.@MukulKMishra :
गांधी की हत्या उनके वैचारिक विरोधी नाथूराम गोडसे ने की, वहीं गांधीवाद की कसमें खाने वालों ने अगली सुबह तक गांधीवाद की भी हत्या कर दी. hindi.theprint.in/opinion/nathur…
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गोडसे "हिन्दू राष्ट्"र नाम के एक मराठी पत्र के संपादक थे. वह हिन्दू महासभा के सामान्य सदस्य भी थे. युवावस्था में गोडसे ने कुछ समय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखाओं में भी बिताए थे. वैचारिक मतभेदों के कारण वह संघ से अलग हो गए थे.
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गोडसे के जुड़े होने के कारण 30 जनवरी की रात को ही पुणे और मुम्बई में महासभा, संघ और अन्य हिंदूवादी संगठन से जुड़े लोगों और कार्यालयों पर हमले शुरू हो गए.
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डॉ कोएनराड एल्स्ट की पुस्तक "Why I Killed the Mahatma" के अनुसार 31 जनवरी की रात तक मुम्बई में 15 और पुणे में 50 से अधिक हिन्दू महासभा कार्यकर्ता, संघ के स्वयंसेवक और सामान्य नागरिक मारे दिए गए और बेहिसाब संपत्ति स्वाहा हो गई.
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1 फरवरी को दंगे और अधिक भड़के; अब यह पूरी तरह जातिवादी और ब्राह्मण-विरोधी रंग ले चुका था. सतारा, कोल्हापुर और बेलगाम जैसे ज़िलों में चितपावन ब्राह्मणों की संपत्ति, फैक्ट्री, दुकानें इत्यादि जला दी गई. औरतों के बलात्कार हुए. सबसे अधिक हिंसा सांगली के पटवर्धन रियासत में हुई.
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मुंबई में स्वातन्त्र्यवीर सावरकर के घर पर भी हमला हुआ. सावरकर तो बच गए लेकिन उनके छोटे भाई डॉ नारायण राव सावरकर घायल हो गए और इसी घाव के कारण सन 1949 में उनकी मृत्यु हो गई. नारायण राव एक स्वतन्त्रता सेनानी और एक समाज सुधारक थे लेकिन समाज से बदले में उन्हें पत्थर ही मिल सका.
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उस समय दंगों पर प्रेस की रिपोर्टिंग पर बहुत सारी बंदिशें थीं. लेकिन एक अनुमान के अनुसार मरने वालों की संख्या हज़ार से कम न थी. ये सब अहिंसा को अपने जीवन का मूलमंत्र मानने वाले गांधी के नाम पर हुआ.
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कोएनराड एल्स्ट इन दंगों की तुलना सिख विरोधी दंगों से करते हैं. वे लिखते हैं कि जहां सिख विरोधी दंगो की सच्चाई देश वाकिफ है, वहीं महाराष्ट्र के इन दंगों की न कभी कोई चर्चा हुई और न किसी को कोई सजा मिली.
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ऐसा प्रतीत होता है कि गांधी-हत्या को कांग्रेस के एक धड़े ने एक राजनीतिक मौके के तौर पर देखा. गांधी के हस्तक्षेप से नेहरू प्रधानमंत्री तो बन गए थे लेकिन पार्टी में उनकी नही चलती थी. कांग्रेस के हिंदूवादी धड़े के नेता सरदार पटेल थे. पटेल की कांग्रेस संगठन में ज़बरदस्त पकड़ थी.
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लेकिन पटेल के गृहमंत्री रहते हुए (एक धुर हिंदूवादी द्वारा) गांधी की हत्या हुई थी. नेहरू के करीबी नेताओं ने खुलेआम सरदार पटेल पर गांधी-रक्षा में लापरवाही बरतने का आरोप लगाया. कुछ लोगों ने दबी जुबान में सरदार को इस षड्यंत्र का हिस्सा तक बता दिया.
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कांग्रेस के दक्षिणपंथियों को पछाड़ने के लिए नेहरू ने गांधी-हत्या को हथियार के रूप में इस्तेमाल किया. परिणाम 1951 में दिखा जब दक्षिणपंथी माने जाने वाले पुरुषोत्तम दास टण्डन को हटाकर नेहरू स्वयं ही कांग्रेस अध्यक्ष बन बैठे. यही कांग्रेस के अंदर नेहरू युग की औपचारिक शुरुआत थी.
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नेहरू ने बाहर के प्रतिद्वंदियों को निबटाने के लिए भी इस्तेमाल किया. मनोहर मलगावकर की The Men Who Killed Gandhi में गोडसे के वकील एलबी भोपतकर बताते हैं कि विधि मंत्री डॉ अंबेडकर ने बताया था कि सबूत न होने के बावजूद नेहरू हर कीमत पर सावरकर को इस हत्याकांड से जोड़ना चाहते थे.
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गांधी हत्याकांड में सावरकर गिरफ्तार हो जाते तो उनकी राजनीतिक चुनौती हमेशा के लिए समाप्त हो जाती. पुलिस सावरकर के विरुद्ध किसी भी तरह का प्रमाण पेश करने में नाकाम रही लेकिन आज 70 वर्ष बाद भी नेहरूवियन सेकुलरिज्म के पैरोकार सावरकर को गांधी हत्या में सह-अभियुक्त बताते नही थकते.
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न्यायालय में दिए बयान में गोडसे ने कहा कि 1932 में आरएसएस संस्थापक डॉ हेडगेवार के प्रभाव में वह संघ से जुड़ा था लेकिन जब 1937 में सावरकर हिन्दू महासभा के अध्यक्ष बने तब गोडसे ने संघ से नाता तोड़ कर हिन्दू महासभा के साथ जाने का निश्चय किया.
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गोडसे मानते थे कि हिंदुओं के अधिकारों की रक्षा राजनीतिक कार्यक्रमों के माध्यम से ही हो सकती है.
हिन्दू महासभा ने भी गोडसे को महासभा के कार्यकर्ता के रूप में स्वीकार किया. लेकिन इसके बाद भी तत्कालीन सरकार ने आरएसएस को गांधी हत्या के षड्यंत्र का दोषी माना.
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यही नहीं महासभा पर तो प्रतिबन्ध नही लगा लेकिन आरएसएस, जिसके साथ गोडसे का पिछले 11 वर्षों से कोई सम्पर्क नही था, पर प्रतिबंध लगा दिया गया.
प्रश्न उठता है कि संघ पर प्रतिबंध क्यों लगा और हिन्दू महासभा पर क्यों नही? इसका कोई सीधा उत्तर तो नही है लेकिन कुछ इस तरह समझा जा सकता है.
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काला पानी की सजा ने सावरकर के शरीर को कमजोर कर दिया था. इसलिए सावरकर ने महासभा की कमान डॉ मुखर्जी को सौंप दी थी. डॉ मुखर्जी गांधी और कांग्रेस के प्रति नरम माने जाते थे. पटेल के अनुरोध पर उन्होंने 1946 के चुनाव में हिन्दू महासभा के गिने चुने उम्मीदवार ही उतारे थे.
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लेकिन युवा और समर्पित प्रचारकों से लैस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तेजी से पूरे भारत मे पांव पसार रही थी. विभाजन के बाद पश्चिमी पाकिस्तान से भारत पहुंचे शरणार्थियों की सेवा और सुरक्षा में अपना योगदान देकर संघ तेजी से लोकप्रिय हो रहा था.
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ऐसे में पतन की ओर अग्रसर हिन्दू महासभा से ज्यादा बड़ा खतरा उत्थान की ओर अग्रसर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ था. ऐसे में संघ को ही प्रतिबंधित होना था. लेकिन तत्कालीन सत्ता प्रतिष्ठानों का अभी एक्सपोज़ होना बाकी था.
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अगस्त 1948 में गांधी हत्या के षड्यंत्रों से संघ के सदस्य बाइज़्ज़त बरी हो गए. इसके बाद संघ प्रमुख गोलवलकर ने नेहरू को पत्र लिखकर संघ से प्रतिबन्ध हटाने की मांग की. लेकिन सरकार ने पहले तो आनाकानी की और फिर कई अपमानजनक शर्तें सामने रख दी.
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संघ प्रमुख का कहना था कि जब प्रतिबन्ध गांधी हत्या के षड्यंत्र में शामिल होने के आरोप पर लगा है और इसको न्यायालय ने खारिज कर दिया है तो प्रतिबन्ध स्वतः ही हट जाना चाहिए. लेकिन संघ को सत्याग्रहों से गुजरना पड़ा और अंततः कुछ शर्तों के साथ संघ से प्रतिबन्ध हटाया जा सका.
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गांधी निस्संदेह अपने समय की सबसे बड़ी राजनीतिक हस्ती थे. इसलिए उनकी हत्या का भी भारतीय राजनीति पर बहुत गम्भीर असर पड़ा. भारत का विभाजन इतनी बड़ी त्रासदी थी कि उसने देश के हिन्दू मानस को झकझोर कर रख दिया था. लोगों में कांग्रेस के लिए ही नही, गांधी के लिए भी गुस्सा था.
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लेकिन (एक हिंदूवादी द्वारा) उनकी हत्या ने उनके राजनीतिक जीवन का निरपेक्ष आकलन लगभग असम्भव कर दिया. संघ प्रमुख गोलवलकर को जब गांधी-हत्या और संघ को उसमें घसीटे जाने की जानकारी मिली तब उन्होंने मौजूद कार्यकर्ताओं से कहा कि संघ 30 वर्ष पीछे चला गया.
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संघ का 22 वर्षों का संघर्ष, भविष्य सब दांव पर लग गया. महासभा समाप्त हो गई और कांग्रेस के हिंदूवादी नेता नेपथ्य में धकेल दिए गए. इस सहस्त्राब्दी की सबसे बड़ी त्रासदी - भारत विभाजन - पर ईमानदार बहस नही हो सकी और इस विभाजन के दोषी भी इतिहास की स्क्रूटिनी से आराम से बच निकले.
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.@dhume :
India’s privatization program represents a sweeping rollback of state control.. (n) a sharp repudiation of India’s first prime minister, Nehru, n his daughter, Indira Gandhi. wsj.com/articles/new-d…
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In 1978 an opposition govt even more suspicious of private ent.. completed Tata’s humiliation by dismissing him...
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2 factually incorrect claims by @dhume : it had nothing to do with anti-pvt ent..pers thing btwn JRD n Desai who BTW resigned f/govt in oppo to bank takeover.
n, @dhume Sir, 3 out of 5 main constituents of that govt - Swa/BKD, BJS, Old Cong - had opposed all those crazy econ policies/actions of IG - at great political costs, a profile in courage (BTW, among those on IG's sides then were PVN n MMS).
India won in 1971 tho hardly at domestic peace; war btwn IG-Commie Camp n non-commie Oppo! It was not along H-M lines (tho former did use "communal" dog-whistle) but other lines. WB was anything but peaceful. @ShekharGupta s/know all that but then HMVs see what they like to see!
Point is: yes; a society needs harmony but that s/stand on its own - not as a vehicle to push particular political agendas masq as independent commentary.
And, why is "communal polarization" bad but others - eg, rich vs poor, caste, regl, etc. - is kosher.
And, IMHO, @ShekharGupta n his ConPrint, sorry The @ThePrintIndia s/b last to give such gyan; just check out how many articles / stories with caste as focus they hv carried n caste schism as agenda / goal.
Virendra Parekh:
India has dubious distinction of having its history written by people who were in varying degrees hostile or alien to it in some way or other. Indeed, it faces a situation in which distorted version has become standard one. vijayvaani.com/ArticleDisplay…
.@hsvyas :
रावण जो अपने को कालजयी मानता था, जो झूठ का प्रतापी राजा था। जो था शिवभक्त लेकिन अहंकार, अन्याय, अमानुषता, लोभ, मद, मत्सर अर्थात ईर्ष्या, नीचता में अमानवीय, दुखदायी व्यवहार का एक प्रतिमान राक्षस!
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हमारी कभी मुक्ति नहीं है रावण से! ज्ञात इतिहास की सहस्त्राब्दियों पर गौर करें, गुलामी के हजार साल का अनुभव याद करें या 75 सालों के गांधी-मोदी के रामराज्य की क्षणिकाओं पर सोचें और विचारें तो क्या लगेगा नहीं कि हमारी विजयादशमी में राम नहीं, बल्कि रावण निरंतर भीमकाय होते गए हैं?
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हमें कुछ ऐसा श्राप है, जो हम और हमारा सनातनी जीवन उत्तरोत्तर रावणी होता जाना है। भले असुरों के गुलाम हो कर जीयें या स्वंय का राज, सबमें जीना असुरी जीवनचर्या की नियति से है। नियति में न सत्य है, न मानवीय गरिमा-मर्यादाै, न बुद्धि है, न आधुनिकता-सदाचार, न दैवीगुण के सत्कर्म हैं।
petty minds do petty actions, sir!
~ @DrVaidik :
सावरकर ऐसे मुक्त विचारक-बुद्धिजीवी थे कि उनके सामने विवेकानंद, गांधी, आंबेडकर भी कहीं-कहीं फीके पड़ जाते हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी उनके सभी विचारों से सहमत नहीं हो सकता। nayaindia.com/main-stories/w…
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सावरकर द्वारा ब्रिटिश सरकार से माफी के मुद्दे पर मैंने ‘राष्ट्रीय संग्रहालय’ के गोपनीय दस्तावेज खंगाले थे और अंग्रेजी में लेख भी लिखे थे। उन दस्तावेजों से पता चलता है कि सावरकर और उनके चार साथियों ने ब्रिटिश वायसराय को अपनी रिहाई के लिए जो पत्र भेजा था,
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उस पर गवर्नर जनरल के विशेष अफसर रेजिनाल्ड क्रेडोक ने लिखा था कि सावरकर झूठा अफसोस जाहिर कर रहा है। वह जेल से छूटकर यूरोप के आतंकवादियों से जाकर हाथ मिलाएगा और सरकार को उलटाने की कोशिश करेगा। सावरकर की इस सच्चाई को छिपाकर उन्हें बदनाम करने की कोशिश कई बार की गई।