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शाण्डिल्य उवाच
श्रृणुतं दत्तचित्तौ में सहस्यं व्रजभूमिजम्।
व्रजनं व्याप्तिर्त्यिुक्त्या व्यापनाद् व्रज उच्यते॥
परीक्षित और वज्रनाभ व्रजभूमि का रहस्य
बतलाता हूँ दत्तचित्त हो सुनो। व्रज शब्द का अर्थ है व्याप्ति।
इस व्रद्धवचन के अनुसार व्यापक होने के कारण ही इस भूमि का
नाम व्रज है
गुणातीतं परं ब्रह्म व्यापकं व्रज उच्यते ।
सदानन्दं परं ज्योतिर्मुक्तानां पदमव्ययम्॥

सत्व रज और तम इन तीनों से अतीत जो परब्रह्म है वही व्यापक है।
इसलिये उसे व्रज कहते हैं। वह सदानन्दस्वरूप परम ज्योतिर्मय और
अविनाशी है। जीवन्मुक्त पुरुष उसी में स्थित रहते हैं।
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#वेदकोषामृत #संस्कृत #महाभारत
#VedakoshAmrita #Sanskrit #Mahabharata

Dialogue between Maharishi Vedvyasa and Drupada revealing the secret of previous lives of Pandavas and Devi Draupadi.
व्यास उवाच
पुरा वे नैमिषारण्ये देवाः सत्रमुपासते।
तत्र वैवस्वतो राजञ्शामित्रमकरोत् तदा॥

पाञ्चाल नरेश पूर्व काल की बात है नैमिषारण्य क्षेत्र में देवता लोग एक
यज्ञ कर रहे थे उस समय वहाँ सूर्यपूत्र यम शामित्र यज्ञ कार्य करते थे।
ततो यमो दीक्षितस्तत्र राजन् नामारयत् कंचिदपि प्रजानाम्।
ततः प्रजास्ता बहुला बभूवुः कालातिपातान्मरणप्रहीणाः॥

राजन् उस यज्ञ की दीक्षा लेने के कारण यमराज ने मानवप्रजाकी मृत्यु का कार्य
स्थगित कर दिया था
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॥वैशम्पायन उवाच॥
उपासीनेषु विप्रेषु पाण्डवेषु महात्मसु।
द्रौपदी सत्यभामा च विविशाते तदा समम्॥
जाहस्यमाने सुप्रीते सुखं तत्र निषीदतुः।
चिरस्य दृष्टा राजेन्द्र ते अन्योन्यस्य प्रियंवदे॥
जब महात्मा पाण्डव तथा ब्राह्मण जन बैठकर धर्मचर्चा कर रहे थे।
उसी समय द्रौपदी और सत्यभामा भी एक ओर जाकर एक ही साथ
सुखपूर्वक बैठी और अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक चर्चा करने लगीं।
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राजोवाच
कर्मयोग वदत नः पुरुषो येन संस्कृतः।
विधूयेहाशु कर्माणि नैष्कर्म्यं विन्दते परम॥ २-११-३-४१
राजा निमि ने कहा - योगीश्वरो अब आप कर्मयोग का वर्णन कीजिये जिसके द्वारा मनुष्य
शीघ्रातिशीघ्र परम नैष्कर्म्य अर्थात कर्म,कर्तत्व और कर्मफल की निवृत्ति करनेवाला ज्ञानप्राप्त करता है।
आविर्होत्र उवाच
कर्माकर्मविकर्मेति वेदवादो न लौकिकः।
वेदस्य चेश्वरात्मत्वात् तत्र मुह्यन्ति सूरयः॥२-११-३-४३
राजन कर्म(शास्त्रविहित),अकर्म(शास्त्रद्वारा निषिद्ध) और विकर्म(शास्त्र विहित का उल्लङ्घन) यह तीनों वेद के द्वारा जाने जाते हैं।
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#वेदकोषामृत #एकादशी
#VedakoshAmrita #Ekadashi

Some important details about Ekadashi from various shastra & puranas.
Description of the origin of Ekadashi.

एकादशी की उत्पत्ति भगवान श्रीविष्णु के देह से बद्रिकाश्रम कि सिंहावती नाम की बारह योजन लम्बी गुफा जहाँ भगवान विष्णु शयन कर रहे थे वहाँ हुई है।
एकादशी की उत्पत्ति मुर नामक दैत्य को समाप्त करने के लिये हुई।
एकादशी को भगवान ने पापनाशिनी,सिद्धि दात्री,तीर्थों से भी अधिक महिमा वाली होने का वर दिया।
एकादशी ने उपवास,नक्त अथवा एकभुक्त होकर व्रत का पालन करने वालों के लिये चतुर्विध पुरुषार्थ सिद्धि का वर भी प्राप्त किया।
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उत्तरं यत्समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्।
वर्षं तद्भारतं नाम भारती यत्र सन्ततिः।।२-३-१।।

नव योजन साहस्त्रो विस्तारो अस्य महामुने।
कर्मभूमिरियं स्वर्गपवर्गं च गच्छताम्।।२-३-२।।
हे मैत्रेय जो समुद्र के उत्तर तथा हिमालय के दक्षिण में स्थित है वह भारतवर्ष कहलाता है।उसमें भरत की सन्तान बसी हुई हैं।
इसका विस्तार नौ हजार योजन है । यह स्वर्ग और अपवर्ग प्राप्त करनेवालों की कर्मभूमि है।
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तस्यामात्या गुणैरासन्निक्षवाकोः सुमहात्मनः।
मन्त्रज्ञाश्चेङ्गितज्ञाश्च नित्यं प्रियहिते रताः॥१॥
अष्टौ बभूवुर्वीरस्य तस्यामात्या यशस्विनः।
शुचयश्चानुरक्ताश्च राजकृत्येषु नित्यशः॥२॥
धृष्टिर्जयन्तो विजयः सुराष्ट्रो राष्ट्रवर्धनः।
अकोपो धर्मपालश्च सुमन्त्रश्चाष्टमोऽर्थवित्॥३॥
इक्ष्वाकुवंशी वीर महामना महाराज दशरथ के मन्त्रिजनोचित गुणों से सम्पन्न आठ मन्त्रि थे जो मन्त्र के तत्व को जाननेवाले और बाहरी चेष्टा को देखकर मन के भाव को समझने वाले थे ।वे सदा ही राजा के प्रिय और हितमें लगे रहते थे।इस कारण उनका यश बहुत फैला हुआ था।
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स कच्चिद् ब्राह्मणो विद्वान् धर्मनित्यो महाद्युतिः।
इक्ष्वाकूणामुपाध्यायो यथावत् तात पूज्यते॥९॥
तात क्या तुम इक्ष्वाकुकुलके पुरोहित ब्रह्मवेत्ता,विद्वान सदैव धर्म में तत्पर रहनेवाले महातेजस्वी ब्रह्मऋषि वशिष्ठ जी का यथावत पूजन तो करते हो ना।
तात कच्चिद् कौसल्या सुमित्रा च प्रजावती ।
सुखिनी कच्चिदार्या च देवी नन्दति कैकयी॥१०॥
भरत क्या माता कौसल्या और सुमित्रा सुख से हैं,और क्या माता आर्या कैकयी आनन्दित हैं ।
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स तत्र ब्रह्मणः स्थानमग्नेः स्थान तथैव च॥३-१२-१७
विष्णोः स्थानं महेन्द्रस्य स्थान चैव विवस्वतः।
सोमस्थानं भगस्थानं स्थानं कौबेरमेव च॥३-१२-१८
धातुर्विधातुः स्थाने च वायोः स्थानं तथैव च।
नागराजस्य च स्थानमनन्तस्य महात्मनः॥३-१२-१९
स्थानम तथैव गायत्र्या वसूनां स्थानमेव च।
स्थानं च पाशहस्तस्य वरुणस्य महात्मनः॥३-१२-२०
कार्तिकेयस्य च स्थानं धर्मस्थानं च पश्यति।३-१२-२१
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Importance of Rudraksha.

शिवप्रियतमो ज्ञेयो रुद्राक्षः परपावन‌ः।
दर्शनात् स्पर्शनाज्जाप्यात् सर्वपापहरः स्मृतः।।२-५-२।।
रुद्राक्ष शिव को अत्यंत प्रिय है। इसे परम पावन समझना चाहिये। रुद्राक्ष का स्पर्श,दर्शन और जप समस्त पापों का हरण करनेवाला कहा गया है।
वर्णैस्तु तत्फलं धार्यं भुक्तिमुक्तिफलेुसुभिः।
शिवभक्तैर्विशेषेण शिवयोः प्रीतये सदा॥२-५-१३॥
भोग और मोक्ष की इच्छा वाले चारों वर्णों के लोगों और विशेषत शिवभक्तों शिव पार्वती की प्रसन्नताके लिये रुद्राक्ष फलोंको अवश्य धारण करना चाहिये॥
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Description of different types of Brahmins.
विभिन्न प्रकार के ब्राह्मणों का वर्णन।

सदाचारयुतो विद्वान् ब्राह्मणो नाम नामत।
वेदाचारयुतो विप्रो ह्येतैरेकैकवान्द्विजः॥ १-१२-२॥
सदाचार का पालन करनेवाला विद्वान ब्राह्मण ही 'ब्राह्मण' नाम धारण करने का अधिकारी है।
वेदोक्त आचार और विद्या से युक्त ब्राह्मण 'विप्र' कहलाता है। सदाचार, वेदाचार और विद्या से युक्त ब्राह्मण 'द्विज' कहलाता है।
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