"Vedic facts against the myth that women can't/aren't allowed to read vedas" and
What vedas says about Yagnopavitam for Women.

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पूर्व पक्ष: जब भगवान की प्रत्येक वस्तु मनुष्य मात्र के लिए बनायीं गयी है तब वेद से, जिनमे मनुष्यमात्र का कल्याण निहित है से स्त्री एवं शूद्रों को क्यों वंचित रखा जाता है? ज्ञान पर ताला लगाना या उसे किसी की बपौती समझकर दुसरो को उसे प्राप्त करने से रोकना कहाँ तक उचित है?
इसी प्रकार की कल्याणमयी पद्धतियों पर और संस्कारों पर मनुष्य मात्र का समान अधिकार होना चाहिए। ऐसा न करना स्त्रियों के प्रति घोर अन्याय है, साथ ही उस वेद की आज्ञा का प्रत्यक्ष विरोध भी, जिसके द्वारा उसने मनुष्य मात्र के लिए ज्ञान के द्वार खोल रखे है।
यथेमां वाचं कल्याणीं मन्त्र एवं ऐतिहासिक साक्ष्य इस बात के प्रमाण है कि प्राचीन काल में प्रत्येक पुरुष को समान रूप से उपनयन वेदपाठ आदि का अधिकार था आदि आदि। वेद में इस तरह का कोई वचन नहीं है जिससे स्त्री शूद्रों के उपनयन या वेदाध्ययन का निषेध हो, यह केवल रूढ़िवादी विचार है।
उत्तर पक्ष: वेद से लेकर स्मृति सूत्र पुराणादि सभी ग्रंथों में कितने स्पष्ट शब्दों में स्त्री शूद्र के उपनयनादि का निषेध उपलब्ध होता है।
उपनयन तथा वेदाध्ययन इनका परस्पर आश्रयाश्रयी भाव सम्बन्ध है, यज्ञोपवीत या ब्रह्मसूत्र की परिणति यज्ञ और ब्रह्म-अर्थात् वेदाध्ययन में है। सीधे शब्दों में कहें तो यज्ञोपवीत इसलिए किया जाता है कि उपनीत व्यक्ति को यज्ञ और वेदाध्ययन का अधिकार प्राप्त हो सके।
यज्ञोपवीत और ब्रह्मसूत्र इन दोनों शब्दों से स्वयं ही यह अर्थ ध्वनित हो रहा है, इसी प्रकार यज्ञ और ब्रह्म-वेद की सार्थकता भी यज्ञोपवीत से ही है, बिना यज्ञोपवीत के न यज्ञ किया जा सकता है और न ही वेदपाठ।
निषेधक प्रमाण-
1: स्तुता मया वरदा वेदमाता प्रचोदयन्तां पावमानी द्विजानाम् (अथर्व० 19/71/1)

~द्विज(ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य) को पवित्र करनेवाली वेदमाता मेरे द्वारा स्तुत होकर मुझे (ज्ञान की) प्रेरणा करे।

पावमानी द्विजानाम् से अधिकार और उसका फल, दोनों का क्षेत्र बताया है।
2: सावित्री प्रणवं यजुर्लक्ष्मीं स्त्रीशूद्राय नेच्छन्ति सावित्रीं लक्ष्मीं यजुः प्रणवं यदि जानियात्स्त्रीशूद्रः स।
मृतोSधोगच्छति, तस्मात्सर्वथा नाचष्टे स आचार्यस्तेनैव स मृतोSधो गच्छति। (अथर्ववेदीय नृसिंह पू० ता०)
गायत्रीमंत्र, ऊंकार, यजुर्वेदोपलक्षित यज्ञादि का अधिकार...
3: स्त्रीणां शुद्रांधपंगुनां वधिराः पतिताश्च ये। क्लीबानां नैष काणानां वेदविद्याधिकारिता।।
(अस्थवामीय सूक्त आत्मानंद भाष्य)

स्त्री, शूद्र, अँधा, लंगड़ा, बहरा, पतित, नपुंसक और काणा इन्हे वेद का अधिकार नहीं।
4: आचार्य उपनयमानो ब्रह्मचारिणं वृणुते गर्भमन्तः। (अथर्व० 11/5 /3)

आचार्य ब्रह्मचारी को (ब्रह्मचारिणी को नहीं) उपनीत करके तीन रात्रि पर्यन्त अपने पास रखता है फिर जब वह ज्ञानी बनकर बाहर आता है तब देवता भी उसके दर्शन के लिए लालायित रहते है।
5: ब्रह्मचारी एति समिधासमिद्धः कार्ष्णं वसानो दीक्षितो दीर्घश्मश्रुः। (अथर्व ० 11/5 /6)

मृगचर्म, मेखलाधारी, दीर्घश्मश्रुवाला ब्रह्मचारी (क्या स्त्रियाँ मेखला, कौपीन धारण पूर्वक ब्रह्मचर्य धारण करती है और दाढ़ी मूंछ वाली होती है?) यज्ञ के लिए समिधा लेकर आता है।
6: वैवाहिकोविधिः स्त्रीणां संस्कारो वैदिकः स्मृतः। पतिसेवा गुरौ वासोगृहार्थोग्निपरिक्रिया।। ( मनु०1/67)

स्त्रियों का विवाह ही उनके यज्ञोपवीत के समान है। पतिसेवा, गुरुगृहवास स्थानीय है, और घर का काम काज भोजनादि अग्न्याधान है।
जो मनु का विरोध कर सकते हैं उनके लिए:

मनुर्वै यत्किंचिदवदत् तद् भेषजं भेषजताया:। (तै०संहिता०2/2/10/2)
-मनु ने जो कहा है(मनुस्मृति) ही भवरोग का औषध है।

हम कभी मनु के मार्ग (धर्म शास्त्र )से च्युत न हों
माँ नः पथः पित्र्यान्मानवादधि दूरं नैष्ट परावतः। (ऋग्वेद 8/30/2)
7: न वै देवा सर्वेणैव संवदन्ते ब्राह्मणेनैव राजन्येन वा वैश्येन वा ते हि यज्ञियाः।

देवता सभी से हवि ग्रहण नहीं करते, वे ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य की ही हवि ग्रहण करते है, क्योंकि इन्ही का यज्ञ में अधिकार है।
8: नैव कन्या न युर्वातर्ताल्पविद्यो न बालिशः।
होता स्यादग्निहोत्रात्स्य नार्तो नासंस्कृतस्तथा।। (मनु० 11/31 )
कन्या, युवती स्त्री, थोड़ा पढ़ा हुआ, मूर्ख, बीमार, संस्कारहीन को अग्निहोत्र होता नहीं बनाया जाता है।
9: तूष्णीमेताः क्रिया स्त्रीणां विवाहस्तु समन्त्रकः। (याज्ञ० शिक्षा 1/2/13)

विवाह को छोड़कर स्त्रियों के शेष सभी संस्कार मंत्रहीन अर्थात् बिना मन्त्र के ही होते है।
10: तस्या यावदुक्तमाशीर्ब्रह्मचर्यमतुल्यत्वात्। (मीमांसादर्शन 6/1/24)

स्त्री, पुरुष के तुल्य नहीं हो सकती क्योकि वह ब्रह्मचर्य आदि कई बातो में भिन्न है।
11: सामर्थ्यमपि न लौकिकं केवलमधिकार कारणं भवति, शास्त्रियेर्थे च सामर्थ्यस्य आपेक्षितत्वात्।शास्त्रीयस्य च सामर्थ्यस्य अध्ययन निराकरणेन कृतत्वात्।

केवल उसमे शक्ति है इतनेमात्र से किसी को अधिकार नहीं दिया जा सकता, क्योंकि शास्त्रीय विषय में तो शास्त्रीय शक्ति की ही आवश्यकता है...
...स्त्रियों की शास्त्रीय शक्ति तो यज्ञोपवीत के न होने से ही उनमे न रही फिर यज्ञ में अधिकार कैसे?

12: अयं स होता यो द्विजन्मा। (ऋ ० 1/149 /5)

जो द्विज माता-पिता से उत्पन्न है वही होता हो सकता है।
13: तस्मात् शुद्रो यज्ञेSनक्लृप्तः। (ऋ० 1/149 /5 )

इसलिए शूद्र का यज्ञ में अधिकार नहीं।

14: अपि तत्र भवान् बृषलं याजयति अहो अन्यायमेतत्। कथ नाम तत्र भवान् बृषलं याजयेत्। यच्च यत्र वा तत्र भवान् बृषलं याजयेद् गहिमहे अन्यायमेतत्। (दयानन्द लकारार्थ प्रक्रिया पृ०262, 263,  264)
क्या तुम शूद्रों से यज्ञ करवाते हो, यह तो बड़ा अन्याय है...

आप शूद्रों को यज्ञ कैसे करवाओगे? आप जहां कही शूद्रों को यज्ञ करवाओगे हम उसकी निंदा करेंगे।
15: स्त्री शूद्र बन्धूनां त्रयी न श्रुतिगोचरा।

स्त्री और पतित द्विजों ( ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ) को वेदत्रयी का अधिकार नहीं।

पुराण वेद का ही उपबृहण करते हैं इनमें भी वेदवेद्य परमात्मा ही प्रतिपाद्य विषय है इनका निरादर वेद(परमात्मा) का ही निरादर है।
इनकी उपेक्षा वेदोक्त परमात्मा की ही उपेक्षा है, और माहं ब्रह्म निराकुर्यां इस वेद वचन का विरोध भी, जो किसी भी रूप में ब्रह्म का निराकरण करता है उसका नरक में पतन होता है।
अब जरा यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः। ब्रह्मराजन्याभ्यां शुद्राय चार्याय स्वाय चारणाय च।। (यजु० २६/२ ) का भी ऑपरेशन करते हैं

(दयानन्द भाष्यानुसारी) हे मनुष्यो ! जैसे मै ईश्वर, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र तथा स्त्री, सेवकादि और उत्तम लक्षणयुक्त अंत्यजादि के लिए भी...
..संसार में प्रकट की हुई चार वेदरूपी वाणी का उपदेश करता हूँ वैसे आप लोग भी अच्छे प्रकार का उपदेश करे।

यह अर्थ का अनर्थ और कपोल कल्पना मात्र है।

पूरा मंत्र यह है

यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः।ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च स्वायचारणाय च।...
प्रियो देवानां दक्षिणायै दातुरिह भूयासम्। अयं मे कामः समृध्यताम्। उपमा अदौ नमतु।

यथेमां इत्यस्य लौगाक्षी ऋषि ईश्वरो देवता, इससे पता चलता है की इस मन्त्र का साक्षात्कार करने वाले ऋषि लौगाक्षी है और देवता ईश्वर।
देवता का क्या अर्थ होता है यह भी समझ लेना चाहिए। 'या उच्यते सा देवता' या 'यत्काम ऋषिर्यस्या देवतायामार्थपत्यमिच्छन् स्तुतिं प्रयुङ्क्ते तद् देवत स मंत्रो भवति'- इस निरुक्त अनुसार वेदमंत्र में प्रतिपाद्य विषय अथवा स्तोतत्य या सम्बोध्यमान देव का नाम ही देवता होगा...
जो प्रतिपादक अथवा संबोधयिता होगा वह ऋषि होगा। सीधे शब्दों में वर्णन करने वाला ऋषि और जिसका वर्णन हो वह देवता।
जब 'यथेमां' मन्त्र का देवता ईश्वर है तो वह प्रतिपाद्य होगा, प्रतिपादक नहीं, ऋषि से स्तोतत्य होगा स्वयं स्तोता नहीं , ऋषि द्वारा उक्त होगा वक्ता नहीं।
फिर मन्त्र के उत्तरार्ध में विद्यमान 'प्रियो देवानां भूयासम्' देवताओ का प्रिय बनूँ ,'अयं मे कामः समृध्यताम्' यह मेरी कामना पूरी हो, 'माम् अद् उपनमतु' वह फल मुझे प्राप्त हो यह सब कामनाएँ क्या आप्तकाम ईश्वर करता है?..
इस बात का स्पष्टीकरण इसके अगले मन्त्र से और भी अच्छी तरह से हो जाता है। 'यथेमां ' यह यजु० के 26 वे अध्याय का दूसरा मन्त्र है। इससे अगला मन्त्र है...
बृहस्पतये अतियदर्यो.... तदस्मासु द्रविण धेहि चित्रम'(यजु० 26 /3) इस मन्त्र का देवता दयानन्द ने ईश्वर को ही माना है। इसलिए दोनों मंत्रों में समान रूप से या तो ईश्वर वाच्य होना चाहिए या वक्ता, यह संभव नहीं की एक मन्त्र में ईश्वर स्वयं वक्ता हो और अगले में स्तुतत्य।
इस मन्त्र में ईश्वर से ऋषि प्रार्थना कर रहा है कि 'हे बृहस्पते!मुझे धन दे।' क्या कोई इसका यह अर्थ करने का सहस कर सकता है कि हे बृहस्पते !मै ईश्वर तुझसे धन की याचना करता हूँ -जैसा की पूर्वमंत्र में किया गया है।
उपनयन काल के सम्बन्ध में श्रुति की व्यवस्था है कि 'वसन्ते ब्राह्मणमुपनयीत, ग्रीष्मे राजन्यम्, शरदि वैश्यम्। भगवान ने गीता में "ऋतुनां कुसुमाकरः" कहकर वसंत को अपनी विभूति बताया है...
अतः ब्राह्मण बालक के उपनयन के लिए बसंत ऋतु का, निदाध के उत्तम सूर्य के सदृश प्रखर तेजस्वी बालक के लिए ग्रीष्म और शरद ऋतु की पोषक शक्ति के अनुरूप वैश्य पुत्र के लिए शरद ऋतू का प्रावधान तो शास्त्रों ने कर दिया है। किन्तु शूद्र के लिए उन्हें अनुकूल ऋतु ही नहीं मिली..
इसलिए उनके लिए कोई विधान नही किया गया आज उनका यदि यज्ञोपवीत किया जाय तो किस ऋतु में हो और क्यों? दयानन्द सरस्वती जिन्होंने स्त्री शुद्रो के उपवीत के लिए वकालत की थी उनके लिए किसी ऋतु का निर्धरण नहीं सके और संस्कार विधि में केवल ब्राह्मणादि तीन वर्ण का ही यज्ञोपवीत कहकर रह गए।😆
इसी प्रकार अष्टमेSब्दे ब्राह्मणं गर्भादेकादशे राजन्यम् गर्भाद् द्वादशे वैश्यम्' इस श्रुति द्वारा ब्राह्मणादि तीनो वर्णो की उपनयन अवस्था का विधान है इसमें भी शूद्र स्त्री की अवस्था की चर्चा नहीं, तब यदि उसका यज्ञोपवीत हो तो किस अवस्था में हो और क्यों? यह प्रश्न भी असमाधेय है।
... और किसके प्रति? कितना आश्चर्य है कि यह मामूली बात भी दयानन्द और उनके अनुयायियों के विशाल बुद्धि में न समा सकी।
श्रुति के आदेशानुसार उपवीत होनेवाले व्यक्ति का मुंडन कराकर गुरु के सम्मुख यज्ञ वेदी पर उपस्थित होना पड़ता है जहाँ आचार्य उसे ब्रह्मसूत्र पहनाता है। उसके पुराने वस्त्रो को उतारकर उसे कौपीन दंड मेखला आदि ब्रह्मचर्याश्रम के चिन्ह धारण करने को दिए जाते है...
तब आचार्य उसे अपने सान्निध्य में लेते है और शस्त्रादेशानुसार ब्रह्मचर्य समाप्ति पर्यन्त उसे गुरुगृह में रहकर विद्याध्ययन करना पड़ता है। दयानन्द ने भी इसका समर्थन हुए कहा है कि जिस दिन उपनयन करना हो उस दिन प्रातः काल बालक को स्नानादि कराके आसन पर पूर्वाभिमुख बैठाये....
यहाँ प्रश्न उठता है कि क्या श्रुति प्रतिपादित एवं दयानन्द से समर्थित यह क्षौर मुंडनादि कन्याओं का भी कराया जाये, वे भी कौपीन, मेखला, दण्डधारण कर गुरुगृह में रहेंगी या उन्हें इस नियम से मुक्त कर दिया जायेगा। यदि प्रथम पक्ष पक्ष हो तो वह कहाँ तक संभव है?...
यदि दूसरा पक्ष मानते हो तो उसमे शास्त्र प्रमाण क्या है? कदाचित् कहा जा सकता है कि इन अंगभूत कर्मो का अनुष्ठान किये बिना भी यज्ञोपवीत पहिनाया जा सकता है
किन्तु किसी प्रमाणभूत शास्त्रीय वचन के आभाव में ऐसी व्यवस्था जहाँ कपोलकल्पित होने के नाते अमान्य है।
साथ ही वहां कर्मवैगुण्य हो सकता है ऐसी दशा में किया हुआ कर्म उपनयन नहीं रहा वह तो उपनयन का नाटक मात्र ही हुआ और विधिहीन होने के कारण तामस धर्म ही कहा जायेगा।
लौकिक दृष्टि से देखने पर भी स्त्रियों के उपनयन और वेदाध्ययन का अनौचित्य स्पष्ट प्रतीत होता है।
क्योकि स्त्री का स्त्रीत्व उन्हें प्रायः अपवित्र दशा में रहने को बाध्य करता है जिससे यज्ञोपवीत के नियमो का पालन उनके लिए असंभव है। प्रतिमास रजस्वला होना, प्रसवकाल में, तथा बालको के मलमूत्रादि में स्त्री का समय व्यतीत होता है...
स्त्रियां स्तन्यपान कराते समय वह मल मूत्र दिग्धात नवजात शिशु उस डोरी के साथ कौतुहल से कल्लोल करेगा.. तब ' यज्ञोपवीतं परमं पवीत्रं ' कहां रहा?
प्रकति ने स्त्रीको अबला बनाया है, उसका कारण यह है कि पिता के थोड़े शुक्र तथा माता के अधिक रज के कारण कन्या का शरीर बनता है...
शुक्र सप्तम धातु है और रज तृतीय, पहला सौम्य तथा दूसरा आग्नेय है, अतः शुक्र की अपेक्षा रज सर्वदा निर्बल होता है। शुक्र से अस्थि आदि कठोर तथा शरीर को सबल बनाने वाली वस्तुएँ बनती है कन्या के शरीर में अस्थि आदि कठोर वस्तुओं की गौणता होती है और रजोमूलक कोमल वस्तुओ की अधिकता।
अतः स्त्री प्रकृति से ही पुरुष की अपेक्षा निर्बल है उसका शरीर अत्यंत परिश्रमसाध्य वेदाध्ययन और 25 वर्ष पर्यन्त कठिन ब्रह्मचर्य के सर्वथा अनुपयुक्त है। ब्रह्मचर्य का अर्थ है शुक्र-निरोध कन्याओं में शुक्र के स्थान पर रज होता है किन्तु उसका निरोध स्त्री के वश की बात नहीं है...
वह तो 12 वर्ष के बाद प्रतिमास प्राकृतिक नियमानुसार अवश्य क्षारित होता है जब वह मुख्यार्थ में ब्रह्मचारी भी नहीं हुई, फिर ऐसी दशा में ब्रह्चर्य श्रममूलक उपनयन तथा वेद में भी उसका अधिकार कदापि नहीं हो सकता।
यदि हठात् स्त्री को वेदाध्ययन में प्रवृत्त किया जाय तो उस परिश्रम से उसके शरीर के मज्जातंतु निर्बल पड़ जायेंगे, जिसका परिणाम उसके भावी संतान को भुगतना पड़ सकता है।
स्मृतिकारों ने जैसे अंतिम वर्ण के अधिकार में सेवा का काम सौपा है।
तथा उसे वेदाध्ययन और यज्ञोपवीत रूप कठोर व्रत से मुक्त कर दिया है वैसे ही स्त्री को भी पति, परिवार एवं संतति के सेवा का भार सौपकर इस कर्तव्यपालन से ही उसे यज्ञोपवीत तथा वेदाध्ययनजन्य फलप्राप्ति का अधिकार दे दिया है इसी सेवा से वह परलोक सुधार के साथ सामाजिक सुधार भी कर सकती है।
उदात्त, अनुदात्त, स्वरित आदि भेद से मंत्रो का ठीक उच्चारण शरीर तथा कंठ सम्पूर्णता के बिना संभव नहीं। वेदाध्ययनाधिकार में इस तथ्य का पूर्ण ध्यान रखा गया है 'स्त्रीणां शुद्रांधपंगूनां' वचनानुसार जिनमे यह सम्पूर्णता जरा भी व्याहत दिखलाई पड़ी उन्हें वेदाधिकार से वंचित रखा गया है।
श्रुति में उच्चारण का पूर्ण ध्यान रखना आवश्यक है अन्यथा 'स वाग्वज्रो यजमानं हिनस्ति' इस महाभाष्योक्ति के अनुसार उसका जरा सा भी अशुद्ध उच्चारण लाभप्रद होने के बजाय प्रत्यवाय (पाप) जनक बन जाता है।
असंख्य पीढ़ियों से वेदोच्चारण में अभ्यस्त द्विज बालकों के कंठ में जो सम्पूर्णता विद्यमान है वह सम्पूर्णता शूद्र बालको में नहीं। हिंदी पढ़ने वाले अंग्रेज हिंदी का अभ्यास करने पर भी बोलते हो के स्थान पर 'बोलटे हो' उच्चारण हो जाता है यही बात अन्य भाषाओं के विषय में भी है।
उच्चौ निषादगांधारौ नीचावृषभ धैवन्तौ।
स्वरित प्रभवाः शेषाः षड्जमध्यमपंचमाः।।

उदात्त में निषाद, गांधार स्वर आते है अनुदात्त में ऋषभ, धैवत और षड्ज मध्यम और पंचम ये तीन स्वर स्वरित के अन्तर्गत होते है। ऐसी दशा में कोकिलकंठी नारियो से ऋषभ, धैवत स्वर कैसे निकलेंगे?
असंस्कृत (बिना जनेऊ) शूद्र इनका कैसे प्रयोग कर सकता है?अतः दूरदर्शी महर्षियों ने उनके लिए सीधे वैदिकी व्यवस्था न कर पौराणिकी व्यवस्था की है। यह उनकी महती कृपा ही है जैसे माँ अपने दुधमुहे बच्चे के मुँह से इक्षुदंड छीनकर मख्खन दे देती है यह द्वेष नही प्रेम का ही परिचायक है।
तं पत्नी भिरनुगच्छेम देवा पुत्रैर्भ्राम्त्रैरुत वा हिरण्यैः।
इस मन्त्र में पत्नी सहित यज्ञ में जाना कहा गया है जो सर्वथा ही मान्य है। किन्तु इसमें वेदाध्ययन का तो कोई प्रसंग ही नहीं है। मन्त्र में तो सुवर्ण आदि शब्द भी है क्या वे भी वेद पढ़ते है उनको भी अधिकारी मान लिया जाय?
अयज्ञो वा एष योSपत्नीकः। का समाधान भी पूर्ववत् है और सनातन धर्म के अनुसार पत्नीशून्य यज्ञ अयज्ञ ही है तभी तो श्री रामचंद्र जी ने स्वर्णमयी सीताजी की प्रतिमा बनाकर यज्ञ को पूरा किया था।

प्रावृतां यज्ञोपवीतम् (गोभिलसूत्र 2/1/1) कहा जाता है कि गोभिल के इस सूत्र में स्त्री को...
यज्ञोपवीत वाली बताया गया है किन्तु इसका वास्तविक अर्थ है वस्त्र को यज्ञोपवीत की भाति पहिनी हुई। वर ने कन्या को एक वस्त्र दिया जिसे उसे यज्ञोपवीत की तरह डाल लेना चाहिए।
ॐ या अकृन्तन अवयत्' इस मन्त्र को बोलकर वधु को वर उपवस्त्र देवे, वह उस वस्त्र को यज्ञोपवितवत् धारण करे।
स होत्रं स्म पुरा नारी समनं वा वगच्छति। कहा जाता है इस मन्त्र मे स्त्रियों को पुरुषों के समान यज्ञ में जाने का विधान है परन्तु वास्तव में यह मन्त्र इन्द्राणी के विषय में है। नारी का अर्थ यहाँ इन्द्राणी से ही है। यह बात इसके उत्तरार्द्ध को पढ़ने से स्पष्ट हो जाती है।
यथा वेधा ऋतस्य वीरिणी इंद्रपत्नी महीयते विश्वस्माद् इन्द्रः उत्तरः स्पष्ट ही इस मन्त्र में इंद्र और उसकी पत्नी का वर्णन है।

अधः पश्यस्व मोपरि संतरां पादकौ हर। आनेक शप्लकौ दृशन् स्त्री हि ब्रह्मा बभूविथ।। (ऋ० 8। 33।19)
समाज सुधारक अर्थ - जो स्त्रियाँ विद्याभ्यास करके उद्धृत नहीं होती जो अपने घुटनो को ढककर चलती है और अपना पैर ऊंचा नीचा देखकर रखती है..वे योग्य आचरण करनेवाली ब्रह्मा तक बन सकती है। यह अर्थ कितना संगत है? केवल कपोलकल्पित अर्थ है यह।
इसका वास्तविक अर्थ है- तू नीचे देख, ऊपर न देख , पैरो को ठीक रख, तेरे अंग न दिखे, आत्मा ही तुझमे स्त्रीरूप में प्रकट हुआ है।
यह स्त्री को शिक्षा दी जा रही है न कि उसे ब्रह्मा बनाया जा रहा है।
भीमा जाया ब्राह्मणस्थोपनीता ( ऋ०10/109/4)। यहाँ जाया और उपनीता इन दो शब्दों को देखकर..
लोग भ्रम में पड़ जाते है, वे ये नहीं सोचते है कि यहाँ जाया शब्द के साथ भीमा अर्थात् भयंकर विशेषण भी तो है उसकी क्या संगत होगी? यज्ञोपवीत धारण करके ब्राह्मण की पत्नी भयंकर बन जाती है' इस अर्थ से तो उपवीत बड़ी विचित्र वस्तु ठहरी जिसे धारण करते ही सौम्या पत्नी भी भयंकर बन गयी।
यज्ञोपवीत मार्गेण छिन्ना तेन तपस्विनी। सा पृथिव्यां पृथुश्रोणि पपात प्रियदर्शिनी।। (वा० रा० 6/81)
वादी का कथन है 'उस समय माया निर्मित सीता को यज्ञोपवीत के मार्ग से काट दिया गया' किन्तु वास्तव में सीताजी के गले में यज्ञोपवीत की कोई चर्चा नहीं है।
इसका तात्पर्य यह है कि मायावी रावण ने देवी सीता के शरीर को बाये कंधे से लेकर दाहिनी कुक्षि (कोख) अर्थात् जैसे यज्ञोपवीत पहना जाता है उस ढंग से अपने खड्ग से दो टुकड़े कर दिया। यहाँ सीताजी के सूत्रमय यज्ञोपवीत आदि का कोई प्रसंग ही नहीं है।
संध्याकाल मना श्यामा ध्रुवमेष्यति जानकी। नदी चेमां शुभजलां सन्ध्यार्थे वरवर्णिनी।।( वा० रा० सुन्दरकाण्ड)
इस श्लोक की व्याख्या करते हुए सभी टीकाकारों ने सीता को संध्याकाल के समय किये जानेवाले कृत्य-स्नान-भगवद ध्यान आदि के लिए ही उस सुंदर नदी पर आने का अर्थ किया है।
सीता अन्वेषणरत श्री हनुमानजी सुन्दर जलवाली नदी को देखकर विचार करते है कि यदि देवी सीता लंका में है तो वे अवश्य स्नानादि के लिए इस सरिता पर आएगी।
संध्या शब्द यौगिक है जिसका अर्थ है भगवान का सम्यक प्रकार से ध्यान करने की कोई भी पद्धति। अतः इससे सीताजी का वेदाध्ययन नहीं सिद्ध होता।
अग्निं जुहोतिस्म तदा मन्त्र वत्कृतमंगला। (वा० रा०) इस श्लोक में 'जुहोतिस्म' - हवन करती थी, इस पद को देखकर लोगो को भ्रम हो जाता है आदिकवि महर्षि वाल्मीकि ने तो मूल में ही इस भ्रम का निराकरण कर दिया है जिसका ज्ञान पूर्वापर प्रसंग को देखकर भली भाति हो जाता है।
इस श्लोक में कहा गया है कि जब श्रीरामचंद्र जी माता के पास पहुंचे तो उन्हें (कौसल्या) को हवन करवाती देखा जैसा की अगले श्लोक के 'हावयन्तीं हुताशनम्' से महर्षि ने स्पष्ट कर दिया है। प्रकृत में भी अंतर्भावित 'हु' धातु का प्रयोग है। तब भ्रम का कोई कारण नहीं रह जाता।
कुछ लोग गार्गी, मैत्रेयी आदि ब्रह्मवादिनी एवं वेदों का साक्षात्कार करने वाली ऋषिकाओं के उदहारण देकर अपने इस पक्ष को पुष्ट करना चाहते है किन्तु इस प्रकार के अपवादों से सामान्य नियम का सर्वथा विनाश नहीं हो सकता। अपनी पूर्वजन्मोपार्जित अलौकिक प्रतिभा एवं मेधा के कारण यदि...
इन विदुषिकाओं के हृदय में वेद का साक्षात्कार हो गया तो एतावता क्या उनका गुरु संप्रदाय द्वारा विधिवत वेदपाठ स्वीकार कर लिया जाय। ये किस पाठशाला में किस गुरु के आश्रम में पढ़ी थी है इसका प्रमाण? जहां तक मन्त्र साक्षात्कार का प्रश्न है तो अनेको ऋचाओं का साक्षात्कार...
कबूतर, कुतिया को भी हुए वेद में कपोत सूक्त, सरमा सूक्त आदि ऐसे ही सूक्त है।
इनसे कबूतरों, कुतियो का वेदाध्ययन में अधिकार मान लेना महाभूल है यह तो पूर्वजन्मार्जित अलौकिक मेधा के परिस्फुरण का ही प्रभाव था की उनके ह्रदय में भी मंत्रो का साक्षात्कार हो सका।

🙏🙏
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*8.36
..स्त्री-शूद्र के लिए अभीष्ट नहीं, यदि वे हठपूर्वक इनको ग्रहण तो मरने पे नरक को प्राप्त होते है। यदि आचार्य उन्हें इनका उपदेश दे तो वह भी नरक को प्राप्त हो।

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