ओपीनियन पोल, एग्जिट पोल, काउंटिंग ट्रेंड और एक्जेक्ट रिजल्ट। हर चुनाव की वो स्टेप्स हैं, जिनको नापना चुनाव विश्लेषक की जिम्मेदारी और शगल होता है। हकीकत में उन्हें उड़ती चिडि़या को देखकर बताना होता है कि वो किस डाल पर बैठेगी।
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अब चिडि़या है कि कई बार उस डाल पर जा बैठती है, जो विश्लेषकों की नापसंद होती है या कई दफा वो किसी भी डाल पर बैठने के बजाए फुर्र से उड़ जाती है या फिर आसमान में ही पर मारती रहती है।
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चुनाव विश्लेषक चिडि़या की हर अदा का विश्लेषण इस अंदाज में करते हैं कि मानो चिडि़या उन्हीं से पूछकर उड़ी थी। वैसे कई चुनाव विश्लेषक अपनी राय जताते हुए यह भी कहे जाते हैं कि वो जो कह रहे हैं, अंतिम परिणाम वैसा होगा, जरूरी नहीं है।
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टीवी चैनल से चिपका दर्शक समझ नहीं पाता कि इस जुमले का निश्चित अर्थ क्या है। दरअसल चुनाव नतीजों को समझना जितना आसान है, चलती मतगणना में उसका सटीक विश्लेषण का काम बहुत कठिन और जोखिम भरा होता है।
यूं चुनाव विश्लेषण पहले भी होते थे,
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लेकिन उसमें जनमत के रूझान या सतह के नीचे खदबदा रहे असंतोष को भांपने की कोशिश ज्यादा होती थी।
चुनाव नतीजे क्या होंगे, क्या होने चाहिए, ऐसी भविष्यवाणी करने के बजाए नतीजों के कारणों और प्रवृत्तियों का वस्तुनिष्ठ विश्लेषण हुआ करता था।
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लेकिन टीवी का जमाना आने के बाद ‘चुनावी ज्योितषगिरी’ इतनी हावी हो गई है कि इस चक्रव्यूह में ज्यादातर दर्शक ही बेवकूफ बनता है।
उस पर सोशल मीडिया भी आ जाने के बाद तो फौरी बौद्धिक विश्लेषणों में से ‘धैर्य’ शब्द डिलीट ही हो गया है।
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यानी पत्ता खड़कने को भी आंधी बता दिया जाता है और अंडर करंट हो तो पास के चश्मे से भी साफ नहीं दिखता।
यही नहीं बिना किसी अफसोस के मूर्खता करने का ट्रेंड भी सोशल मीडिया ने ही सेट किया है।
बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजे फिर एक बार चुनाव विश्लेषकों की पुंगी बजाने वाले रहे।
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2015 में भी ऐसा ही हुआ था। राज्य में शुरूआती रूझानों के आधार पर बिहार में भगवा सरकार बनने का स्वस्ति वाचन विश्लेषकों/चैनलों ने शुरू कर दिया था, लेकिन घंटे भर में ही तस्वीर पूरी तरह उलट गई।
लालू-नीतीश का गुणगान होने लगा। चुनाव विश्लेषक भी हक्के-बक्के रह गए।
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काटो तो खून नहीं वाली स्थिति। इस बार फिर बिहार ने चुनाव विश्लेषकों को गच्चा दे दिया है।
एग्जिट पोल से चढ़े अरमानों पर एक्जेक्ट पोल ने ठंडा पानी डाल दिया।
सुबह धूप तेज होने तक युवा तेजस्वी के राजनीतिक तेज का महिमागान करने वाले सूरज ढलते महागठबंधन की गलतियां हमें बताने लगे।
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फिर मामला ट्वेंटी-ट्वेंटी के रोमांच पर अटक गया। आखिरी बाजी राजग के हाथ रही।
उधर स्टूडियो में बैठे चुनाव विश्लेषक यह गले उतारने मे जुट गए कि नीतीश अभी भी जमीनी नेता हैं और भाजपा की रणनीतिक खूबियां क्या रहीं? या फिर महागठबंधन किस ताकत से टक्कर दे रहा है।
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जो विश्लेषक सुबह तक जिस पार्टी के जीतने का गहन विश्लेषण करता दिखता है, शाम को उसी पार्टी की नाकामियों के कारणों पर विस्तार से रोशनी डालने से नहीं चूकता।
हकीकत में चुनाव नतीजे क्या होंगे,यह विश्लेषक तो क्या गिनती से पहले भगवान को भी पता नहीं होता।
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ज्यादातर मामलों में पति-पत्नी को आपस में भी पता नहीं होता कि कौन किस पार्टी का बटन दबाकर आया है।
अलबत्ता चुनाव विश्लेषक अपने सहज और सामान्य ज्ञान के आधार पर कुछ न कुछ विश्लेषण करते रहते हैं।
इस भरोसे के साथ कि तुक्का कभी भी तीर बन सकता है।
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टीवी चैनलों की मजबूरी यह है कि उन्हें चुनाव परिणामों को एक ‘सीरियल थ्रिलर’ की तरह दिखाना ही है।
क्योंकि मतदाता के जिज्ञासा दोहन का यह सबसे कारगर तरीका है और चैनल की कमाई का भी।
जरूरत है कि समझदार मतदाता अपना समय इस हुतियापे में व्यर्थ न करे और कुछ क्रिएटिव काम करें।
🙏😂
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बिहार में कांग्रेस ने अपने घोषणा पत्र को ‘बिहार बदलाव पत्र’ का नाम दिया था, लेकिन नतीजों से साबित किया कि बदलाव की असल जरूरत बिहार से ज्यादा कांग्रेस को ही है।
राज्य में 2015 के चुनाव में जहां कांग्रेस ने 27 सीटें जीती थीं, वहीं इस बार यह आंकड़ा 19 ही रह गया। 🤦♂️
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कांग्रेस का चुनाव अभियान भी कोई खास दमदार नहीं था। पार्टी के स्टार नेता राहुल गांधी ने जिन क्षेत्रों में सभाएं कीं, पार्टी वहां भी ज्यादतर सीटें हार गईं।
सभाओं में राहुल उसी मोदी से प्रश्नवाचक मुद्रा में भाषण देते रहे, जैसे कि पहले देते रहे हैं।
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लेकिन राजनेता की विश्वसनीयता तब बनती है, जब सवालों के जवाब भी उसके पास हों।
राहुल गांधी के भाषणों से कई बार ऐसा लगता है कि कहीं वो भारतीय राजनीति के ‘पर्मनेंट पेपर सेटर’ तो नहीं बन गए हैं?
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‘ये मेरा आखिरी चुनाव है’- जैसा जुमला उस राजनीतिक बूटी की तरह है, जिसका इस्तेमाल सारे वशीकरण मंत्र फेल होने के बाद किया जाता है। निर्मोह के आवरण में सत्ता के मोह पाश की यह ऐसी हवस है, जो मिटते नहीं मिटती और बाहर से भीतर तक ‘मैं ही मैं’ के रूप में गूंजती रहती है।
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नेताओं का बस चले तो वो यमदूतों को भी यह कहकर लौटा दें कि यह मेरा ‘आखिरी चुनाव’ है। अगले चुनाव के वक्त आना। दूसरे शब्दों में कहें तो यह नेताओं के लिए अपने सियासी वजूद की वो जीवन रक्षक दवा है,जिसके कारगर होने की संभावना फिफ्टी- फिफ्टी रहती है।
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इसमें राजनीतिक वानप्रस्थ का छद्म वैराग्य भाव छिपा रहता है।
वैसे भी राजनीति में खाने और दिखाने के दांत अलग होते हैं।
एक दिलचस्प तथ्य यह भी है कि भले ही नीतीश इस विधानसभा चुनाव को अपना ‘आखिरी चुनाव’ बता रहे हों, लेकिन खुद उन्होंने 2004 के बाद से कोई चुनाव नहीं लड़ा है।
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जब आपको लगने लगे कि आपकी रीच कम हो गई है, आपके घर पर पत्थर नहीं फेंके जा रहे हैं, या आपके मन में सवाल उठने लगे कि देश में से अंडभक्तों की संख्या चिंताजनक रूप से कम हो गई है तो एक मजेदार प्रयोग करें। 😄
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एक संदेहास्पद विश्वसनीयता वाली पोस्ट करें। देखिए तुरंत किसी बिल से नकल कर भक्तों की फौज हरिश्चंद्र की औलादों के सुर में तत्काल आपकी पोस्ट पर फुफकारने लगेगी। 😂
आपको चैलेंज किया जाने लगेगा, आपकी माता बहनों को याद किया जाने लगेगा, ..
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और आपको हलाला की औलाद वगैरह विशेषणों से नवाजते हुए सत्य की दुहाई दी जाने लगेगी। 😆
समस्त दूध से धुला हुआ भक्त संसार आपको झूठा, कपटी, चमचा आदि सिद्ध करते हुए दुनिया का निकृष्टम व्यक्ति साबित कर देंगे। 😁
आपने दूरदर्शन देखना छोड़ा, प्राइवेट ऑपरेटरों ने 500 रुपये महीने निकाल लिए।
BSNL छोड़ा, प्राइवेट वाले दोगुना लेने की तैयारी में ताल ठोकने लगे हैं।
आप सरकारी रेडियो आकाशवाणी नही सुनेंगे तो प्राइवेट FM वाले आपको गाना और सिर्फ गाना सुनाकर खुद करोडों कमाएंगे।
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आपने दूरदर्शन देखना छोड़ा, प्राइवेट ऑपरेटरों ने 500 रुपये महीने निकाल लिए।
BSNL छोड़ा, प्राइवेट वाले दोगुना लेने की तैयारी में ताल ठोकने लगे हैं।
आप सरकारी रेडियो आकाशवाणी नही सुनेंगे तो प्राइवेट FM वाले आपको गाना और सिर्फ गाना सुनाकर खुद करोडों कमाएंगे।
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आप लोग रोडवेज बसों में सफर नहीं करेंगे और दो पैसे बचाने के चक्कर में निजी बसों में यात्रा करेंगे तो रोडवेज बंद हो जाएगी। फिर निजी बस वाले मनमाना किराया वसूलेंगे और रोज सरकार का करोड़ों रूपये का टैक्स रूपी राजस्व चोरी करेंगे। उनमें सुरक्षा की भी कोई गारंटी नहीं।
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क्या ‘धार्मिक कट्टरवाद बनाम धर्मनिरपेक्षतावाद’ की लड़ाई अब एक नए दौर ‘उदार धर्मनिरपेक्षतावाद ( सेक्युलरवाद) बनाम कट्टर धर्मनिरपेक्षतावाद’ में तब्दील होती जा रही है?
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यह सवाल इसलिए क्योंकि धर्मनिरपेक्ष समाज और सत्ता तंत्र का पालन कहे जाने वाले फ्रांस में इस को लेकर तगड़ी बहस छिड़ी है कि धार्मिक और विशेषकर इस्लामिक कट्टरवाद से मुकाबला किस तरह से किया जाए।
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इस सवाल का उत्तर वाकई जटिल है कि धार्मिकता की हदें कहां तक होनी चाहिए और धर्मनिरपेक्षता को किस हद सहिष्णुता का मास्क पहनना चाहिए। कुछ लोग तर्क दे सकते हैं कि धर्मनिरपेक्षता में धार्मिक सहिष्णुता स्वत: निहित है।
एक प्रधानमंत्री को क्या विधान सभा चुनावों मे अपने गठबंधन के लिए प्रचार करना चाहिए ?
प्रधानमंत्री पद की एक गरिमा होती है क्योंकि वह देश का प्रधानमंत्री होता है न कि किसी दल गठबंधन का प्रधानमंत्री होता है।
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ऐसे में जब प्रधानमंत्री के लिए लोकसभा चुनाव होते हैं केवल तभी अपने गठबंधन हेतु चुनाव प्रचार करना चाहिए जो न्यायसंगत होता है. लेकिन प्रधानमंत्री होते हुए किसी राज्य मे विधान सभा चुनावों में गठबंधन हेतु प्रचार करना न्यायसंगत नहीं लगता।
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क्योंकि विधानसभा चुनाव में यदि विरोधी सत्ता में जीत कर आ जाये तो क्या प्रधानमंत्री उस विरोधी को कहे शब्द वापिस लेगा ?
क्या उस सत्ता पक्ष को स्वीकार नहीं करेगा ?
क्या उसे केन्द्र की ओर से असहयोग करेगा ?