भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी इहलौकिक लीला संवरण की। उधर युधिष्ठिर महाराज ने परीक्षित को हस्तिनापुर का राज्य सौंपकर श्रीकृष्ण के प्रपौत्र वज्रनाभ को मथुरा मंडल के राज्य सिंहासन पर प्रतिष्ठित किया। चारों भाइयों सहित युधिष्ठिर स्वयं महाप्रस्थान कर गये।
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ईसवी सन् से पूर्ववर्ती 80-57 के महाक्षत्रप सौदास के समय के एक शिला लेख से ज्ञात होता है कि किसी वसु नामक व्यक्ति ने श्रीकृष्ण जन्मस्थान पर एक मंदिर तोरण द्वार और वेदिका का निर्माण कराया था। यह शिलालेख ब्राह्मी लिपि में है।
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दूसरा मन्दिर विक्रमादित्य के काल में सन् 800 ई॰ के लगभग बनवाया गया था। संस्कृति और कला की दृष्टि से उस समय मथुरा नगरी बड़े उत्कर्ष पर थी। यह मन्दिर सन् 1017-18 ई॰ में महमूद ग़ज़नवी के कोप का भाजन बना।
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संस्कृत के एक शिला लेख से ज्ञात होता है कि महाराजा विजयपाल देव जब मथुरा के शासक थे, तब सन् 1150 ई॰ में जज्ज नामक किसी व्यक्ति ने श्रीकृष्ण जन्मस्थान पर एक नया मन्दिर बनवाया था।इसे भी 16 वीं शताब्दी के आरम्भ में सिकन्दर लोदी के शासन काल में नष्ट कर डाला गया था।
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जहाँगीर के शासन काल में श्रीकृष्ण जन्मस्थान पर पुन: एक नया विशाल मन्दिर निर्माण कराया ओरछा के शासक राजा वीरसिंह जू देव बुन्देला ने इसकी ऊँचाई 250 फीट रखी गई थी। यह आगरा से दिखाई देता बताया जाता है। उस समय इस निर्माण की लागत 33 लाख रुपये आई थी।
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सन 1940 के आसपास की बात है कि महामना पण्डित मदनमोहन जी का भक्ति-विभोर हृदय उपेक्षित श्रीकृष्ण जन्मस्थान के खण्डहरों को देखकर द्रवित हो उठा। उन्होंने इसके पुनरूद्वार का संकल्प लिया।
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कटरा केशवदेव-स्थित श्रीकृष्ण-चबूतरा ही भगवान श्रीकृष्ण की दिव्य प्राक्ट्य-स्थली कहा जाता है। मथुरा-म्यूजियम के क्यूरेटर डा॰ वासुदेवशरण जी अग्रवाल ने अपने लेख में ऐतिहासिक तथ्य देकर इस अभिमत को सिद्ध किया है।
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जिस मन्दिर में आदिकेशव विराजमान हैं, वह मन्दिर 1850 ई॰ में ग्वालियर के कामदार के द्वारा निर्मित हुआ है। प्राचीन विग्रह अद्यापि राजधान ग्राम (ज़िला कानपुर में औरैया, इटावा से 17 मील) पर स्थित है।
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जिस समय चबूतरे पर निर्मित बरामदे की नींव की खुदाई हो रही थी, उस समय श्रमिकों को हथौड़े से चोट मारने पर नीचे कुछ पोली जगह दिखाई दी। उसे जब तोड़ा गया तो सीढ़ियाँ और नीचे काफ़ी बड़ा कमरा-सा मिला, जो ओरछा-नरेश-निर्मित मन्दिर का गर्भ-गृह था।
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