कवि सुदामा पाण्डेय जी (धूमिल) कविता संग्रह-
#धूमिल
#संसद से सड़क तक(1972)
#कविता
उसे मालूम है कि शब्दों के पीछे
कितने चेहरे नंगे हो चुके हैं
और हत्या अब लोगों की रुचि नहीं –
आदत बन चुकी है
वह किसी गँवार आदमी की ऊब से
पैदा हुई थी और
एक पढ़े-लिखे आदमी के साथ
शहर में चली गयी
एक सम्पूर्ण स्त्री होने के पहले ही
गर्भाधान कि क्रिया से गुज़रते हुए
उसने जाना कि प्यार
घनी आबादी वाली बस्तियों में
मकान की तलाश है
लगातार बारिश में भीगते हुए
उसने जाना कि हर लड़की
तीसरे गर्भपात के बाद
धर्मशाला हो जाती है और कविता
हर तीसरे पाठ के बाद
नहीं – अब वहाँ अर्थ खोजना व्यर्थ है
पेशेवर भाषा के तस्कर-संकेतों
और बैलमुत्ती इबारतों में
अर्थ खोजना व्यर्थ है
हाँ, अगर हो सके तो बगल के गुज़रते हुए आदमी से कहो
-
लो, यह रहा तुम्हारा चेहरा,
यह जुलूस के पीछे गिर पड़ा था

इस वक़्त इतना ही काफ़ी है
वह बहुत पहले की बात है
जब कहीं किसी निर्जन में
आदिम पशुता चीख़ती थी और
सारा नगर चौंक पड़ता था
मगर अब –
अब उसे मालूम है कि कविता
घेराव में
किसी बौखलाए हुए आदमी का
संक्षिप्त एकालाप है

-धूमिल
2- #बीस साल बाद
बीस साल बाद
मेरे चेहरे में वे आँखें लौट आयी हैं
जिनसे मैंने पहली बार जंगल देखा है :
हरे रंग का एक ठोस सैलाब जिसमें सभी पेड़ डूब गए हैं।

और जहाँ हर चेतावनी
ख़तरे को टालने के बाद
एक हरी आँख बन कर रह गयी है।
👇
बीस साल बाद
मैं अपने-आप से एक सवाल करता हूँ
जानवर बनने के लिए कितने सब्र की ज़रूरत होती है?
और बिना किसी उत्तर के चुपचाप
आगे बढ़ जाता हूँ
क्योंकि आजकल मौसम का मिज़ाज यूँ है
कि खून में उड़ने वाली पंक्तियों का पीछा करना
लगभग बेमानी है।
👇
दोपहर हो चुकी है
हर तरफ़ ताले लटक रहे हैं
दीवारों से चिपके गोली के छर्रों
और सड़कों पर बिखरे जूतों की भाषा में
एक दुर्घटना लिखी गई है
हवा से फड़फड़ाते हिन्दुस्तान के नक़्शे पर
गाय ने गोबर कर दिया है।
👇
मगर यह वक़्त घबराये हुए लोगों की शर्म
आँकने का नहीं
और न यह पूछने का –
कि संत और सिपाही में
देश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य कौन है!
👇
आह! वापस लौटकर
छूटे हुए जूतों में पैर डालने का वक़्त यह नहीं है
बीस साल बाद और इस शरीर में
सुनसान गलियों से चोरों की तरह गुज़रते हुए
अपने-आप से सवाल करता हूँ –
क्या आज़ादी सिर्फ़ तीन थके हुए रंगों का नाम है
जिन्हें एक पहिया ढोता है
या इसका कोई खास मतलब होता है?
👇
और बिना किसी उत्तर के आगे बढ़ जाता हूँ
चुपचाप।

-धूमिल

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Jul 10
oo(महाभारत शांतिपर्व)oo

🧵 श्लोक--

प्राणहत्या स्वर्गं प्राप्स्यसि तर्हि कथं युधिष्ठिरः नरकं प्राप्स्यति । अवश्यं धर्मे पशुहिंसा नास्ति। अहिंसा धर्मो यज्ञाश्चापि अहिंसा भवेयुः ।
भावार्थ-प्राणियों की हत्या से स्वर्ग मिलता हो, तो फिर नर्क कैसे मिलेगा युधिष्ठिर? निश्चित रूप से धर्म में प्राणी हिंसा नहीं होती। धर्म हिंसारहित होता है, और यज्ञ भी हिंसारहित होने चाहिए।

||१||
श्लोक (अध्याय २६५)
सुरां मत्स्यान्मधु मांसमासवं कृसरोदनम्। धूतैः प्रवर्तितं ह्येतन्नैतद्वेदेषु कल्पितम् ॥९॥ मानान्मोहाच्च लोभाच्च लौल्यमेतत्प्रकल्पितम् । विष्णुमेवाभिजानन्ति सर्वयज्ञेषु ब्राह्मणाः॥ पायसैः सुमनोभिश्च तस्यापि यजनं स्मृतम्। यज्ञियाश्चैव ये वृक्षा वेदेषु परिकल्पित:
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Mar 1
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-आर्थर शोपेनहावर
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