थ्रेड: #हंस_चला_बगुले_की_चाल
भारत एक मानसून आधारित देश हैं जहाँ साल में एक तिहाई समय मानसून का होता है। मानसून में जबरदस्त बरसात होती है। साल भर के हिस्से की बरसात चार महीनों में ही हो जाती है। बाकी समय लगभग सूखा ही रहता है।
यहाँ के मानसून को समझना विदेशियों के लिए हमेशा से एक टेढ़ी खीर ही रहा। विशेषकर अंग्रेज तो मानसून से इतने परेशान थे कि भारत की कृषि व्यवस्था की रीढ़ तोड़कर ही माने। लेकिन भारतीयों के लिए मानसून जीवनशैली का एक अभिन्न अंग था। हमारी जीवनशैली मानसून के हिसाब से ढली हुई थी।
मानसून के "चौमासे" में न तीर्थ यात्रा होती थी और ना ही शुभ कार्य जैसे विवाह इत्यादि। इन चार महीनों में हो देवताओं से सोने की परंपरा शुरू हुई थी वो आज भी जारी है। राम ने भी लंका पर चढ़ाई चार महीने के लिए रोकी थी और मानसून के दौरान माल्यवान पर्वत पर इंतज़ार किया था।
महात्मा बुद्ध भी मानसून के चार महीने श्रावस्ती में बिताते थे।
क्योंकि नदी नाले उफान पर होते थे, रास्ते जो की ज्यादातर कच्चे ही हुआ करते थे वो बंद हो जाते थे। ऐसे में अक्सर लोगों की आय भी बंद हो जाती थी।
यहाँ तक कि रोजमर्रा की चीजें जैसे भोजन पकाने के लिए सूखी लकड़ी वगैरह भी नहीं मिलती थी। मानसून के दौरान जीवन साल भर में बचत किये हुए संसाधनों पर ही निर्भर रहता था। और जहाँ पानी की कमी होती थी वहां मानसून के दौरान बचाया हुआ पानी साल भर काम आता था।
तभी तो रहीमदास ने कहा था कि "रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून, पानी गए ना ऊबरे, मोती मानस चून।" और आज भले भी मानसून के कारण जीवन में आने वाले व्यवधानों में कमी आ गई हो लेकिन 'बचत' हमारी संस्कृति का एक अहम् अंग बन चुकी है।
भारतीय संस्कृति में मितव्ययता को एक अच्छा गुण माना जाता है और चार्वाक दर्शन को हेत भावना से देखा जाता है। ऐसे में आर्थिक विकास ने नाम पर राष्ट्रवादी सरकार का क्रेडिट कल्चर को बढ़ावा देना, बचत को हतोत्साहित करना किस हद तक तार्किक है ये सोचने वाली बात है।
किसी भी देश की संस्कृति वहां के इतिहास, जलवायु, भूगोल इत्यादि के सहस्राब्दियों के प्रभाव से बनती है। ऐसे में संस्कृति के विरुद्ध जाकर जबर्दस्ती थोपी हुई आर्थिक नीतियां देश और देशवासियों के विकास में कितनी प्रभावी साबित होंगी ये तो समय ही बताएगा।
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थ्रेड: #अंधी_पीसे_कुत्ता_खाय
भूखी जनता राजा के पास पहुंची: महाराज!!! विदेशी सब लूट के ले गए। खाने को कुछ नहीं है। कुछ कीजिये।
राजा (मंत्रियों से): सबके भोजन का इंतज़ाम करो। और सबको अन्न उगाने के लिए पर्याप्त भूमि, बीज खाद दो ताकि भविष्य में कोई भूखा न रहे।
कुछ समय बाद राज्य के सभी धनी व्यापारी राजा के पास पहुंचे: महाराज!!! हम तो बर्बाद हो गए।
राजा: क्या हुआ?
व्यापारी: महाराज!!! लोग खुद ही अन्न उगा रहे हैं और खा रहे हैं। साथ ही बुरे समय के लिए अन्न बचा भी रहे हैं। लोग आत्मनिर्भर हो रहे हैं। हमारी किसी को जरूरत ही नहीं।
फिर हमारा क्या होगा?
राजा: तो मैं क्या करूँ? जनता को अन्न उगाने से तो नहीं रोक सकता।
व्यापारी: लेकिन अन्न बचाने से तो रोक सकते हैं। ताकि हमारी भी दुकान चल सके। याद रखिये की आपका सिंहासन रथ वगैरह सब हमने ही स्पांसर किया हुआ है।
तो हुआ यूं कि पिछले महीने हमारी मोबाइल फ़ोन की एलिजिबिलिटी रिन्यू हुई। और हमारा फ़ोन भी काफी पुराना हो चुका था। छः साल से एक ही फ़ोन को चला रहे थे। हमारे फ़ोन को लोग ऐसे नजरों से देखते थे
जैसे कि हड़प्पा की खुदाई से निकला हुआ कोई नमूना देख लिया हो। लेकिन हम भी उस पुराने फ़ोन को घूंघट के ऑउटडेटेड रिवाज़ की तरह चलाये जा रहे थे। लेकिन समस्या तब हुई जब मोबाइल बैंकिंग के एप्प ने एंड्राइड 8 को ब्रिटिशराज घोषित करके आज़ादी की मांग कर दी।
अब तो हमें नया फ़ोन चाहिए ही था। अब चूंकि हम मोबाइल की दुनिया में चल रही क्रांति से नावाक़िफ़ थे इसलिए हमने यूट्यूब का रुख किया। वहां हमको अलग ही लेवल की भसड़ मिली। उनके बारे में बाद में बात करेंगे।
नोटबंदी जैसी तुग़लकी स्कीम जिससे सिर्फ एक पार्टी और चंद पूंजीपतियों को हुआ, लेकिन पूरा देश एक एक पैसे के लिए तरस गया, धंधे बर्बाद हो गए, बैंकरों ने अपनी जान खपा दी, दिन रात पत्थरबाजी झेली, रोज गालियां खाई,
साहब के कपड़ों की तरह दिन में कई कई बार बदले नियमों को झेला, नुक्सान की भरपाई जेब से करी। और जैसा कि होना था, भारी मीडिया मैनेजमेंट और ट्रोल्स की फ़ौज के बावजूद नोटबंदी फेल साबित हुई।
जब नोटबंदी फेल हुई थी तो बड़ी बेशर्मी से इन लोगों ने नोटबंदी की विफलता का ठीकरा बैंकों के माथे फोड़ दिया।
"अजी वो तो बैंक वाले ही भ्रष्ट हैं वरना जिल्लेइलाही ने तो ऐसे स्कीम चलाई थी कि देश से अपराध ख़त्म ही हो जाना था।"
थ्रेड: #ड्यू_डिलिजेंस
बैंक में ड्यू डिलिजेंस बहुत जरूरी चीज है। बिना ड्यू डिलिजेंस के हम लोन देना तो दूर की बात है कस्टमर का करंट खाता तक नहीं खोलते।
लोन देने से पहले पचास सवाल पूछते हैं। पुराना रिकॉर्ड चेक करते हैं। चेक बाउंस हिस्ट्री चेक करते हैं।
और लोन देने के बाद भी उसकी जान नहीं छोड़ते। किसी कस्टमर के खाते में अगर एक महीने किश्त ना आये तो उसकी CIBIL खराब हो जाती है। और तीन महीने किश्त न आये तो खाता ही NPA हो जाता है और फिर उसे कोई लोन नहीं देता। #12thBPS
अगर डॉक्यूमेंट देने में या और कोई कम्प्लाइंस में ढील बरते तो बैंक पीनल इंटरेस्ट चार्ज भी करते हैं। लेकिन बैंकों का ये ड्यू डिलिजेंस केवल कस्टमर के लिए ही है। पिछले 56 सालों से बैंकरों का अपना रीपेमेंट टाइम पर नहीं आ रहा। हर पांच साल में बैंकरों का वेज रिवीजन ड्यू हो जाता है।
थ्रेड: #परफॉरमेंस
मेरी पिछली कंपनी में एक GM साहब थे। बहुत हाई परफ़ॉर्मर। मतलब जिस माइन के लिए कंपनी ने पांच साल पहले बोल दिया था कि अब इसमें मिट्टी के अलावा कुछ नहीं बचा उसमें से भी पांच साल से प्रोडक्शन देकर टॉप पे रखा हुआ था। 48 की उम्र में GM बन गए थे।
ना खाने का होश, ना पहनने का। फैमिली कहाँ पड़ी है कोई आईडिया नहीं। मतलब, GM साहब को आईडिया होगा लेकिन हमको आईडिया नहीं था क्योंकि हमने तो उन्हें कभी घर जाते देखा नहीं। छुट्टी वगैरह कुछ नहीं। ना खुद लेते थे ना स्टाफ को देते थे। स्टाफ की नाक में दम किया हुआ था।
बिना गालियों के तो बात ही नहीं करते थे। खौफ का दूसरा नाम। कंजूस इतने कि क्लब नाईट में भी खाने में केवल पूरी और परवल की सब्जी बनवाते थे। मतलब पूरी तरफ से कंपनी को समर्पित।
थ्रेड: #Hierarchy
समाजशास्त्र में एक सिद्धांत है। "Power is zero sum game" का। मतलब जैसे ऊर्जा उत्पन्न या नष्ट नहीं की जा सकती केवल एक स्वरुप से दूसरे स्वरुप में परिवर्तित की जा सकती है वैसे ही शक्ति भी केवल एक व्यक्ति से दूसरी व्यक्ति को ट्रांसफर की जा सकती है।
अगर किसी व्यक्ति कि शक्ति बढ़ रही है बदले में किसी न किसी कि शक्ति कम भी हो रही है। मानव समाज विकास के प्रारंभिक चरण को "प्रिमिटिव कम्युनिज्म" कहा जाता है जहाँ सबके पास सामान शक्ति हुआ करती थी।
धीरे धीरे शक्ति का असंतुलन बढ़ता गया और सत्ता कुछ लोगों के हाथ में केंद्रित होकर रह गई। धीरे धीरे एक पूरी शक्ति की एक पूरी हायरार्की बन गई। सबसे ऊपर राजा, फिर सामंत, फिर राज कर्मचारी, फिर व्यापारी, फिर आम प्रजा।