एक बार दीपावली के अवसर पर मुझे एक बुद्ध विहार में आमंत्रित किया गया, इस विषय पर बोलने के लिए कि बौद्धों को दीपावली कैसे मनानी चाहिए? मैंने जो कुछ वहाँ बोला उसका सारांश यह है:
"गण" मायने होता है संघ अथवा समूह या 1)
संगठन। पुराने समय में भारत में, विशेषतः बौद्ध काल में, अधिकांशतः शासन व्यवस्था गणतंत्रात्मक थी। भगवान बुद्ध के समय सोलह प्रसिद्ध गणराज्य थे जिनका कि त्रिपिटक में कई बार वर्णन है। गणाध्यक्ष को गणपति कहा जाता था। जैसे सभा के अध्यक्ष को सभापति कहा जाता है वैसे ही
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इसलिए संघ प्रमुख, संगठन अध्यक्ष, समूह नायक का एक पर्यायवाची गणपति भी है, गणेश भी है, गण नायक भी है। भगवान बुद्ध पावन संघ के अध्यक्ष थे, संघ नायक थे, इसलिए भगवान बुद्ध के लिए गणपति, गणेश, गणनायक सम्बोधन भी प्रयोग किये गये हैं। पालि ग्रंथों में भगवान बुद्ध के अनेक
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सम्बोधनों में एक सम्बोधन गणपति भी है, गणेश भी है और गणनायक भी। तिब्बती व लद्दाखी बौद्ध परम्परा में हाथी के सूड़ वाले गणेश की भी पूजा होती है। लेकिन वह गणेश का आज प्रचलित व स्थापित गणेश से कोई सम्बन्ध नहीं है। वे तिब्बती व लद्दाखी लोग गणेश को भगवान बुद्ध के प्रतीक के
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रूप में पूजते हैं। हाथी महाप्रज्ञा का प्रतीक है। भगवान महाप्रज्ञावान हैं। सम्राट अशोक के द्वारा निर्मित अशोक स्तम्भ में शेर, घोड़ा, बैल के साथ भगवान बुद्ध का एक प्रतीक हाथी भी उत्कीर्णित किया गया है। सम्राट अशोक द्वारा निर्मित स्तम्भों में सिर्फ हाथी वाले स्तम्भ भी हैं,
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जिसमें शीर्ष पर हाथी है। जातक कथाओं में भी भगवान बुद्ध पूर्व भवों में हाथी की योनि में भी रहे हैं। भगवान के परिनिर्वाण के पांच सौ साल तक विहारों में भगवान की प्रतिमाएँ नहीं होती थीं। प्रतीक रूप में हाथी, बैल जिसे अब नन्दी कहते हैं, शेर, घोड़ा, धम्मचक्र, स्वास्तिक अथवा
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श्रीवत्स, चरणचिन्ह तथा उस पर अंकित मंगलचिन्ह इत्यादि होते थे। प्रतिमाओं का प्रचलन पांच सौ साल के बाद शुरू हुआ। रोचक तथ्य यह है कि मूर्ति कला का उद्गम ही बौद्धों ने किया है। यूनानी और भारतीय शैली ने मिलकर मूर्ति कला की
मथुरा शैली को जन्म दिया। तात्पर्य कहने का यह कि बौद्ध
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परम्परा में हाथी का अर्थ भगवान बुद्ध है।
पालि ग्रंथों में भगवान बुद्ध का नाम विनायक भी देखने को मिलता है। विनायक का अर्थ होता है- विनय का नायक। भगवान बुद्ध विनय के नायक हैं, इसलिए विनायक हैं, विनयपिटक के सृजक हैं।
इन सन्दर्भों के देखने के लिए आप सिर्फ मज्झिम निकाय ही
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देख लीजिए, आपको भगवान बुद्ध के लिए गणपति, विनायक दोनों शब्द मिल जाएंगे।
सदियों के अन्तराल ने बहुत कुछ बदल दिया है। शब्द व चित्र अथवा प्रतिमा वही रहे लेकिन अर्थ बदल गये। मूल तक पहुँचो तब तत्वार्थ समझ में आते हैं, भ्रम दूर होते हैं।
फिर प्रश्न उठा कि बौद्धों को दीपवली कैसे
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मनानी चाहिए?
सरल-सी बात तो यह समझ लें कि पारम्परिक दीपावली अमावस्या के दिन पड़ती है। असंशयरूप से अमावस्या, पूर्णिमा, दोनों अष्टमियां, कृष्ण पक्ष की अष्टमी व शुक्लपक्ष की अष्टमी बौद्धों के लिए उपोसथ की तिथियाँ हैं। इस दिन को बौद्ध अपनी ही तरह से मनाएं कि उपोसथ रखें,
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अष्टशील धारण करें और शाम के समय भगवान बुद्ध की प्रतिमा के सम्मुख दीपदान करें। बहिष्कार से नहीं परिष्कार से परम्पराएं पुनर्जीवित होंगी।
एक प्रश्न और उठाया गया कि इस अमावस्या के दिन महामोदगल्यायन की हत्या हुई थी। इसी खुशी में विरोधियों ने दीप जलाए थे। हम क्यों जलाएं,
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शोक क्यों न मनाएं?
मैंने कहा- इतिहास में ज्यादा दूर मत जाइये, अभी हाल की घटना लीजिये। 6 दिसम्बर को आप किस रूप में मनाते हैं?
सबने कहा- बाबा साहेब की पुण्यतिथि के रूप में, परिनिर्वाण दिवस के रूप में।
आप यह भी जानते हैं कि बाबरी मस्जिद ढहाने के उपलक्ष्य में कुछ
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लोग 6 दिसम्बर को शौर्य दिवस के रूप में मनाते हैं। दोनों घटनाओं के बीच 36 साल का अन्तराल है। बाबा साहेब का परिनिर्वाण हुआ है 6 दिसम्बर'1956 को और बाबरी मस्जिद तोड़ी गयी है 6 दिसम्बर'1992 को। इसी को बाबा साहेब ने क्रान्ति-प्रतिक्रान्ति कहा है। अब आप एक ही तिथि को किस
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रूप में मनाते हैं यह आपका चयन है।
अब आप एक बात और बताइये, बाबा साहेब की परिनिर्वाण तिथि 6 दिसम्बर को आप कैसे मनाते हैं? उस दिन आप कैण्डल मार्च निकालते हैं, बुद्ध पूजा करते हैं, संगोष्ठियां आयोजित करते हैं कि मुँह लटका कर बैठ जाते हैं और शोक मनाते हैं? तो अगर आप को
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महामोदगल्यायन की हत्या का शोक भी मनाना है तो ऐसे मनाइये कि वह भी एक घटना बने। शोक तो हमारे मुस्लिम भाई भी मनाते हैं, पूरे ढाई महीना मुहर्रम चलता है। इसके द्वारा वे अपने इतिहास का स्मरण करते हैं और उससे प्रेरणा लेते हैं।
17 सितम्बर को आप क्या मानते हैं?
सबने एक स्वर से
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कहा- उस दिन विश्वकर्मा जयंती होती है, विश्वकर्मा पूजा होती है।
मैंने कहा कि उसी दिन ई. वी. रामास्वामी नायकर का जन्मदिन भी है। क्या आप सबको मालूम है?
सब चुप हो गये। मैंने कहा कि इसी को कहते हैं- इतिहास पर मिथक का हावी होना। इतिहास आप भूल गए और मिथक स्थापित हो गया।
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प्रतिक्रान्ति का उद्देश्य ही यही होता है, मूल इतिहास को ढकना।
तो अब आप दीपावली को पारम्परिक रूप से मनाते हैं या महामोदगल्यायन की हत्या का शोक मनाते हैं अथवा उपोसथ के रूप में मनाते हैं, यह आपके इतिहास बोध पर निर्भर करता है। बाबा साहेब ने पारम्परिक दशहरा को अशोक विजय दशमी
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के रूप में पुनः स्थापित किया कि नहीं? बहिष्कार नहीं उन्होंने परिष्कार किया और इतने विराट रूप में किया कि प्रतिक्रान्ति फीकी पड़ गयी, क्रान्ति पुनः स्थापित हो गयी। मगर है क्या कि परिष्कार के लिए मेहनत करनी पड़ती है, बहिष्कार फोकट में हो जाता है। बहिष्कार सरलतम कामों में से
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एक काम है, बस जुबान ही तो हिलाना है, थोड़ा कलम चला देना है। मगर प्रतिक्रान्ति को क्रान्ति में बदलने के लिए मेहनत करना पड़ेगा। इसलिए काहिल लोग परिष्कार का नहीं बहिष्कार का रास्ता चुनते हैं।
अंततः उस शाम बुद्ध विहार में दीपावली इसी तरह मनायी गयी, भगवान बुद्ध की
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पूजा-वन्दना के रूप में, उपोसथ के रूप में।
विगत वर्ष लखनऊ में ठीक दीपावली के दिन अन्तरराष्ट्रीय त्रिपिटक संगायन का आयोजन करके अपने कथन को व्यवहार में परिणत किया। तेरह देशों के पावन संघ के सान्निध्य में दीपोत्सव मनाया और अगली
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सुबह त्रिपिटक संगायन हुआ। एक अन्तरराष्ट्रीय आयोजन वैश्विक समाचार बना।
डॉ . अल्बर्ट एलिस .
अमेरिकेतील नामांकित मानसोपचारतज्ञ . यांना मानसशास्त्रज्ञ सुद्धा म्हणता येईल . विवेकनिष्ठ मानसोपचार पद्धती (rational emotive behaviour thearapy ) हा त्यांचा मनाच्या जगातील सर्वात महत्वाचा शोध . अनेकांना मानसिक स्थैर्य मिळवून देणाऱ्या या पद्धतीचा शोध 1)
खरंतर त्यांनी स्वतःला स्थिरता मिळवून देण्यासाठी लावला होता . या शोधाची सुरुवात त्यांनी लहानपणीच केली होती . भावनेच्या आहारी न जाता , तर्कसंगत बुद्धी वापरून केलेला विचार मनाला स्थिर करतो हा त्यांचा अनुभव त्यांनी जगाला पटवून दिला . त्यासाठी अनेक उदाहरणे आणि दाखले दिले .
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आणि आयुष्याच्या उत्तरार्धात त्यांच्या कार्याची दखल घेणे सर्व जगाला भाग पडले . त्यांनी मांडलेले काही सिद्धांत सोप्या भाषेत पुढीलप्रमाणे आहेत .
१) माणसाच्या आयुष्यात घडणाऱ्या घटनांवर त्याच्या प्रतिक्रिया आणि कृती अवलंबून नसतात , तर त्या घटनांकडे तो कोणत्या दृष्टीकोनातून बघतो
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नुकतीच नाणेघाटला जाऊन आले होते.त्यासंदर्भात #मर्यादित वाचन केलं होतं.त्यातून हे कळालं की, हा नाणेघाट म्हणजे घाटांचा राजा.हा इसवीसनपूर्व काळात बांधला गेलाय.हे वाचूनच रोमांच उभे राहिले. काय ते कसब? अभियांत्रिकीमधला चमत्कारच.
सातवाहन सम्राज्ञी गौतमीपुत्र 1)
सातकर्णीची पत्नी नागणिका हिचा नाणेघाटातल्या लेणीतला तो प्रख्यात शिलालेख. पहिल्यांदा गेले तेव्हा वेड्यासारखी धावत गेले होते त्या भित्तीकडे. त्या पाषाणातल्या अक्षराईत हरवून गेले होते.मला न समजणाऱ्या ब्राम्ही भाषेतली ती अक्षरं पण विलक्षण प्रेमानं,कदाचित इतिहासाच्या फारसं न 2)
जपता आलेल्या वेडामूळे माझे हात त्या अक्षरांवरनं फिरत होते.नागणिका इथेच असेल का? माझ्या आसपास?माझी ही ओढ बघत असेल का?तिला छान वाटत असेल का आपला शिलालेख असा चिरंजीवी झालेला पाहून? तिचा चुडाभरला अमानवी हात माझ्यासोबतच तीही त्या अक्षरांवरनं फिरवत असेल का? धुक्यासारख्या तरल
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इथल्याच (पनवेल स्टॅंडजवळ) एका छोटेखानी हाॅटेलवाल्याने बाबासाहेबांना पाणी नाकारले त्यावेळी अस्वस्थ झालेले, गरीब मजूर असलेले सोनबा येलवे बाबासाहेबांसाठी पाणी आणायला गेले.
पाणी आणले, तोपर्यंत बाबासाहेब पुढील प्रवासाला निघूनही गेले होते. 1)
बाबासाहेब परत याच मार्गाने येतील तेव्हा त्यांना पाणी मिळायला हवे आणि ते मी देईन या इच्छाशक्तीने ते दरदिवशी पाणी घेऊन येत. परंतु बाबासाहेब परत त्या मार्गाने आले नाहीत.
...आणि वाट पाहून अखेर, इथेच सोनबा येलवेंचा मृत्यू झाला.
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त्यांच्या स्मृतिप्रीत्यर्थ पनवेल महानगरपालिकेने ही पाणपोई बांधली आहे. येणार्या-जाणार्यांना पाणी मिळावे या उदात्त हेतूने.
उशीरा का होईना, बाबासाहेबांच्या प्रेमाखातर त्याग करणारी व्यक्तिमत्त्वं उजेडात येत आहेत.
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मनुस्मृती दहन केल्यानंतर तत्कालीन काही ब्राह्मण्यग्रस्त वृत्तपत्रांनी टीकात्मक लेखन केले. त्यावर बाबासाहेबांनी बहिष्कृत भारत पत्रातून त्यांचा समाचार घेतला. वाचा !
- आनंद गायकवाड
आमच्या मित्रांचा दुसरा असा एक आक्षेप आहे की मनुस्मृती ही जुन्या काळी अंमलांत असलेल्या 1)
नियमांची एक जंत्री आहे. त्या जंत्रीतील नियम आज कोणास लागू नाहीत. मग असले जुने बाड जाळण्यात काय अर्थ आहे ? मनुस्मृती हे एक जुने बाड आहे असे आमच्या मित्राप्रमाणे आम्हासही म्हणता आले असते तर आम्हास मोठाच आनंद झाला असता. परंतु दुर्दैवाने आम्हांस तसे म्हणता येत नाही. आणि आमची
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खात्री आहे की, भावी स्वराज्याचा चंद्रोदय केव्हा होतो हे पाहण्याकरिता, आमच्या मित्रांचे डोळे आकाशाकडे लागले नसते तर आपल्या पायाखाली काय जळते आहे हे त्यांना निरखून पाहताच आले असते. मनुस्मृती हे एक जुने बाड आहे, ते राहिले तरी काही हरकत नाही असा युक्तिवाद करण्याऱ्या गृहस्थांना
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जमालगढी सध्याच्या पाकिस्तानातील खबैर पक्ख्तुन्ख्वामधील मरदानच्या कटलांग मरदान मिर्गापासून १३ किमी अंतरावर हे शहर आहे. जमालगढी येथे प्राचीन स्तूप व विहारांचे अवशेष सापडले आहेत.
जमालगढी येथील स्तूप व विहार १/५ शतकातील भरभराटीचे बौद्ध ठिकाण होते. 1)
जमालगढीचे स्थानीय नाव "जमालगढी कंदारत" किंवा "काफिरो कोटे" असे आहे. जमालगढीच्या भग्नावशेषांचा प्रथम शोध ब्रिटीश पुरात्ववेत्ता व गाढे अभ्यासक अलेक्झांडर कॅनिंगहॅम यांनी इसवी सन १८४८ मध्ये लावला.
कर्नल ल्युम्स्डेन यांनी जमालगढी येथे उत्खनन केले होते पण तेव्हा तेथे विशेष 2)
काही सापडले नाही. नंतर इसवी सन १८७१ मध्ये लेफ्टनंट क्राॅमटन यांनी पुन्हा येथे उत्खनन केले व अनेक बौद्धशिल्पे सापडली आहेत.
चित्र क्रमांक एक जमालगढी, मरदान, पाकिस्तान बौद्ध नगरीचे भग्नावशेष.
चित्र क्रमांक दोन १/३ शतकातील राणी महामायेचे स्वप्न शिल्प जमालगढी, मरदान,
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आम के पेड़ के नीचे ब्राह्मण तुलसीदास रामचरित्रमानस लिख रहे थे. अचानक पेड़ से आम तुलसीदास के सर पर गिरा. तुलसीदास बहुत खुश हुआ, उसने आम को ईश्वर का दिया हुआ उपहार समझकर खा लिया !
मुग़ल राज में गाय कट रही थी, मुग़ल समोसे में गाय का मांस भर भर कर खा रहे थे. 1)
लेकिन तुलसीदास को कोई आपत्ति नही थी, वह मग्न होकर आनंदित होकर, लगा लिखने "ढोल गंवार पशु नारी सकल ताड़ना के अधिकारी" !
किसान का बेटा इसाक न्यूटन सेब के पेड़ के नीचे विज्ञान की पढ़ाई कर रहा था. अचानक से एक सेब न्यूटन के सर पर गिर गया. न्यूटन ने सेब उठाया उसे ध्यान से
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देखने लगे मानो कभी सेब देखा ही नही. लेकिन न्यूटन सेब नही देख रहे थे वह सोच रहे आखिर सेब नीचे क्यों गिरा ?
सेब ऊपर क्यों नही गया... नीचे ही क्यों आया ?. ऊपर चांद है वह क्यों नही गिरता. धरती में जरूर कोई फ़ोर्स है. ताक़त है जो चीजों को अपनी ओर आकर्षित करती है !
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