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"#इतिहास_का_पुनर्संशोधित_प्रमाणों_के_आधार_पर
#पुनर्लेखन_होना_आवश्यक_है..."

*वाकाटक नरेश द्वितीय पृथ्वीसेन की राजमुद्रा *

ये राजमुद्रा नंदीवर्धन अर्थात आज के नगरधन के अंतिम मुख्य वाकाटकवंशीय नरेश पृथ्वीसेन द्वितीय की है। इस तांबे की राजमुद्रा पर कमलपुष्प पर अधिष्ठित बौद्ध
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धम्म की रक्षक देवी "तारा "की उलट प्रतिमा(Mirror Image) उत्कीर्ण है। जिसके मस्तक पर मुकुट है और गले में अलंकरण धारण किये हुए हैं। बायें हाथ में डंठल सहित खिला हुआ कमल पुष्प है। दायां हाथ दायीं जंघा पर रखा हुआ है। वे "वरदमुद्रा" में बैठी हुई हैं।
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तांबे की इस राजमुद्रा पर तारा देवी की प्रतिमा के नीचे
चार पंक्तियां "मध्यप्रदेशी लिपि "(ब्राह्मी लिपि नहीं) में उलट प्रभाव (Mirror Image) में एक लेख उकेरा हुआ है। उसमें कुल 33 अक्षर खुदे हुए हैं। इस लेख की भाषा संस्कृत है तथा इस राजमुद्रा को पलटकर किया गया
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प्राचीन इंका, इजिप्शियन, भारतीय और चीनी संस्कृति में अनेक स्थानों पर नागसंदर्भ हमें देखने मिलते हैं। विशेषतः प्राचीन भारतीय संस्कृति में ऋग्वेद, जैन तथा बौद्ध संस्कृति से प्राप्त नागसंदर्भ महत्वपूर्ण हैं।
डाॅ बाबासाहेब आंबेडकर के महत्वपूर्ण शोधग्रंथ 'अछूत कौन थे
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और वे अछूत कैसे बने 'में लिखा है कि महाभारत में अर्जुन के नाती 'परीक्षित' के पुत्र 'जनमेजय 'ने आर्य -अनार्य युद्ध में जो 'सर्पसत्र' आरंभ किया था उस समय अस्तिक मुनि ने एक नाग को बचा लिया था। इस 'तक्षक 'नाग से उत्पन्न वंश के हम नागवंशीय बौद्ध लोग हैं।
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इन नागवंशियों के प्राचीन भारत में अनेक राज्य थे। उनकी शासन व्यवस्था लोकनियुक्त 'गणराज्य पद्धति 'की थीं। तथागत बुद्ध के लोककल्याणकारी सतधम्म को स्वीकार कर अनेक नागराजा उनके अनुयायी बने। बौद्ध साहित्य में तथागत चरित् से संबंधित कालनाग, मुचलिंद, नंद -उपनंद का उल्लेख हमें
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