एक महीने पहले तक देश की इकोनॉमी, किसान आंदोलन, @yuvahallabol जैसे ग्रुप्स, प्राइवेटाइजेशन के विरुद्ध उठती आवाज़, छात्र आंदोलन आदि जैसे सम्मिलित प्रयास ने बहुत मुश्किल से चुनाव का मुद्दा बेरोज़गारी पे आया था! हेल्थ सेक्टर की बात लोग भूल चुके थे!
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फिर अचानक एक मुद्दा उठता है उडुपी में हिजाब का! मिड सेशन रोकना यूं तो किसी भी समझ वाले को चेता दे की कुछ है, पर तंत्र इतना मज़बूत की परीक्षा के 2 महीने रह गए, संविधान फैसला लेगा और जहां तक मेरी समझ है वो यह ही लेगा की यूनिफॉर्म कॉमन होना चाहिए, पर तब तक चुनाव बीत चुका होता!
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आज के समय में अपने TL खंगाल लो तो दिख जाएगा की (including my TL) की बेरोज़गारी, प्राइवेटाइजेशन, किसान, मंहगाई, शिक्षा और हेल्थकेयर से बड़ा मुद्दा है फंडामेंटल राइट्स का हिजाब vs भगवा वाला! पर शायद लोग भूल गए हैं की ये अघोषित इमरजेंसी है! भूखमरो की! बेरोजगारों की!
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इमरजेंसी के समय फंडामेंटल राइट्स हमेशा बैक सीट पे रहता है! जाने अंजाने सारे इस तंत्र में उलझ फंडामेंटल राइट्स जिसका मूल है आर्टिकल 21 उसके मूल को भूल गए! जिसमे ये कहा है की जानवर की तरह जीना ही सिर्फ जीना नहीं है मनुष्य की सी ज़िंदगी होनी है!
पर पहले जानवर की तरह तो जी लें?
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सबसे बड़ी परेशानी यह है की अधिकांश लोग जो ट्विटर या सोशल मीडिया पे आवाज़ रखने की कूबत रखते हैं वो गांव से निकल, अर्थव्यवस्था में atleast मिडल क्लास वाले हैं यानी ऐसे जो देश के 70-80 फ़ीसदी लोग से ज़्यादा सामर्थ्य और ज्ञानवान हैं!
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जो 100 रुपए से 500 रुपए किलो वाली मल्टीग्रेन खा रहे उन्हें कैसे पता की 20 रुपए किलो वाली गेंहू भी आती है! एक 500 की आबादी वाले गांव के एक झोपड़ी में 3 बच्चों में जन्म मैं अगर गांव और वहां की परेशानी को ठीक से नही समझ पाता तो आप तो मुझसे ज़्यादा नॉलेज और प्रिविलेज वाले हो!
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आप शायद इकोनॉमिकली टॉप 80 में ही आ पाते हो पर एजुकेशन (PG and PHd) और इनकम के हिसाब से टॉप 10% में आते हो यानी करोड़ों में एक! कोशिश कीजिए समझ में आ जाएगा की हमे उलझा हरेक पार्टी अपना फायदा साधती आई है! पहले के लोग चोर थे तो ये डकैत! कम कोई नही!
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बस आप मैं आपस में लड़ते रहेंगे, बाकी बड़े लोग दिन भर लड़ने का स्वांग रचेंगे और शाम में किस के ट्वीट पे कितने कॉमेंट आएंगे उसके आंकलन पे दारू पी के ठहाके लगा रहे होंगे! सनद रहे बीजेपी के सबसे चुनावी रैली के विलेन रॉबर्ट वाड्रा और कांग्रेस के जय शाह अभी भी तरक्की कर रहे!
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लड़ना प्रवृत्ति है हमारी, समाज से, घर के रूढ़िवाद से, महंगाई से, भ्रष्टाचार से, बेरोजगार से सबसे लड़ते ही तो आए हैं! पर आपस में वैमनस्य? एक दूसरे को नीच दिखाने की प्रवृत्ति? अगर लगता है की ताक़त है तो।इस्तेमाल करो मजलूमों की मदद करके! बड़े ओहदे और पैसे वालों से लड़ो!
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देश हमारी तरफ़ देख रहा है की हम और आप कब सही मायने में बदलाव लाने की कोशिश करेंगे! कोशिश करके देखो दोस्त हम और आप इतने काबिल तो हैं की चार की गलियां खा कर दस की मदद कर दें!
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और जिन्हें ये लगता है की अपने साथी जिनकी विचारधार अलग है उनके तंज़, व्यंग, कटु शब्द, गलत व्यवहार को बर्दास्त नहीं कर सकते उनसे निवेदन है की अपने वर्क प्लेस पे बस एक हफ्ते के लिए "no compromise with fundamental rights and dignity" वाला मूल मंत्र ले के देखें!
लड़ना है, पर किससे?
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