कृष्ण कौन है?
जो कर्म द्वारा मन के, समाज के परिष्करण का मार्ग प्रशस्त करता है वह #कृष्ण है... | संस्कृत की 'कृष' धातु में 'ण' प्रत्यय जोड़ कर 'कृष्ण' बना है जिसका अर्थ आकर्षक व आनंद स्वरूप कृष्ण है।
संसार के इतिहास का सारा आध्यात्मिक व्याख्यान ही भगवान श्री कृष्ण के जीवन में अन्तर्निहित है। यदि वेदव्यास, आदि शंकराचार्य, महर्षि दयानन्द आदि वेदज्ञ ऋषि ज्ञान की परोक्ष संस्कृति के किनारे हैं, यदि श्रीरामचन्द्र भगवान कर्म की किसी अपूर्व धवल जाह्नवी के तट पर हैं, तो
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श्री कृष्ण ज्ञान,कर्म,भक्ति की त्रिवेणी के हृदयंगम प्रयाग-संगम पर खेल रहे हैं। श्री कृष्ण ने संसार नाटक के एक अपूर्व नायक बनकर नाना प्रकार के अभिनय दिखाये हैं। आधुनिक समय में श्री कृष्ण को अनेक प्रकार से कुछ वास्तविक व कुछ काल्पनिक धारणाओं द्वारा जाना जाता हो,किन्तु महाभारतकार
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ने हमें योगेश्वर श्री कृष्ण का जो रूप प्रत्यक्ष कराया है, वह सबका ही पूजनीय है, विश्ववंद्य है, परमोज्जवल, पूर्ण सत्य तथा स्तुत्य है। शील एवं सदाचार के प्रतिमान श्री कृष्ण के संबन्ध में महर्षि दयानंद सरस्वती जी कहते हैं कि "श्री कृष्ण का इतिहास महाभारत में अत्युत्तम है, उनका
गुण-कर्म-स्वभाव चरित्र आप्त पुरुषो के सदृश है। जिसमें कोई अधर्म का आचरण श्री कृष्ण ने जन्म से मरणपर्यंत बुरा काम कुछ भी किया हो ऐसा नहीं है "। वेदव्यास जी महाराज कहते हैं कि “यत्र धर्मः ततो कृष्ण| यत्र कृष्णः ततो जयः|| अर्थात् जहाँ धर्म है वहाँ कृष्ण हैं, और जहाँ कृष्ण हैं+
वहीँ जय है|
भगवान श्री कृष्ण जिन्होंने भारतवर्ष को जरासंध के अत्याचारमूलक साम्राज्य से मुक्त कर, अजातशत्रु युधिष्ठिर के आत्म-निर्णय मूलक आर्यसाम्राज्य के सूत्र मे सूत्रित किया। इन्ही भारतरक्षक ,धर्मउद्धारक-संस्थापक, पापसंहारक श्री कृष्ण की विभूति के समक्ष समस्त भारत ने सर झुकाया
व झुका रहा है।
गीता का उपदेश न सन्यासधर्मी श्रेयार्थी युधिष्ठिर के लिए है, न प्रेयार्थी भीम के लिए, अपितु उस अर्जुन के लिए हुआ जो धर्मसंकट मे पड़ा हुआ आध्यात्ममार्ग का भक्त है। मोहवश स्वधर्म को भूलकर युद्ध से विमुख होते अर्जुन को कर्म मे प्रवृत्त कराना, क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के+
आध्यात्म उपायों से व्यावहारिक राज्य-मार्ग पर आरूढ़ करना किसी योगेश्वर का ही कर्म है।
अर्जुन को आत्मा और शरीर के नित्यानित्य के आध्यात्मवाद की उड़ान में उड़ाकर "स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह" की घोषणा के द्वारा यज्ञार्थ निष्काम कर्म के चतुष्पय पर लाकर भी जब श्रीकृष्णचन्द्र+
सफल न हुये तो विश्वरूप दिखाकर, युक्ति को भक्ति में और तर्कणा को भावना मे बदलकर मोहित करते हैं, कैसी अजब मोहिनी है। जो अर्जुन करुण पुकार कर रहा था, वर 'निमित्तमात्र भव सव्यसाचिन्" के आदेश को शिरोधार्य कर युद्ध के लिए सन्नद्ध होकर स्वयं को श्री कृष्ण के हाथ की यात्रा बना देता है।+
गीता में ज्ञान का कर्म मे विनियोग किया है , कैसा सुंदर दृष्टांत है।
वो धर्म से प्रेम करता था तुम्हें भी धर्म से प्रेम करना होगा| उसने जो शिक्षा दी उसे आत्मसात करना होगा| उसने जो श्रेष्ठ आचरण किए तुम्हें भी वैसा ही आचरण करना होगा। बिना ये किए कृष्ण कभी नहीं मिल सकते......+
योगीराज श्री कृष्णचन्द्र सरकार की जय।
आशा करता हूं लेख आपके लिए उपयोगी सिद्ध होगा।🙏🌹🙏
श्रीकृष्णार्पणमस्तु।🙏🚩🚩
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