शक्ति का केन्द्रीकरण मानव की प्रवृति है। ये प्रवृति लालच से उत्पन्न होती है और अहंकार से पोषित होती है। जैसे जैसे व्यक्ति के पास शक्ति आती जाती है वो शक्ति का उतना ही ज्यादा भूखा हो जाता है। इसका सीधा उदाहरण भारतीय लोकतंत्र में देखने को मिल जाता है।
भारतीय लोकतंत्र के तीन स्तंभ हैं १.विधेयिका २.कार्यपालिका ३. न्यायपालिका। पॉलिटी की क्लास में घोंट घोंट के रटाया जाता है कि इन तीनों स्तम्भों में "बैलेंस ऑफ़ पावर" यानि शक्ति का संतुलन होता है।
लेकिन मेरा भ्रम तभी टूट गया जब मैंने संविधान में, संशोधन करके, सर्वोच्च न्यायालय के आदेश को ताक पे रख के जबरदस्ती घुसेड़ी गयी नवीं अनुसूची के बारे में पढ़ा। नवीं अनुसूची के मुद्दों में सुप्रीम कोर्ट का टाँग अड़ाना मना है।
दुसरे शब्दों में कहें तो न्याय के पहलू को ताक पे रख कर वोटबैंक को पोषित करने का जरिया है नवीं अनुसूची। नेताओं को असीम शक्ति देती है नवीं अनुसूची। कार्यपालिका के मुखिया यानि मंत्रीगण भी न्यायपालिका के ही सदस्य होते हैं।
कुलमिलाकर भारतीय लोकतंत्र का बैलेंस ऑफ़ पावर सिर्फ एक छद्मावरण है। वैसेतो किताबें येभी कहती हैं कि नेता को जनता चुनती है इसलिए जनता सर्वशक्तिशाली है। लेकिन हिन्दू-मुस्लिम, सवर्ण-दलित, मुफ्त बिजली-पानी, मुफ्त लैपटॉप-टीवी से खरीदी जा सकने वाली जनता नेताओं केलिए सिर्फ एक वोटबैंक है।
निष्कर्ष यह है कि भारत में नेता ही सबसे ज्यादा शक्तिशाली प्राणी है। और आप अगर स्वतंत्र भारत का इतिहास उठा के देखेंगे तो पाएंगे कि नेताओं की शक्ति और संपत्ति अद्भुत तरीके से बढ़ी है। इस शक्ति संवर्धन में तकनीक का काफी बड़ा हाथ है।
जब मोबाइल का जमाना नहीं था तब "मैन ऑन दी स्पॉट" यानि स्थानीय अधिकारी के पास काफी शक्ति हुआ करती थी। चाहे वो कलेक्टर हो या बैंक मैनेजर। अधिकारी स्थिति के हिसाब से जमीनी हकीकत के अनुरूप निर्णय लेने में सक्षम थे। कुछ ने इसका सही उपयोग किया और बहुत सारों ने दुरूपयोग।
नेताओं ने सोचा की जब दुरूपयोग ही करना है तो नीचे का अधिकारी क्यों करे, हम खुद क्यों न करें? जब से मोबाइल और इंटरनेट आया है तब से नेताओं ने सारी शक्ति सोख ली है। कहीं भी दंगे हों, कलेक्टर खुद से कोई निर्णय ले उससे पहले नेता का फ़ोन आ जायेगा।
नेताओं को छोड़ के देश का हर तबका दुखी है। बैंकों में तो और भी बुरा हाल है। पहले मैनेजर स्वविवेक से लोन बांटता था। फिर ये पावर प्रोसेसिंग सेंटर के नाम पे उच्चाधिकारियों ने ले ली। तब तक तो फिर भी ठीक था क्यूंकि शक्ति अभी भी बैंक के पास ही थी।
बैंक जानता है की उसके पास जो पैसा है वो पब्लिक के विश्वास का है, हराम का नहीं। लेकिन पिछले कुछ सालों से नेताओं की नजर बैंकों के पैसे पे पड़ गयी है। बैंकों के पास जमा पैसे को देख के नेताओं की लार टपकने लगी है। ऐसी लार हर्षद मेहता की भी टपकी थी।
उसने बैंकों का पैसा शेयर मार्किट में लगाया था। मार्किट में जबरदस्त उछाल आया। उसने खूब पैसा पीटा। इस सरकार की भी मंशा कुछ ऐसी ही है। भाड़े पे उठाये गए सलाहकारों की गोबर-सलाहों से बनायीं गयी ऊल-जलूल योजनाओं में देश के टैक्सपेयर का सारा पैसा फूंकने के बाद सरकार कंगली हो चुकी है।
एक दो को छोड़कर बाकी सारी योजनाएं सिरे से विफल रहीं। और जो एक दो सफल हुईं वो भी बैंकरों की बदौलत। और विफल होती भी क्यों न? योजनाओं का लक्ष्य अगर देश का विकास करना होता तो वे सफल होती न। यहां तो केवल लोगों की आखों में धूल झोंकनी थी। वोट बैंक को खुश रखना था।
एक के बाद एक हड़बड़ी में तैयार की हुई कई सारी योजनाएं देश पर थोप दी गयी। और डंडे के जोर पर लागू की गयी। ऐसी ही एक योजना है Digitization। आनन्-फानन में Digitization लागू कर दिया गया। न कोई पूर्व तैयारी, न कोई सोच विचार, न ग्राउंड रियलिटी का पता। बस लागू कर दो।
अब Digitization के लिए सामान चाहिए, स्टाफ चाहिए। देश में कुछ बनता नहीं, और अब बनाने का समय भी नहीं। सारी बायोमेट्रिक डिवाइसेस चीन से मंगवाई गयी। बहुत से सॉफ्टवेयर भी चीन से मंगवाए गए। भारत सरकार की मूर्खता को चीन ने जम के भुनाया।
पहले से ही डांवाडोल अर्थव्यस्था पर चीन ने कोरोना के रूप में भरपूर प्रहार किया। फलस्वरूप देश की सरकार कंगाल हो गयी है। लेकिन अगर देश की जनता को पता चल गया कि हम कंगाल हो गए हैं तो फिर चुनाव कैसे जीतेंगे। इसलिए २० लाख करोड़ का झुनझुना बजाया गया।
किसी ने नहीं पूछा कि कंगाल सरकार के पास इतना पैसा आएगा कहाँ से। अब समझ आ रहा हैं कि सरकार की नजर बैंकों के पैसे पे हैं। अब सरकारी योजनाओं में बैंकों का पैसा लगेगा। कुछ गड़बड़ हुई तो ठीकरा बैंकों के सर और किस्मत से सफल हुए (जिसकी कि उम्मीद न के बराबर हैं) तो सरकार की वाहवाही।
वोट बैंक के पोषण के लिए जनता की मेहनत की कमाई से बचा के जमा किये हुए पैसे की आहुति दी जायेगी। देश की इकॉनमी का उत्थान अब बैंकों के पैसे से, बैंकों के दम पर होगा। यही तो हर्षद मेहता कर रहा था। अब सरकार सीधे सीधे तो बैंकों का पैसा हड़प नहीं सकती।
इसलिए पहले बैंकों की लोन बांटने की शक्ति छीनी। अब सरकार तय करती है कि लोन किसे बाँटना है। अब बैंक का पैसा वोट बैंक बनाने के काम आ रहा है। पुरानी यारियां निभाने के काम आ रहा है। दान के नाम पर किये गए एहसान चुकाने के काम आ रहा है। बस जिस काम आना चाहिए उस काम नहीं आ रहा है।
हर्षद मेहता तो बेचारा पकड़ा गया और जेल में ही मर गया। एक बैंक के चेयरमैन ने सुसाइड कर लिया। पैसा डूबा पब्लिक का। इस बार भी कुछ ऐसा ही होगा। अब चूंकि सरकार को जेल में डाल सकते इसलिए बैंकों की पाली चढ़ेगी। घाटे के नाम पर सरकारी बैंक बेच दिए जाएंगे।
सुसाइड इस बार भी बैंकर ही करेगा। और पैसा तो पब्लिक का डूबना ही है।
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थ्रेड: #बेगानी_शादी
नौकरीपेशा आदमी के लिए जिंदगी की हर चीज मुसीबत की तरह ही लगती है। फलाने की शादी है। ज्यादा करीब हुआ तो छुट्टी लेनी पड़ेगी, नहीं तो ऑफिस से जल्दी निकलकर शादी में जाना पड़ेगा। अगर फैमिली रिलेशन है तो वाइफ को भी साथ ले जाना पड़ेगा।
नहीं तो कोशिश तो अकेले ही अटेंडेंस लगाने की रहती है। आठ बजे ऑफिस से छूटो, फिर शादी में जाओ। लिफाफा भी तो देना है। घर पहुँचते पहुँचते 11 बज जाते हैं। त्यौहारों का तो और भी बुरा हाल है। एक दिन की छुट्टी में क्या त्यौहार मनाये आदमी।
दिवाली पे अक्सर एक दिन की छुट्टी आती है। कई जगह दो दिन की और कई जगह तो कोई छुट्टी ही नहीं। एक दिन की छुट्टी में क्या दिवाली मनाये आदमी?
थ्रेड: #हंस_चला_बगुले_की_चाल
भारत एक मानसून आधारित देश हैं जहाँ साल में एक तिहाई समय मानसून का होता है। मानसून में जबरदस्त बरसात होती है। साल भर के हिस्से की बरसात चार महीनों में ही हो जाती है। बाकी समय लगभग सूखा ही रहता है।
यहाँ के मानसून को समझना विदेशियों के लिए हमेशा से एक टेढ़ी खीर ही रहा। विशेषकर अंग्रेज तो मानसून से इतने परेशान थे कि भारत की कृषि व्यवस्था की रीढ़ तोड़कर ही माने। लेकिन भारतीयों के लिए मानसून जीवनशैली का एक अभिन्न अंग था। हमारी जीवनशैली मानसून के हिसाब से ढली हुई थी।
मानसून के "चौमासे" में न तीर्थ यात्रा होती थी और ना ही शुभ कार्य जैसे विवाह इत्यादि। इन चार महीनों में हो देवताओं से सोने की परंपरा शुरू हुई थी वो आज भी जारी है। राम ने भी लंका पर चढ़ाई चार महीने के लिए रोकी थी और मानसून के दौरान माल्यवान पर्वत पर इंतज़ार किया था।
थ्रेड: #अंधी_पीसे_कुत्ता_खाय
भूखी जनता राजा के पास पहुंची: महाराज!!! विदेशी सब लूट के ले गए। खाने को कुछ नहीं है। कुछ कीजिये।
राजा (मंत्रियों से): सबके भोजन का इंतज़ाम करो। और सबको अन्न उगाने के लिए पर्याप्त भूमि, बीज खाद दो ताकि भविष्य में कोई भूखा न रहे।
कुछ समय बाद राज्य के सभी धनी व्यापारी राजा के पास पहुंचे: महाराज!!! हम तो बर्बाद हो गए।
राजा: क्या हुआ?
व्यापारी: महाराज!!! लोग खुद ही अन्न उगा रहे हैं और खा रहे हैं। साथ ही बुरे समय के लिए अन्न बचा भी रहे हैं। लोग आत्मनिर्भर हो रहे हैं। हमारी किसी को जरूरत ही नहीं।
फिर हमारा क्या होगा?
राजा: तो मैं क्या करूँ? जनता को अन्न उगाने से तो नहीं रोक सकता।
व्यापारी: लेकिन अन्न बचाने से तो रोक सकते हैं। ताकि हमारी भी दुकान चल सके। याद रखिये की आपका सिंहासन रथ वगैरह सब हमने ही स्पांसर किया हुआ है।
तो हुआ यूं कि पिछले महीने हमारी मोबाइल फ़ोन की एलिजिबिलिटी रिन्यू हुई। और हमारा फ़ोन भी काफी पुराना हो चुका था। छः साल से एक ही फ़ोन को चला रहे थे। हमारे फ़ोन को लोग ऐसे नजरों से देखते थे
जैसे कि हड़प्पा की खुदाई से निकला हुआ कोई नमूना देख लिया हो। लेकिन हम भी उस पुराने फ़ोन को घूंघट के ऑउटडेटेड रिवाज़ की तरह चलाये जा रहे थे। लेकिन समस्या तब हुई जब मोबाइल बैंकिंग के एप्प ने एंड्राइड 8 को ब्रिटिशराज घोषित करके आज़ादी की मांग कर दी।
अब तो हमें नया फ़ोन चाहिए ही था। अब चूंकि हम मोबाइल की दुनिया में चल रही क्रांति से नावाक़िफ़ थे इसलिए हमने यूट्यूब का रुख किया। वहां हमको अलग ही लेवल की भसड़ मिली। उनके बारे में बाद में बात करेंगे।
नोटबंदी जैसी तुग़लकी स्कीम जिससे सिर्फ एक पार्टी और चंद पूंजीपतियों को हुआ, लेकिन पूरा देश एक एक पैसे के लिए तरस गया, धंधे बर्बाद हो गए, बैंकरों ने अपनी जान खपा दी, दिन रात पत्थरबाजी झेली, रोज गालियां खाई,
साहब के कपड़ों की तरह दिन में कई कई बार बदले नियमों को झेला, नुक्सान की भरपाई जेब से करी। और जैसा कि होना था, भारी मीडिया मैनेजमेंट और ट्रोल्स की फ़ौज के बावजूद नोटबंदी फेल साबित हुई।
जब नोटबंदी फेल हुई थी तो बड़ी बेशर्मी से इन लोगों ने नोटबंदी की विफलता का ठीकरा बैंकों के माथे फोड़ दिया।
"अजी वो तो बैंक वाले ही भ्रष्ट हैं वरना जिल्लेइलाही ने तो ऐसे स्कीम चलाई थी कि देश से अपराध ख़त्म ही हो जाना था।"
थ्रेड: #ड्यू_डिलिजेंस
बैंक में ड्यू डिलिजेंस बहुत जरूरी चीज है। बिना ड्यू डिलिजेंस के हम लोन देना तो दूर की बात है कस्टमर का करंट खाता तक नहीं खोलते।
लोन देने से पहले पचास सवाल पूछते हैं। पुराना रिकॉर्ड चेक करते हैं। चेक बाउंस हिस्ट्री चेक करते हैं।
और लोन देने के बाद भी उसकी जान नहीं छोड़ते। किसी कस्टमर के खाते में अगर एक महीने किश्त ना आये तो उसकी CIBIL खराब हो जाती है। और तीन महीने किश्त न आये तो खाता ही NPA हो जाता है और फिर उसे कोई लोन नहीं देता। #12thBPS
अगर डॉक्यूमेंट देने में या और कोई कम्प्लाइंस में ढील बरते तो बैंक पीनल इंटरेस्ट चार्ज भी करते हैं। लेकिन बैंकों का ये ड्यू डिलिजेंस केवल कस्टमर के लिए ही है। पिछले 56 सालों से बैंकरों का अपना रीपेमेंट टाइम पर नहीं आ रहा। हर पांच साल में बैंकरों का वेज रिवीजन ड्यू हो जाता है।