क्या कभी आप #हरिद्वार गए हैं ???
यहाँ के पण्डे आपके आते ही आपके पास पहुँच कर आपसे सवाल करेंगे.....
आप किस जगह से आये है??
मूल निवास, जाति गौत्र आदि पूछेंगे और धीरे धीरे पूछते पूछते आपके दादा, परदादा ही नहीं बल्कि परदादा के परदादा से भी आगे की पीढ़ियों के नाम बता देंगे
जिन्हें आपने कभी सुना भी नही होगा.....
और ये सब उनकी सैंकड़ो सालों से चली आ रही किताबो में सुरक्षित है...
विश्वास कीजिये ये अदभुत विज्ञान और कला का संगम है...
आप रोमांचित हो जाते है जब वो आपके पूर्वजों तक का बहीखाता सामने रख देते हैं...
आपके पूर्वज कभी वहाँ आए थे और
उन्होंने क्या क्या दान आदि किया...
लेकिन आजकल के बच्चे इन सब बातों को फ़िज़ूल समझते हैं उन्हें लगता है कि ये पण्डे सिर्फ लूटने बैठे हैं जबकि ऐसा नही है...
ये तीर्थो के पण्डे हमारी सभ्यता,संस्कृति के अटूट अंग है इनका अस्तित्व हमारे पर ही है...
अपनी संस्कृति बचाइए
और इन्हें सम्मान दीजिये...
वैसे हिन्दुओ के नागरिकता रजिस्टर हैं ये लोग...
पीढ़ियों के डेटा इन्होंने मेहनत से बनाया और संजोया है...
इन्हें सम्मान दीजिये... 🙏🚩 जय श्री राम 🙏🚩
हमको एक प्रण लेना होगा की हम हिंदू राष्ट्र बनाकर रहेंगे !! #जय_सनातन_धर्म_की
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कल यूट्यूब पर एक पाकिस्तानी लड़के तथा साथ में अफगानिस्तान के इतिहासकार कि कंधार यात्रा देख रही थी,
गजनी शहर गये, जँहा मुहम्मद गजनी का कभी महल था।
वह महल ऐसा था कि एक पक्के ईंट कि भी दीवार न थी।
मिट्टी के मकान जो लगभग ढह चुके थे। उस समय भारत में कोई दरिद्र भी ऐसे घरों में नहीं रह
सकता था।
कुछ पक्के ईंटो कि जेल थी।
ऐसा लगता है कि बाद में लगाया गया था।
अफगानिस्तान के इतिहासकार ने बताया कि, उस समय ताजिकिस्तान, अफगानिस्तान में ऐसे कच्चे मिट्टी के महल थे। जिसमें कुछ जगह पक्की ईंट लगाई गई थी।
भारत आते ही ये सब इतने बड़े आर्टीकेट बन गये।
धन , कारीगर, कलाकृति , नक्शा सब भारत का, बनाये थे मुगल, ताजिक , गजनी।
हमारे यहाँ के वामी इतिहासकार कभी इसकी जहमत नहीं उठाये, मूल स्थानों को देखे क्या है।
खान मार्केट में सुट्टा लगाते, कमरे में बैठकर इतिहास लिख दिये।
अपने पिता को यदुवंशियों के विनाश की सूचना देकर कृष्ण वन में अपने भाई बलराम के पास वापस लौट आये थे।यदुकुल की स्त्रियों की रक्षा का भार उन्होंने अपने सारथी बाहुक के माध्यम से अर्जुन पर छोड़ दिया था।अब इस धरा पर वे बस अपने भाई के साथ कुछ क्षण व्यतीत करना चाहते थे।
बलराम एक वृक्ष के नीचे निश्चेष्ट बैठे हुए थे। प्राणवान अथवा प्राणहीन, यह देखने भर से पता नहीं चल रहा था। कृष्ण उनकी समाधि को भंग नहीं करना चाहते थे, अतः वहीं निकट ही बैठ गए। कुछ ही क्षण बीते होंगे कि उन्हें बलराम के सिर के पीछे से एक विशाल नाग निकलता हुआ दिखा,
जो देखते ही देखते तनिक दूर पर स्थित समुद्र में समा गया। समुद्र तट पर वासुकी, कर्कोटक, शँख, अतिषण्ड इत्यादि नाग एवं स्वयं वरुण देव उसके स्वागत और अगवानी हेतु खड़े थे।
बलराम का शरीर लुढ़क गया। बड़े भाई को मृत जान श्रीकृष्ण तनिक दूर जाकर लेट गए।
जब कभी आपको लगे कि आप एक विकसित युग में रहते हैं तो आप अजंता और एलोरा की गुफाओं में चले जाना वहाँ हमारे पूर्वजों की तकनीकें आपके भ्रम को चकनाचूर कर देंगी।
अजंता और एलोरा की गुफाएं! जिनके आश्चर्यों को मिटाने के लिए दुनियाँ के सात झूठे आश्चर्यों की लिस्ट तैयार की गई।
जब यह भूखी नंगी दुनियाँ आदमखोरों और लुटेरों की जिंदगी जी रही थी तब हमारे पूर्वजों ने एक पहाड़ को काटकर इस मंदिर का निर्माण कर पूरी दुनियाँ को हैरान कर दिया था।
एलोरा के कैलाश मंदिर का निर्माण राष्ट्रकूट वंश के नरेश कृष्ण (प्रथम) ने करावाया था।
अकेले कैलाश मंदिर के निर्माण के लिए पहाड़ से लगभग 40000 हजार टन पत्थर काट कर निकाले गए एक अनुमान के मुताबिक अगर 7000 कारीगर प्रतिदिन मेहनत करें तो लगभग 150 वर्षों में इस मंदिर का निर्माण कर सकेंगे लेकिन इस मंदिर का निर्माण केवल 18 वर्षों में ही कर लिया गया। जरा सोचिए आधुनिक
महात्मा विदुर की पत्नी का नाम पारसंवी था। पारसंवी का भगवान् श्रीकृष्ण के प्रति अनन्य भक्ति प्रेम था। महात्मा विदुर हस्तिनापुर के प्रधानमंत्री होने के साथ-साथ आदर्श भगवद्भक्त, उच्च कोटि के साधु और स्पष्टवादी थे। यही कारण था कि दुर्योधन उनसे सदा नाराज ही रहा करता था तथा समय
असमय उनकी निन्दा करता रहता था। धृतराष्ट्र और भीष्म पितामह से अनन्य प्रेम की बजह से वे दुर्योधन के द्वारा किये जाते अपमान को सहर्ष स्वीकार कर लेते थे। हस्तिनापुर के प्रधानमंत्री होने के बाद भी उनका रहन-सहन एक सन्त की ही तरह था। श्रीकृष्ण में इनकी अनुपम प्रीति थी।
इनकी धर्मपत्नी पारसंवी भी परम साध्वी, त्यागमूर्ति तथा भगवद्भक्तिमयी थी।
भगवान श्रीकृष्ण जब दूत बनकर संधि प्रस्ताव लेकर हस्तिनापुर पधारे, तब दुर्योधन के प्रेमरहित महान स्वागत-सत्कार किया। दुर्योधन द्वारा संधि प्रस्ताव को अस्वीकार करने के उपरांत दुर्योधन ने
20वीं शती के प्रख्यात सेनापति फील्ड मार्शल सैमजी होरमुसजी फ्रामजी जमशेदजी मानेकशा का जन्म 3 अपै्रल 1914 को एक पारसी परिवार में अमृतसर में हुआ था। उनके पिता जी वहां चिकित्सक थे। पारसी परम्परा में अपने नाम के बाद पिता, दादा और परदादा का
नाम भी जोड़ा जाता है; पर वे अपने मित्रों में अंत तक सैम बहादुर के नाम से प्रसिद्ध रहे।
सैम मानेकशा का सपना बचपन से ही सेना में जाने का था। 1942 में उन्होंने मेजर के नाते द्वितीय विश्व युद्ध में गोरखा रेजिमेंट के साथ बर्मा के मोर्चे पर जापान के विरुद्ध युद्ध किया।
वहां उनके पेट और फेफड़ों में मशीनगन की नौ गोलियां लगीं। शत्रु ने उन्हें मृत समझ लिया; पर अपनी दृढ़ इच्छा शक्ति के बल पर वे बच गये। इतना ही नहीं, वह मोर्चा भी उन्होंने जीत लिया। उनकी इस वीरता पर शासन ने उन्हें ‘मिलट्री क्रास’ से सम्मानित किया।
एक ऐसे कथावाचक जिनके पास पत्नी के अस्थि विसर्जन तक के लिए पैसे नहीं थे ...तब मंगलसूत्र बेचने की बात की थी।
यह जानकर सुखद आश्चर्य होता है कि पूज्यनीय रामचंद्र डोंगरे जी महाराज जैसे भागवताचार्य भी हुए हैं जो कथा के लिए एक रुपया भी नहीं लेते थे 🙏 मात्र तुलसी पत्र लेते थे।
जहाँ भी वे भागवत कथा कहते थे, उसमें जो भी दान दक्षिणा चढ़ावा आता था, उसे उसी शहर या गाँव में गरीबों के कल्याणार्थ दान कर देते थे। कोई ट्रस्ट बनाया नहीं और किसी को शिष्य भी बनाया नहीं।
अपना भोजन स्वयं बना कर ठाकुरजी को भोग लगाकर प्रसाद ग्रहण करते थे।
डोंगरे जी महाराज कलयुग के दानवीर कर्ण थे।
उनके अंतिम प्रवचन में चौपाटी में एक करोड़ रुपए जमा हुए थे, जो गोरखपुर के कैंसर अस्पताल के लिए दान किए गए थे।-स्वंय कुछ नहीं लिया|
डोंगरे जी महाराज की शादी हुई थी। प्रथम-रात के समय उन्होंने अपनी धर्मपत्नी से कहा था-