बिहार में कांग्रेस ने अपने घोषणा पत्र को ‘बिहार बदलाव पत्र’ का नाम दिया था, लेकिन नतीजों से साबित किया कि बदलाव की असल जरूरत बिहार से ज्यादा कांग्रेस को ही है।
राज्य में 2015 के चुनाव में जहां कांग्रेस ने 27 सीटें जीती थीं, वहीं इस बार यह आंकड़ा 19 ही रह गया। 🤦♂️
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कांग्रेस का चुनाव अभियान भी कोई खास दमदार नहीं था। पार्टी के स्टार नेता राहुल गांधी ने जिन क्षेत्रों में सभाएं कीं, पार्टी वहां भी ज्यादतर सीटें हार गईं।
सभाओं में राहुल उसी मोदी से प्रश्नवाचक मुद्रा में भाषण देते रहे, जैसे कि पहले देते रहे हैं।
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लेकिन राजनेता की विश्वसनीयता तब बनती है, जब सवालों के जवाब भी उसके पास हों।
राहुल गांधी के भाषणों से कई बार ऐसा लगता है कि कहीं वो भारतीय राजनीति के ‘पर्मनेंट पेपर सेटर’ तो नहीं बन गए हैं?
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कांग्रेस के बिखरे या फिर व्यक्ति केन्द्रित चुनाव प्रचार का दुष्परिणाम बिहार के बाहर मप्र सहित अन्य राज्यों के विधानसभा उपचुनावों में भी दिखा।
मध्यप्रदेश में तो शिवराज, सिंधिया और उनकी टीम ने उपचुनावों में अपनी कमजोरियों को अथक परिश्रम से ताकत में बदल दिया।
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इसका बढि़या उदाहरण डबरा से भाजपा प्रत्याशी इमरती देवी का है। इमरती, सिंधिया के साथ कांग्रेस छोड़ भाजपा में आईं और मंत्री भी बनीं। प्रचार के दौरान कमलनाथ ने मंच से उन्हें ‘आयटम’ कह दिया और इसी व्यंग्यात्मक टिप्पणी को स्त्री अपमान से जोड़कर भाजपा ने चुनाव का रंग ही बदल डाला।
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विडंबना ये कि जिस ‘आयटम’ ने भाजपा की फिल्म चुनावी बॉक्स ऑफिस पर हिट कर दी, वही इमरती देवी खुद चुनाव में खेत रहीं।
‘आयटम’ के घमासान में मंत्री पद तो दूर उनकी विधायकी भी जाती रही। अलबत्ता इमरती देवी को हराने का जश्न कांग्रेसियों ने इमरती खाकर जरूर मनाया।
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बिहार के मुस्लिम बहुल सीमांचल में भी राजग का अच्छा परफार्म करना इस बात का संकेत है कि ओवैसी बंगाल में भी भाजपा की परोक्ष मदद करेंगे। इसमें दोनो का फायदा है।
उधर बिहार में अनुकूल स्थिति भांपकर कांग्रेस ने महिने भर पहले ही माकपा से समझौता किया है।
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दोनो दल राज्य में साथ मिलकर चुनाव लड़ेंगे। सीपीएम ने भी इसे मंजूरी दे दी है। धर्मनिरपेक्ष ताकतों के एक मंच पर आने की दृष्टि से यह ठीक है।
लेकिन इस राजनीतिक संगत की बड़ी कीमत किस पार्टी को चुकानी पड़ेगी, इसे समझने के लिए विशेषज्ञ की जरूरत नहीं है।
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कोई कितनी आलोचना करे, लेकिन यह हकीकत है कि बीते 6 साल में भाजपा ने चुनाव लड़ने का वो सिस्टम ईजाद कर लिया है, जहां अंतत: मूल मुद्दे ट्रैश में चले जाते हैं और चुनावी कर्सर ‘मैनेजमेंट’ पर आकर ही टिक जाता है।
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चुनाव में मुद्दे चलते भी हैं तो वो, जिन्हें भाजपा और उसकी सोशल मीडिया सेना चलाना चाहती है।
इसका अर्थ यह नहीं कि असल मुद्दों का अब कोई महत्व नहीं, लेकिन ये मुद्दे वोट में भी तब्दील हों, यह जरूरी नहीं है।
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यानी वोटर मुंडी किसी एक मुद्दे पर हिलाता है और ईवीएम में बटन किसी दूसरे के लिए दबा आता है।
अर्थात मुद्दों का मंत्रोच्चार करने भर से कोई चुनावी यज्ञ पूरा नहीं होता।
बिहार में तो बीजेपी ने एक नया प्रयोग भी सफलता से किया। वो है प्रत्यक्ष और परोक्ष चुनावी गठबंधन का।
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इस अदृश्य सूत्र के दोनो में से एक सिरे पर चिराग पासवान की लोजपा थी और दूसरे सिरे पर असदुद्दीन ओवैसी की एआईएमआईएम थी।
एक की तोप का निशाना जद यू थी तो दूसरे का निशाना राजद और कांग्रेस थी। दोनो ने अपना काम पूरी ताकत से किया।
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आशय ये कि जब तक चुनाव की बहुआयामी रणनीति, व्यक्तिवाद तथा परिवारवाद से मुक्ति, केवल फायर फाइटिंग तथा फौरी चुनावी रणनीति की मानसिकता से कांग्रेस बाहर नहीं निकलती, तब तक कुछ बदलने वाला नहीं है।
बल्कि कांग्रेस की कीमत पर दूसरी पार्टियां जरूर अपने घरौंदे पक्के करती रहेंगी।
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कल, 12 नवंबर को डॉ. सालिम अली का 125 वां जन्म दिवस था!
भावभीना पुण्यस्मरण!
💐🙏💐
भारत के सर्वश्रेष्ठ पक्षी-शास्त्री, पद्मभूषण, पद्मविभूषण, डॉ. सालिम अली से मेरी 1960 के दशक के अंत में हुई एकमात्र मुलाकात को याद कर के आँखें नम हैं। 1/9
बड़ा अजीब था वो मंज़र, जब साइकिल के युग में अपने शहर से एक अकेले बुजुर्ग को 5 हॉर्स पॉवर की Sunbeam motorcycle से अकेले गुज़रते देखना।
पीछे कैरियर पर लदा हुआ बड़ा सा बैग, चमड़े की जैकिट, आँख पर चश्मा, कंधे पर भारी भरकम कैमरा और 5 क्विंटल की बाइक और बामुश्किल 50 किलो का शरीर!
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उस पर कहर, मोटरसाइकिल का खराब हो जाना! बुज़ुर्गवार को अकेला परेशान देख मैंने अपनी साइकिल रोकी, और उस कार्टूननुमा शख्स से कौतूहलवश पूछ ही लिया - 'अंकल, कोई दिक्कत है क्या?'
ओपीनियन पोल, एग्जिट पोल, काउंटिंग ट्रेंड और एक्जेक्ट रिजल्ट। हर चुनाव की वो स्टेप्स हैं, जिनको नापना चुनाव विश्लेषक की जिम्मेदारी और शगल होता है। हकीकत में उन्हें उड़ती चिडि़या को देखकर बताना होता है कि वो किस डाल पर बैठेगी।
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अब चिडि़या है कि कई बार उस डाल पर जा बैठती है, जो विश्लेषकों की नापसंद होती है या कई दफा वो किसी भी डाल पर बैठने के बजाए फुर्र से उड़ जाती है या फिर आसमान में ही पर मारती रहती है।
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चुनाव विश्लेषक चिडि़या की हर अदा का विश्लेषण इस अंदाज में करते हैं कि मानो चिडि़या उन्हीं से पूछकर उड़ी थी। वैसे कई चुनाव विश्लेषक अपनी राय जताते हुए यह भी कहे जाते हैं कि वो जो कह रहे हैं, अंतिम परिणाम वैसा होगा, जरूरी नहीं है।
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‘ये मेरा आखिरी चुनाव है’- जैसा जुमला उस राजनीतिक बूटी की तरह है, जिसका इस्तेमाल सारे वशीकरण मंत्र फेल होने के बाद किया जाता है। निर्मोह के आवरण में सत्ता के मोह पाश की यह ऐसी हवस है, जो मिटते नहीं मिटती और बाहर से भीतर तक ‘मैं ही मैं’ के रूप में गूंजती रहती है।
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नेताओं का बस चले तो वो यमदूतों को भी यह कहकर लौटा दें कि यह मेरा ‘आखिरी चुनाव’ है। अगले चुनाव के वक्त आना। दूसरे शब्दों में कहें तो यह नेताओं के लिए अपने सियासी वजूद की वो जीवन रक्षक दवा है,जिसके कारगर होने की संभावना फिफ्टी- फिफ्टी रहती है।
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इसमें राजनीतिक वानप्रस्थ का छद्म वैराग्य भाव छिपा रहता है।
वैसे भी राजनीति में खाने और दिखाने के दांत अलग होते हैं।
एक दिलचस्प तथ्य यह भी है कि भले ही नीतीश इस विधानसभा चुनाव को अपना ‘आखिरी चुनाव’ बता रहे हों, लेकिन खुद उन्होंने 2004 के बाद से कोई चुनाव नहीं लड़ा है।
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जब आपको लगने लगे कि आपकी रीच कम हो गई है, आपके घर पर पत्थर नहीं फेंके जा रहे हैं, या आपके मन में सवाल उठने लगे कि देश में से अंडभक्तों की संख्या चिंताजनक रूप से कम हो गई है तो एक मजेदार प्रयोग करें। 😄
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एक संदेहास्पद विश्वसनीयता वाली पोस्ट करें। देखिए तुरंत किसी बिल से नकल कर भक्तों की फौज हरिश्चंद्र की औलादों के सुर में तत्काल आपकी पोस्ट पर फुफकारने लगेगी। 😂
आपको चैलेंज किया जाने लगेगा, आपकी माता बहनों को याद किया जाने लगेगा, ..
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और आपको हलाला की औलाद वगैरह विशेषणों से नवाजते हुए सत्य की दुहाई दी जाने लगेगी। 😆
समस्त दूध से धुला हुआ भक्त संसार आपको झूठा, कपटी, चमचा आदि सिद्ध करते हुए दुनिया का निकृष्टम व्यक्ति साबित कर देंगे। 😁
आपने दूरदर्शन देखना छोड़ा, प्राइवेट ऑपरेटरों ने 500 रुपये महीने निकाल लिए।
BSNL छोड़ा, प्राइवेट वाले दोगुना लेने की तैयारी में ताल ठोकने लगे हैं।
आप सरकारी रेडियो आकाशवाणी नही सुनेंगे तो प्राइवेट FM वाले आपको गाना और सिर्फ गाना सुनाकर खुद करोडों कमाएंगे।
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आपने दूरदर्शन देखना छोड़ा, प्राइवेट ऑपरेटरों ने 500 रुपये महीने निकाल लिए।
BSNL छोड़ा, प्राइवेट वाले दोगुना लेने की तैयारी में ताल ठोकने लगे हैं।
आप सरकारी रेडियो आकाशवाणी नही सुनेंगे तो प्राइवेट FM वाले आपको गाना और सिर्फ गाना सुनाकर खुद करोडों कमाएंगे।
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आप लोग रोडवेज बसों में सफर नहीं करेंगे और दो पैसे बचाने के चक्कर में निजी बसों में यात्रा करेंगे तो रोडवेज बंद हो जाएगी। फिर निजी बस वाले मनमाना किराया वसूलेंगे और रोज सरकार का करोड़ों रूपये का टैक्स रूपी राजस्व चोरी करेंगे। उनमें सुरक्षा की भी कोई गारंटी नहीं।
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क्या ‘धार्मिक कट्टरवाद बनाम धर्मनिरपेक्षतावाद’ की लड़ाई अब एक नए दौर ‘उदार धर्मनिरपेक्षतावाद ( सेक्युलरवाद) बनाम कट्टर धर्मनिरपेक्षतावाद’ में तब्दील होती जा रही है?
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यह सवाल इसलिए क्योंकि धर्मनिरपेक्ष समाज और सत्ता तंत्र का पालन कहे जाने वाले फ्रांस में इस को लेकर तगड़ी बहस छिड़ी है कि धार्मिक और विशेषकर इस्लामिक कट्टरवाद से मुकाबला किस तरह से किया जाए।
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इस सवाल का उत्तर वाकई जटिल है कि धार्मिकता की हदें कहां तक होनी चाहिए और धर्मनिरपेक्षता को किस हद सहिष्णुता का मास्क पहनना चाहिए। कुछ लोग तर्क दे सकते हैं कि धर्मनिरपेक्षता में धार्मिक सहिष्णुता स्वत: निहित है।