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24 तीर्थंकरों में से 16वे तीर्थंकर भगवान शान्तिनाथ में क्या खास बात है ?

श्री शांतिनाथ दादा के भवों के अद्भुत तथ्य

उनके बारह भव हुए (सम्यकत्व प्राप्त होने के बाद)

हर एक भव पहले भव से बढकर था I

1. शांतिनाथ दादा ऐसे है, जो बारह भव में से एक भी भव में तिर्यंचगती में नहीं गए I Image
2. बारह भवमें से एक भी भव में वे नरक में नहीं गए I

3. बारह भव में से एक भव में बलदेव बने..

4. एक बार 16000 देशों के राजा बनें I

5. इन बारह भवमें दो बार चक्रवर्ती बने I

6. बारह भव में से एक बार तीर्थंकर के पुत्र बनें I
7. एक भव में 32000 देशों के राजा बनें I
#जैनधर्म #Jainism Image
8. अंत में वे स्वयं तीर्थंकर बनें I

9. वे पाँच भव में जन्म से ही अवधीज्ञान साथ में लेकर आए थे ।

10. दूसरे किसी तीर्थंकर परमात्मा के पाँच भव अवधीज्ञान के साथ नहीं हुए है I

11. एक भव में वे जीवरक्षा हेतू अपने शरीर का संपूर्ण मांस देने के लिए भी तैयार हुए थे I

#शान्तिनाथ भगवान
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जैन धर्म में 18 प्रकार के पाप बताए गए हैं :
1. प्राणातिपात : हिंसा , कोई भी जीव के प्राण को घात करना , पीड़ा देना , मानसिक त्रास देना वो द्रव्य हिंसा है। रागादि भाव के साथ आत्मगुण को दबाना या घात करना वो भाव हिंसा है।

2. मृषावाद : असत्य बोलना , छल , कपट , मान और माया
माया अर्थात बाहर कुछ मन मे कुछ और। धन , धान्य के परिवार के लाभ या लोभ के कारण असत्य वचन बोलना। झूठी साक्षी देना।

3. अदत्तादान : अदत्त - चोरी , आदान लेना। चोरी से छुपा के लेना। पूछे बिना लेना। राज्य के कर आदि छुपाना वो भी चोरी है। एक परमाणु जितना भी चोरी करना भी अदत्तादान है।
4. मैथुन : विषयभोग , काम वासना , इन्द्रियों का असंयम , पांचेय इन्द्रियों के भोगों की लोलुपता , विजातीय की भोग वासना।

5. परिग्रह : धन धान्यादि संग्रह करके उसमें मान, दिखावा, ममत्व करना। आवश्यक संग्रह करके भी ज्यादा की तृष्णा करना। जितना भी है उसके उपयोग में नियंत्रण नही रखना।
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जो जन्म लेता लेता है उसका मरण निश्चित है और यह जीवन की एक अनिवार्य घटना है। मरते समय अपने भावों को सम्हालते हुए, कषाय को भी देह के साथ त्यागना ही सल्लेखना का उद्देश्य है। सल्लेखना के साथ मरण करने वाला शीघ्र ही मोक्ष प्राप्त करता है।
#जय_जिनेन्द्र #Jainism #जिनवाणी एक मुनि सल्लेखना के समय सेव...
सल्लेखना क्या है ?

१. अच्छे प्रकार से काय और कषाय का लेखन करना अर्थात् कृश करना सल्लेखना है।

२. बाहरी शरीर को और भीतरी कषायों के उत्तरोत्तर पुष्ट करने वाले कारणों को घटाते हुए भले प्रकार से लेखन करना अर्थात् कृश करना सल्लेखना है। (स.सि., 7/22/705)
मरण किसी को इष्ट नहीं है। प्रधानमंत्री भी चाहता है कि हमारी सीट पाँच वर्ष तक सुरक्षित रहे, सर्विस करने वाला भी यही चाहता है मेरी सर्विस 60 वर्ष तक चलती रहे। उसी प्रकार संयमी भी चाहता है कि मेरा रत्नत्रय सुरक्षित रहे
किन्तु रत्नत्रय भावों के साथ शरीर का भी साथ चाहता है।
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#जय_जिनेन्द्र #जिनवाणी #Jainism
पूज्य पुरुषों की वंदना-स्तुति हमें पूज्य बनने की प्रेरणा देती है। इतना ही नहीं उनके मार्ग पर चलकर हम उन जैसा भी बन सकते हैं। हमारे आराध्य पूज्य नवदेवता हैं-
अरिहन्त जी
सिद्ध जी
आचार्य जी
उपाध्याय जी
साधु जी
जिन धर्म
जिन अागम
जिन चेत्य
जिन चैत्यालय
धर्म स्थान में जिनका पद महान होता है, जो गुणों में सर्वश्रेष्ठ होते हैं उन्हें परमेष्ठी कहते हैं।

जीव जिस पद में स्थित होकर आत्म - साधना करते हुए अन्तत: मोक्ष-सुख को प्राप्त करते हैं उस पद को परम पद कहा जाता है।

परमेष्ठी ५ हैं  - अरिहंत, सिद्ध, आचार्य उपाध्याय और साधु परमेष्ठी।
अरिहन्त परमेष्ठी का स्वरूप -

जिन्होंने चार घातिया कर्मों को नष्ट कर दिया हैं तथा जो अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत वीर्य, अनंत सुख रूप अनंत चतुष्टय से युक्त हैं। समवशरण में विराजमान होकर दिव्यध्वनि के द्वारा सब जीवों को कल्याणकारी उपदेश देते हैं, वे अरिहंत परमेष्ठी कहलाते हैं।
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