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जब आप इतिहास से नहीं सीखते, तो इतिहास खुद को दोहराता है। दूसरे विश्वयुद्ध के शुरू होने के समय भारत में जो नौसेना थी, वो मामूली सी थी। सैन्य विद्रोह न हो सकें इसके लिए अंग्रेजों ने वर्षों से अफवाहें फैलाई थीं। बड़े पोत बनाने पर प्रतिबन्ध लगाए इस समय तक सौ वर्ष के लगभग बीत चुके थे।
जब द्वित्तीय विश्वयुद्ध के लिए सैनिकों की जरुरत पड़ी तो जान देने वाले सैनिक कहाँ से आते? जाहिर है वो भारत जैसे देशों से लिए गए, जो फिरंगी हुक्मरानों की गुलामी करने के लिए मजबूर थे। रॉयल ब्रिटिश नेवी का भारतीय हिस्सा अपने 1939 के आकार से बढ़कर 1945 में करीब दस गुना हो चुका था।
इस नौसेना में 1942 से 1945 के दौर में सीपीआई के नेताओं ने भर्तियाँ करवाने के लिए बड़े स्तर पर अभियान चलाये। उपनिवेशवादियों की सेना में भारतीय क्यों भर्ती करना चाहते थे? संभवतः इसलिए क्योंकि स्टालिन के हिटलर से मनमुटाव होने के बाद के दौर में नाजियों के खिलाफ होना जरूरी था!
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बंदरगाह पर लगे जहाज पर माहौल तनावपूर्ण था। नौसैनिक फ्रिगेट एचएमआईएस शमशेर की स्थिति और भी नाजुक थी। रॉयल ब्रिटिश नेवी के इस जहाज की कमान संभाल रहे लेफ्टिनेंट कृष्णन ने बंदरगाह छोड़ने का सिग्नल देने का आदेश दे दिया था।
उनसे सहमत न होते हुए भी सब-लेफ्टिनेंट आर.के.एस. गांधी ने सैन्य अनुशासन का पालन किया था, लेकिन क्या विद्रोह पर उतारू नाविक मानेंगे? इसी तनावपूर्ण माहौल में लड़ने और मरने के लिए वर्षों से तैयार नाविकों के सामने लेफ्टिनेंट कृष्णन आये।
भीड़ चीरकर आगे बढ़ते जहाज के इस कप्तान के लिए तेज चलती सांसें, क्रोध और असंतोष भांप लेना कोई मुश्किल नहीं था। उस 18 फ़रवरी की सुबह लेफ्टिनेंट कृष्णन का भारतीय होना काम आया।
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