की संभावना फिफ्टी- फिफ्टी रहती है।
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इसमें राजनीतिक वानप्रस्थ का छद्म वैराग्य भाव छिपा रहता है।
वैसे भी राजनीति में खाने और दिखाने के दांत अलग होते हैं।
एक दिलचस्प तथ्य यह भी है कि भले ही नीतीश इस विधानसभा चुनाव को अपना ‘आखिरी चुनाव’ बता रहे हों, लेकिन खुद उन्होंने 2004 के बाद से कोई चुनाव नहीं लड़ा है।
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उसके बाद से बतौर सीएम वो बिहार विधान परिषद के सदस्य ही हैं। 2004 में भी उन्होंने लोकसभा चुनाव जीता था। राज्य विधानसभा में तो आखिरी चुनकर वो 1985 में पहुंचे थे।
कोई आहट तो है, जिसे नीतीश की अनुभवी आंखों ने पहले ही बांच लिया है। वरना सत्ता की लत ऐसी है, जो छूटे नहीं छूटती।
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'जनसेवा’ के नाम पर हर बार सत्ता हासिल करने ‘अबकी बार..’ या ‘एक बार फिर..’ जैसे नारे इसी अदम्य आकांक्षा से उपजते हैं।
क्योंकि कोई चुनाव अगर सचमुच ‘आखिरी’ है तो ‘आखिरी बार भेज दो यार..' जैसे जुमलों की पूंछ पकड़कर जनमत की वैतरणी पार करने की जरूरत क्या है?
😂😂😂
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जब आपको लगने लगे कि आपकी रीच कम हो गई है, आपके घर पर पत्थर नहीं फेंके जा रहे हैं, या आपके मन में सवाल उठने लगे कि देश में से अंडभक्तों की संख्या चिंताजनक रूप से कम हो गई है तो एक मजेदार प्रयोग करें। 😄
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एक संदेहास्पद विश्वसनीयता वाली पोस्ट करें। देखिए तुरंत किसी बिल से नकल कर भक्तों की फौज हरिश्चंद्र की औलादों के सुर में तत्काल आपकी पोस्ट पर फुफकारने लगेगी। 😂
आपको चैलेंज किया जाने लगेगा, आपकी माता बहनों को याद किया जाने लगेगा, ..
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और आपको हलाला की औलाद वगैरह विशेषणों से नवाजते हुए सत्य की दुहाई दी जाने लगेगी। 😆
समस्त दूध से धुला हुआ भक्त संसार आपको झूठा, कपटी, चमचा आदि सिद्ध करते हुए दुनिया का निकृष्टम व्यक्ति साबित कर देंगे। 😁
आपने दूरदर्शन देखना छोड़ा, प्राइवेट ऑपरेटरों ने 500 रुपये महीने निकाल लिए।
BSNL छोड़ा, प्राइवेट वाले दोगुना लेने की तैयारी में ताल ठोकने लगे हैं।
आप सरकारी रेडियो आकाशवाणी नही सुनेंगे तो प्राइवेट FM वाले आपको गाना और सिर्फ गाना सुनाकर खुद करोडों कमाएंगे।
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आपने दूरदर्शन देखना छोड़ा, प्राइवेट ऑपरेटरों ने 500 रुपये महीने निकाल लिए।
BSNL छोड़ा, प्राइवेट वाले दोगुना लेने की तैयारी में ताल ठोकने लगे हैं।
आप सरकारी रेडियो आकाशवाणी नही सुनेंगे तो प्राइवेट FM वाले आपको गाना और सिर्फ गाना सुनाकर खुद करोडों कमाएंगे।
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आप लोग रोडवेज बसों में सफर नहीं करेंगे और दो पैसे बचाने के चक्कर में निजी बसों में यात्रा करेंगे तो रोडवेज बंद हो जाएगी। फिर निजी बस वाले मनमाना किराया वसूलेंगे और रोज सरकार का करोड़ों रूपये का टैक्स रूपी राजस्व चोरी करेंगे। उनमें सुरक्षा की भी कोई गारंटी नहीं।
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क्या ‘धार्मिक कट्टरवाद बनाम धर्मनिरपेक्षतावाद’ की लड़ाई अब एक नए दौर ‘उदार धर्मनिरपेक्षतावाद ( सेक्युलरवाद) बनाम कट्टर धर्मनिरपेक्षतावाद’ में तब्दील होती जा रही है?
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यह सवाल इसलिए क्योंकि धर्मनिरपेक्ष समाज और सत्ता तंत्र का पालन कहे जाने वाले फ्रांस में इस को लेकर तगड़ी बहस छिड़ी है कि धार्मिक और विशेषकर इस्लामिक कट्टरवाद से मुकाबला किस तरह से किया जाए।
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इस सवाल का उत्तर वाकई जटिल है कि धार्मिकता की हदें कहां तक होनी चाहिए और धर्मनिरपेक्षता को किस हद सहिष्णुता का मास्क पहनना चाहिए। कुछ लोग तर्क दे सकते हैं कि धर्मनिरपेक्षता में धार्मिक सहिष्णुता स्वत: निहित है।
एक प्रधानमंत्री को क्या विधान सभा चुनावों मे अपने गठबंधन के लिए प्रचार करना चाहिए ?
प्रधानमंत्री पद की एक गरिमा होती है क्योंकि वह देश का प्रधानमंत्री होता है न कि किसी दल गठबंधन का प्रधानमंत्री होता है।
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ऐसे में जब प्रधानमंत्री के लिए लोकसभा चुनाव होते हैं केवल तभी अपने गठबंधन हेतु चुनाव प्रचार करना चाहिए जो न्यायसंगत होता है. लेकिन प्रधानमंत्री होते हुए किसी राज्य मे विधान सभा चुनावों में गठबंधन हेतु प्रचार करना न्यायसंगत नहीं लगता।
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क्योंकि विधानसभा चुनाव में यदि विरोधी सत्ता में जीत कर आ जाये तो क्या प्रधानमंत्री उस विरोधी को कहे शब्द वापिस लेगा ?
क्या उस सत्ता पक्ष को स्वीकार नहीं करेगा ?
क्या उसे केन्द्र की ओर से असहयोग करेगा ?
अंदेशा तो था ही, अब विज्ञान ने भी कह दिया है कि हम अपनी अक्कल दाढ़ खोते जा रहे हैं। अक्ल गंवाने का सबूत तो इंसान पहले भी कई बार दे चुका है, लेकिन डाढ़ के जाते रहने की पुष्टि अब हुई है।
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आप मानें न मानें, एक प्रजाति के रूप में हम मनुष्यों में कई बदलाव हो रहे हैं। ये बदलाव शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और भौतिक रूप में हैं। इसे माइक्रोइवोल्युशन कहा जा रहा है।
शोधकर्ताओं के मुताबिक बीते 250 सालों में मनुष्य की संरचना में तेजी से परिवर्तन हो रहे हैं।
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हाल में ऑस्ट्रेलिया के वैज्ञानिकों ने एक रिसर्च में चौंकाने वाला खुलासा किया िक एक तरफ मनुष्य की अकल दाढ़ विलुप्ति की कगार पर है तो दूसरी तरफ हमारी बांहों में एक अतिरिक्त आर्टरी (धमनी) पाई जा रही है।
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