तो हुआ यूं कि पिछले महीने हमारी मोबाइल फ़ोन की एलिजिबिलिटी रिन्यू हुई। और हमारा फ़ोन भी काफी पुराना हो चुका था। छः साल से एक ही फ़ोन को चला रहे थे। हमारे फ़ोन को लोग ऐसे नजरों से देखते थे
जैसे कि हड़प्पा की खुदाई से निकला हुआ कोई नमूना देख लिया हो। लेकिन हम भी उस पुराने फ़ोन को घूंघट के ऑउटडेटेड रिवाज़ की तरह चलाये जा रहे थे। लेकिन समस्या तब हुई जब मोबाइल बैंकिंग के एप्प ने एंड्राइड 8 को ब्रिटिशराज घोषित करके आज़ादी की मांग कर दी।
अब तो हमें नया फ़ोन चाहिए ही था। अब चूंकि हम मोबाइल की दुनिया में चल रही क्रांति से नावाक़िफ़ थे इसलिए हमने यूट्यूब का रुख किया। वहां हमको अलग ही लेवल की भसड़ मिली। उनके बारे में बाद में बात करेंगे।
लेकिन यूट्यूब देखकर हमने कुछ चीजें डिसाइड की जो कि हमको एक मोबाइल फ़ोन में चाहिए थी। एक तो लेटेस्ट एंड्राइड, फिर 5G, ड्यूल सिम, एक ठीक ठाक प्रोसेसर, ठीक ठाक रैम, और एक बढ़िया कैमरा। हमको लगा था कि ये तो आसान चॉइस है। लेकिन काश चीजें इतनी आसान होती।
सबसे पहले एंड्राइड पे आते हैं। पता चला कि आजकल एंड्राइड 12 का ज़माना है। और कहानी सिर्फ एंड्राइड पे ख़त्म नहीं होती। अब आपको UI भी देखना है। किसी में टाइमली अपडेट नहीं आते, किसी में सिक्योरिटी सिस्टम अच्छा नहीं है,
किसी में एड और ब्लॉटवेयर भरे हुए हैं तो किसी में बग्स हैं। एंड्राइड से आगे बढे तो 5G पे आये। पहले एक सिंपल 4G या 3G आता था। लेकिन अब नहीं। अब किसी में 5G के 3 band हैं तो किसी में 13, किसी में SA है तो किसी में NSA,
किसी में कर्रिएर एग्रीगेशन है तो किसी में नहीं है। मतलब यहाँ भी भरपूर कन्फ्यूजन। अगर आपने प्रोसेसर और रैम डिसाइड कर भी लिया है तो अभी मेमोरी डिसाइड करनी बाकी है। 64 GB से 1 TB तक उपलब्ध है।
सिर्फ यही नहीं, मेमोरी ट्रांसफर रेट भी तो इम्पोर्टेन्ट है। eMMC सस्ती वाली है और UFS अच्छी वाली। UFS में भी 2.0, 2.1, 2.2, 3.1 तक के ऑप्शन हैं। अब आते हैं सिम वाले इशू पे। आजकल ज्यादातर मोबाइल ड्यूल सिम आते हैं लेकिन किसी में hybrid है तो किसी में e-SIM।
इसके बाद है डिस्प्ले। कोई IPS डिस्प्ले है तो कोई एमोलेड। एमोलेड में भी कई तरह के आते हैं, पी ओलेड, सुपर एमोलेड, LTPO एमोलेड। फिर रिफ्रेश रेट भी तो चेक करनी है। 60 हर्ट्ज़, 90 हर्ट्ज़, 120 या 144। फिर ब्राइटनेस, 400 निट्स से 1800 निट्स तक के ऑप्शन हैं।
इसके बाद रेजोल्यूशन भी बढ़िया होना चाहिए। और डिस्प्ले का सीन यहीं ख़त्म नहीं होता। नार्मल स्क्रीन फिर कर्व्ड स्क्रीन फिर क्वाड कर्व्ड स्क्रीन। इसके बाद आते हैं स्क्रीन ग्लास पे। कोर्निंग गोरिल्ला गिलास, victus गोरिल्ला गिलास, गोरिल्ला गिलास 3 , 4 , 5 और 6 भी आ गया है।
इन सब में अंतर क्या है ये तो बनाने वाले कंपनी ही जाने। वो अलग बात है कि स्क्रीन ग्लास कोई सा भी हो हमें 30 रूपये वाला स्क्रीन गार्ड तो लगाना ही है। और ऐसा नहीं है कि ग्लास केवल स्क्रीन के आगे ही लगेगा। आजकल पीछे भी ग्लास आने लगे हैं।
कोई वहां भी अलग अलग टाइप के ग्लास हैं, सिरेमिक ग्लास, मैट फिनिश ग्लास। ग्लास के अलावा लेदर और प्लास्टिक बॉडी भी आती है। मामला फिर वही है कि आप ले कोई सा भी ले लेकिन पचास रूपये वाला प्लास्टिक का कवर तो चढ़ाना ही है। फ़ोन के शेप भी अलग अलग होते हैं।
बॉक्स टाइप, कर्व्ड टाइप। फिर साइज 6 इंच से लेकर 7 इंच तक के ऑप्शन हैं। फोन का वजन भी महत्वपूर्ण है। 150 ग्राम से 250 ग्राम तक के ऑप्शन उपलब्ध हैं। फिर फिंगरप्रिंट सेंसर पे आते हैं। यहाँ भी ऑप्शन हैं।
किसी में इन डिस्प्ले फिंगरप्रिंट सेंसर हैं तो किसी में बैक पैनल पे, तो किसी में साइड पैनल में। फिर आते हैं कैमरा पे। ये एक अलग ही दुनिया है। ड्यूल कैमरा, ट्रिप्पल कैमरा, क्वाड कैमरा, और यहाँ तक कि पांच पांच कैमरे तक आते हैं।
कोई मैक्रो है तो कोई उल्ट्रावॉइड, कोई इन्डेप्थ सेंसर है तो कोई टेलीफ़ोटो। फिर यही कहानी फ्रंट कैमरे में। फिर मेगा पिक्सेल कि अलग कहानी है। 2 मेगा पिक्सेल से 200 मेगा पिक्सेल तक के ऑप्शन उपलब्ध हैं।
जैसे ही आप मेगा पिक्सेल को देख के खुश हो रहे होते हैं कोई आके बताता है कि मेगा पिक्सेल से कुछ नहीं होता। कैमरा सेंसर ज्यादा इंपोर्टेंट है। वहां अलग कहानी। किसी में सोनी का है, किसी में सैमसंग का तो किसी में घर का बनाया ही सेंसर है।
किसी में छोटा सेंसर है तो किसी में बड़ा सेंसर। यहाँ का कन्फूजन अभी तक दूर नहीं हुआ है कि कोई आके बता जाता है कि कैमरे में सबसे ज्यादा जरूरी तो इमेज प्रोसेसिंग सॉफ्टवेयर है। यहाँ कोई लाइका लेकर आया है जायस तो कोई हेस्सलबैंड।
अगर आपने चक्रव्यूह का ये वाला स्टेप भी पार कर लिया है तो खुद को अर्जुन समझने कि कोई जरूरत नहीं क्योंकि अभी तो आपको OIS, EIS, गिम्ब्ल-निंबल भी देखना है। फिर वीडियो रिकॉर्डिंग, FPS, नाईट फोटो, HDR, लो लाइट फोटो।
और भी पता नहीं क्या क्या। सिर्फ यही नहीं, कैमरा कहाँ लगा है ये भी एक बड़ा मुद्दा है। बैक साइड में वर्टिकल शेप में है या रेक्टेंगल शेप में हैं, फ्रंट में पंच होल है या वाटर ड्रॉपलेट, साइड पंच होल है या सेंटर पंच होल। कइयों में तो पॉपअप कैमरा होता है।
यानी बटन दबाओगे तब बाहर निकलेगा। इसके बाद आते हैं साउंड पे। सिंगल स्पीकर है या स्टीरियो स्पीकर। फिर battery का साइज, चार्जिंग स्पीड भी तो देखनी है। आजकल 240 वाट तक के मोबाइल चार्जर आते हैं। हमारे लैपटॉप का चार्जर 120 वाट का है और वो दो किलो का है।
ये सब रिसर्च करने के बाद हमने एक फ़ोन पसंद किया। लेकिन बाद में पता चला कि उस में तो हैडफ़ोन का जैक ही नहीं है। मतलब आपको वायरलेस इयरपॉड खरीदने ही पड़ेंगे। और आजकल तो एक नई भसड़ शुरू हुई है। फ़ोन वालों ने चार्जर देना ही बंद कर दिया है। पुराने चार्जर से काम चलाइये।
एक ज़माना था जब फ़ोन के साथ इयरफोन तक आता था। अब लगता है एक आने वाले समय में फ़ोन के नाम पर केवल खाली डब्बा आएगा और उसमें लिखा हुआ आएगा कि पुराने फ़ोन से काम चलाइये क्योंकि वो एनवायरनमेंट के लिए अच्छा है।
कोई कहता है कि चाइनीज कंपनी का मोबाइल मत खरीदो क्योंकि उससे आपका पर्सनल डाटा चीन की सरकार को चला जाता है। कोई कहता है कि पुराना मोबाइल मत बेचो क्योंकि इससे भी आपका डाटा लीक होने का डर रहता है।
जब आप कोई मॉडल पसंद कर लेते हैं तभी कोई दोस्त आके बोलेगा कि अरे ये मॉडल तो पुराना हो गया, एक महीने और रुक जा नया मॉडल लांच होने जा रहा है। अब आप ही बताइये कि इतने भारी कन्फूजन में आदमी किस किस चीज का ख्याल रखे।
साला नौकरी सेलेक्ट करते वक़्त भी इतना दिमाग नहीं लगाया था जितना मोबाइल लेने में लगाना पड़ रहा है। जबकि मोबाइल तीन साल चलाना है और नौकरी जिंदगी भर।
• • •
Missing some Tweet in this thread? You can try to
force a refresh
नोटबंदी जैसी तुग़लकी स्कीम जिससे सिर्फ एक पार्टी और चंद पूंजीपतियों को हुआ, लेकिन पूरा देश एक एक पैसे के लिए तरस गया, धंधे बर्बाद हो गए, बैंकरों ने अपनी जान खपा दी, दिन रात पत्थरबाजी झेली, रोज गालियां खाई,
साहब के कपड़ों की तरह दिन में कई कई बार बदले नियमों को झेला, नुक्सान की भरपाई जेब से करी। और जैसा कि होना था, भारी मीडिया मैनेजमेंट और ट्रोल्स की फ़ौज के बावजूद नोटबंदी फेल साबित हुई।
जब नोटबंदी फेल हुई थी तो बड़ी बेशर्मी से इन लोगों ने नोटबंदी की विफलता का ठीकरा बैंकों के माथे फोड़ दिया।
"अजी वो तो बैंक वाले ही भ्रष्ट हैं वरना जिल्लेइलाही ने तो ऐसे स्कीम चलाई थी कि देश से अपराध ख़त्म ही हो जाना था।"
थ्रेड: #ड्यू_डिलिजेंस
बैंक में ड्यू डिलिजेंस बहुत जरूरी चीज है। बिना ड्यू डिलिजेंस के हम लोन देना तो दूर की बात है कस्टमर का करंट खाता तक नहीं खोलते।
लोन देने से पहले पचास सवाल पूछते हैं। पुराना रिकॉर्ड चेक करते हैं। चेक बाउंस हिस्ट्री चेक करते हैं।
और लोन देने के बाद भी उसकी जान नहीं छोड़ते। किसी कस्टमर के खाते में अगर एक महीने किश्त ना आये तो उसकी CIBIL खराब हो जाती है। और तीन महीने किश्त न आये तो खाता ही NPA हो जाता है और फिर उसे कोई लोन नहीं देता। #12thBPS
अगर डॉक्यूमेंट देने में या और कोई कम्प्लाइंस में ढील बरते तो बैंक पीनल इंटरेस्ट चार्ज भी करते हैं। लेकिन बैंकों का ये ड्यू डिलिजेंस केवल कस्टमर के लिए ही है। पिछले 56 सालों से बैंकरों का अपना रीपेमेंट टाइम पर नहीं आ रहा। हर पांच साल में बैंकरों का वेज रिवीजन ड्यू हो जाता है।
थ्रेड: #परफॉरमेंस
मेरी पिछली कंपनी में एक GM साहब थे। बहुत हाई परफ़ॉर्मर। मतलब जिस माइन के लिए कंपनी ने पांच साल पहले बोल दिया था कि अब इसमें मिट्टी के अलावा कुछ नहीं बचा उसमें से भी पांच साल से प्रोडक्शन देकर टॉप पे रखा हुआ था। 48 की उम्र में GM बन गए थे।
ना खाने का होश, ना पहनने का। फैमिली कहाँ पड़ी है कोई आईडिया नहीं। मतलब, GM साहब को आईडिया होगा लेकिन हमको आईडिया नहीं था क्योंकि हमने तो उन्हें कभी घर जाते देखा नहीं। छुट्टी वगैरह कुछ नहीं। ना खुद लेते थे ना स्टाफ को देते थे। स्टाफ की नाक में दम किया हुआ था।
बिना गालियों के तो बात ही नहीं करते थे। खौफ का दूसरा नाम। कंजूस इतने कि क्लब नाईट में भी खाने में केवल पूरी और परवल की सब्जी बनवाते थे। मतलब पूरी तरफ से कंपनी को समर्पित।
थ्रेड: #Hierarchy
समाजशास्त्र में एक सिद्धांत है। "Power is zero sum game" का। मतलब जैसे ऊर्जा उत्पन्न या नष्ट नहीं की जा सकती केवल एक स्वरुप से दूसरे स्वरुप में परिवर्तित की जा सकती है वैसे ही शक्ति भी केवल एक व्यक्ति से दूसरी व्यक्ति को ट्रांसफर की जा सकती है।
अगर किसी व्यक्ति कि शक्ति बढ़ रही है बदले में किसी न किसी कि शक्ति कम भी हो रही है। मानव समाज विकास के प्रारंभिक चरण को "प्रिमिटिव कम्युनिज्म" कहा जाता है जहाँ सबके पास सामान शक्ति हुआ करती थी।
धीरे धीरे शक्ति का असंतुलन बढ़ता गया और सत्ता कुछ लोगों के हाथ में केंद्रित होकर रह गई। धीरे धीरे एक पूरी शक्ति की एक पूरी हायरार्की बन गई। सबसे ऊपर राजा, फिर सामंत, फिर राज कर्मचारी, फिर व्यापारी, फिर आम प्रजा।
बैंकों में दो तरह के लोग मिलते हैं। एक वो जो बड़ी सोच लेकर चलते हैं। उनको टारगेट से ज्यादा मतलब नहीं होता। हर कस्टमर को सर्विस देते हैं। अकाउंट खोलने के लिए लॉगिन डे का इंतज़ार नहीं करते। जिस दिन फॉर्म आता है अकाउंट खोल देते हैं। जो काम आता है उसे करने में विश्वास रखते हैं।
उनकी टेबल पे आपको "ये मेरा काम नहीं है, फलाने से बात करो", "टाइम नहीं है, कल आना" टाइप की चीजें सुनने को नहीं मिलती। कई बार दो कदम आगे जाकर कस्टमर और साथी स्टाफ की मदद करते हैं। इनके लिए कस्टमर का सेटिस्फैक्शन और बैंक की इमेज सर्वोपरि होती है।
फिर दूसरे तरीके के लोग आते हैं। हर बात में नियम झाड़ते हैं। टारगेट पूरा करने के लिए घटिया से घटिया लोन भी कर देंगे, बद्तमीज कस्टमर के पैरों में गिरकर भी इन्शुरन्स के लिए गिड़गिड़ाएंगे। लेकिन जैसे ही टारगेट पूरा हुआ उस दिन अच्छे से अच्छे कस्टमर को भी घुसने नहीं देंगे।
रोज किसी न किसी बैंक से किसी न किसी उच्चाधिकारी के सनकीपन की खबर आरही है। कोई स्टाफ की सैलरी रोक देने की बात करता है, कोई रात के 12 बजे ब्रांच खुलवा रहा है, कोई बीमा नहीं करने पर स्टाफ का खाता डेबिट करने की धमकी दे रहा है,
एक भाईसाहब चाहते हैं कि अगर उनको व्हाट्सप्प पर रिपोर्ट नहीं मिली तो ब्रांच मैनेजर उनके ऑफिसर आकर उनके श्रीचरणों में ब्रांच की डेली रिपोर्ट प्रस्तुत करे। एक अन्य महाशय का मानना है कि दादी-नानी तो मरती रहती हैं, ब्रांच के टारगेट ज्यादा जरूरी हैं।
एक साहब ने बताया कि माँ मर गई तो कौनसी बड़ी बात हो गई, बूढी ही तो थी, छुट्टी नहीं मिलेगी, जाओ ब्रांच चलाओ और बीमा बेचो। एक स्टाफ छुट्टी पे थी और ट्रेन से अपने निजी काम से कहीं जा रही थी तो उन्हें जबरदस्ती DGM की मीटिंग ज्वाइन करवाई गई।