अर्थात् तीन बार आचमन करने से तीनों वेद यानी-ऋग्वेद,यजुर्वेद,सामवेद प्रसन्न होकर सभी मनोकामनाएं पूर्ण करते हैं।
मनु महाराज के मतानुसार
त्रिराचामेदपः पूर्वम्।
-मनुस्मृति2/60
अर्थात् सबसे पहले तीन बार आचमन करना चाहिए। इससे कंठशोषण दूर होकर, कफ़ निवृत्ति के कारण श्वसन क्रिया में व मंत्रोच्चारण में शुद्धता आती है। इसीलिए प्रत्येक धार्मिक कृत्य के शुरू में और संध्योपासन के मध्य बीच-बीच में अनेक बार तीन की संख्या में आचमन का विधान बनाया गया है।
इसके अलावा यह भी माना जाता है कि इससे कायिक, मानसिक और वाचिक तीनों प्रकार के पापों की निवृत्ति होकर न दिखने वाले फल की प्राप्ति होती है।
अंगूठे के मूल में ब्रह्मतीर्थ, कनिष्ठा के मूल प्रजापत्यतीर्थ, अंगुलियों के अग्रभाग में देवतीर्थ, तर्जनी और अंगूठे के बीच पितृतीर्थ और
हाथ के मध्य भाग में सौम्यतीर्थ होता है, जो देवकर्म में प्रशस्त माना गया है। आचमन हमेशा ब्रह्मतीर्थ से करना चाहिए। आचमन करने से पहले अंगुलियां मिलाकर एकाग्रचित्त यानी एकसाथ करके पवित्र जल से बिना शब्द किए 3 बार आचमन करने से महान फल मिलता है। आचमन हमेशा 3 बार करना चाहिए।
आचमन के मंत्र
जल लेकर तीन बार निम्न मंत्र का उच्चारण करते हैं:- हुए जल ग्रहण करें-
ॐ केशवाय नम:
ॐ नाराणाय नम:
ॐ माधवाय नम:
ॐ ह्रषीकेशाय नम:, बोलकर ब्रह्मतीर्थ (अंगुष्ठ का मूल भाग) से दो बार होंठ पोंछते हुए हस्त प्रक्षालन करें (हाथ धो लें)।
उपरोक्त विधि ना कर सकने की स्थिति में केवल दाहिने कान के स्पर्श मात्र से ही आचमन की विधि की पूर्ण मानी जाती है।
आचमन करने के बारे में मनुस्मृति में भी कहा गया है कि ब्रह्मतीर्थ यानी अंगूठे के मूल के नीचे से इसे करें अथवा प्राजापत्य तीर्थ यानी कनिष्ठ उंगली के नीचे से या...
..देवतीर्थ यानी उंगली के अग्रभाग से करें,लेकिन पितृतीर्थ यानी अंगूठा व तर्जनी के मध्य से आचमन न करें, क्योंकि इससे पितरों को तर्पण किया जाता है,इसलिए यह वर्जित है।आचमन करने की एक विधि बोधायन में भी बताई है,जिसके अनुसार हाथ को गाय के कान की तरह आकृति देकर 3 बार जल पीने को कहा है।
पहले आचमन से ऋग्वेद और द्वितीय से यजुर्वेद और तृतीय से सामवेद की तृप्ति होती है।
आचमन करके जलयुक्त दाहिने अंगूठे से मुंह का स्पर्श करने से अथर्ववेद की तृप्ति होती है। आचमन करने के बाद मस्तक को अभिषेक करने से भगवान शंकर प्रसन्न होते हैं।
दोनों आंखों के स्पर्श से सूर्य, नासिका के स्पर्श से वायु और कानों के स्पर्श से सभी ग्रंथियां तृप्त होती हैं। माना जाता है कि ऐसे आचमन करने से पूजा का दोगुना फल मिलता है l
Credit: Vedic Wisdom UK
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The Leaning Tower of Pisa leans at 4 degrees, which is less in comparison to the 9 degree tilt of the Ratneshwar Mahadev Temple. Yet, this Leaning Temple of Varanasi has been lost in anonymity and not known in the world as widely as Leaning Tower of Pisa.
Forget the world, it's not even known in India. This is called the Peak of Hypocrisy.
Ratneshwar temple near Manikarnika Ghat, is also called Kashi Karvat. It means a temple in Kashi, which leans ( karvat) to one side.
The story behind its tilted nature is quite interesting.
There is a legend surrounding the origin of this temple, which states that it was built by a certain servant of Raja Man Singh for his mother, named Ratna Bai. Once the temple was built, the man proudly declared that he had paid the debt to his mother.
🌺Do you know the great King of Bahraich named Suheldev?
Here's his story.🌺
The Ghznavid invasions had crippled India like no other invasion ever before. Mahmud of Ghzni was perhaps one of the first invaders to actually dent the strong Indian defences after alexander the great.
But ultimately he couldn’t follow up with the empire as his kingdom stopped at the north western region of India.
His nephew, Salar Masud would go on to continue his dream of raiding and plundering India every single year.
As a young upstart, Salar showed ferocity just like his uncle while his martial fervour eclipsed even that of his warrior ancestors.
At a young age of 16 he led his army to capture various parts of northern India including Ajmer and Delhi by the help of the Ghaznavid Army.
GOLDEN THRONE or Chinnada Simhasana or Ratna Simhasana in Kannada,was the royal throne of rulers of Mysore.Its one of the main attractions of Mysore Palace. Its kept for public viewing only during Dasara Festival and on rest of the days its disassembled and kept in safe lockers.
In the Northern most bay of Gombe Thotti is the Golden Howdah also called the Ambari.the core of this Howdah is a wooden structure in the form of a mantapa which is covered with 80 kgs of Gold Sheets having intricate designs consisting of scrolls,foliage and flowers.
Focus of the Dasara Procession’s grand finale. Either side of Howdah are 2 ivory fly whishks, finely cut strips of ivory form the bristles which are tipped with zari, type of thread made from thinnest gold or silver wire. 2 Lights attached to the Howdah red and green r battery..
Nellaiappar Temple in Tirunelveli is a place of religious significance. It is a place of spiritual significance. It finds mention in our puranas and many literary books, especially the Tevarams. It’s gopurams and musical pillars are a work of beautiful art.
Musical magnificence of Nellaiappar Temple in Tirunelveli
• This 7th century Musical Pillar produces musical notes when tapped. Indeed a wonder of ancient architecture.
• The majestic Nellaiappar Temple itself is a masterpiece in terms of architecture.
The entire city is synonymous with this temple that is steeped in so many rich legends and stories.
I am talking about the Nellaiappar temple, a living example of beautiful Dravidian architecture that was built by the early Pandyas in the 7th century.
Why do we Indians don't need a separate day to celebrate 'Thanksgiving'? We celebrate 'Thanksgiving' 24X7 365 days, every hour, every minute...
Today on Thanksgiving want to highlight why we never need to dedicate a day to express our gratitude and thanks.
Our culture is built upon idea of feeling grateful to the Mother Nature. Our Vedas give Godly status to natural elements such as wind, fire, rain, water etc. We consider life saving river water, milk giving animals or life saving herbs as mother.
We pray& r thankful to each and every living,non-living thing,even the stones,we create symbolism of our devotion through them. No other way of living on this Earth celebrates'Thanksgiving' throughout the year but we Sanatani.Thats our culture, thats our pride!
शिवरात्रि पर महाकाल मंदिर का नजारा ही अलग होता है। देश के कोने-कोने से श्रद्धालु यहां आते हैं। महादेव की पूजा के साथ ही गौतम बुद्ध की भी उपासना करते हैं।
आइए जानते हैं क्या है इसके पीछे की कहानी?
महाकाल मंदिर में विराजते हैं शिव और बुद्ध। दार्जीलिंग की वादियों में ‘होली हिल’ के नाम से प्रसिद्ध स्थान पर स्थापित है महाकाल मंदिर। यहां हिंदू और बौद्ध धर्म के अनुयायी एक साथ पूजा-अर्चना करते हैं। दो धर्मों को जोड़ने वाला यह अद्भुत मंदिर है।
महाकाल मंदिर में शिव जी और गौतम बुद्ध के अलावा छोटे-छोटे और भी मंदिर हैं। इनमें गणेश जी, काली माता, मां भगवती और हनुमान जी की प्रतिमाएं स्थापित हैं। इसके अलावा यहां पर एक गुफा भी है जहां बौद्ध धर्म के अनुयायी प्रार्थना करते हैं।