लोकमान्य के पुत्र श्रीधर तिलक जातिवाद के ख़िलाफ़ लिखते रहे। ज्योतिबा फुले की तारीफ़ की और अम्बेडकर के साथ उनके मित्रतापूर्ण सम्बन्ध थे। डॉ अम्बेडकर ने कहा था - असली लोकमान्य तो श्रीधर हैं। हालत यह कि तिलकपंथियों ने केसरी में उनके लिखने पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। 1/n
8 अप्रैल 1921 को जब उन्होंने ‘समता संघ’ की स्थापना की तो मुख्य अतिथि थे अम्बेडकर। इसमें सहभोजन का कार्यक्रम किया गया। उन्होंने सहभोजन उत्सव ‘अस्पृश्य मेला’ आयोजित किया। इसमें विघ्न पहुँचाए गए। मारपीट की नौबत आई लेकिन वह झुके नहीं। 2/n
फिर तिलक की मृत्यु के बाद केसरी के अधिकार को लेकर तिलकपंथियों ने उन्हें कोर्ट-कचहरी में घसीटा। आर्थिक संकट बढ़ते गए और मानसिक भी। परेशान होकर श्रीधर ने बम्बई में एक ट्रेन के आगे छलांग लगाकर आत्महत्या कर ली। 3/n
मरने से पहले श्रीधर तिलक ने प्रबोधनकार ठाकरे और अम्बेडकर को ख़त लिखे थे जिनमें अगले जन्म में किसी दलित के यहाँ पैदा होकर संघर्ष जारी रखने की ख़्वाहिश ज़ाहिर की थी। अम्बेडकर ने इन्हें जलगाँव अधिवेशन में श्रद्धांजलि दी थी और एक सम्पादकीय भी लिखा था। n/n
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व्हाइट हाउस मीटिंग्स के बाद से ही 'एक्सपर्ट्स' काफ़ी उत्तेजित हैं। कुछ टीवी चैनलों के पत्रकारों का तो लगता है कि बस मौक़ा मिले तो माइक लेकर इज़रायल के बाद यूक्रेन की तरफ़ से लड़ने चले जाएँ।
कोशिश है पूरा खेल थोड़ा विस्तार से बताने की। धीरज से पढिए अगर मन हो तो (1/n)
हुआ क्या था? (2/n)
व्हाइट हाउस में लगभग 45 मिनट की बातचीत के बाद जे. डी. वेंस ने पूछा कि यूक्रेन अमेरिकी करदाताओं के अरबों डॉलर की सहायता के लिए अमेरिका का धन्यवाद क्यों नहीं कर रहा?
अमेरिका का धन्यवाद करने के बजाय, ज़ेलेंस्की ने तीखी प्रतिक्रिया दी—चेतावनी देते हुए कि अमेरिका "समझ नहीं रहा कि आगे क्या होने वाला है।"
इसी पर डोनाल्ड ट्रंप ने उन्हें करारा जवाब दिया: "इस समय आपके पास कार्ड्स नहीं है।"
क्या ट्रम्प सही थे? (3/n )
ज़ेलेंस्की के पास कभी भी ताकत नहीं थी। उन्हें पश्चिमी धन, हथियारों और प्रचार ने ताक़त दी है।
अब, जब यूक्रेन न सिर्फ प्रचार युद्ध बल्कि असली युद्ध भी हार रहा है, ज़ेलेंस्की घबराए हुए हैं। यूक्रेन इस युद्ध में कभी स्वतंत्र खिलाड़ी नहीं था। असली शक्ति वॉशिंगटन, ब्रसेल्स और लंदन में बैठी है, जो अपने भू-राजनीतिक खेल खेल रहे हैं।
जम्मू में एक इलाक़ा है RS पुरा। वह भी पूरी तरह रेलवे की ज़मीन पर बसा है। क़िस्सा रोचक है, थ्रेड पढ़िए।
•1897 में वहाँ पहली रेल लाइन बनी। जम्मू से सियालकोट 43 किलोमीटर।
विभाजन हुआ तो रूट आधा भारत में आधा पाकिस्तान में चला गया।
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पाकिस्तान की तरफ़ तो ट्रैक चालू रखा गया। लेकिन भारत की तरफ़ इस स्टेशन का प्रयोग ख़त्म हो गया।
पुँछ से रिफ़्यूजी आये तो आर एस पुरा में रेलवे की ज़मीन पर बस गये। तबसे आज तक बसे हुए हैं। लोगों को ज़मीन एलॉट हुई, लेकिन रेलवे का क़ब्ज़ा फिर भी नहीं छोड़ा।
[बेकार पड़ा स्टेशन] +
+ रेलवे के क़रीब लगभग 40 किलोमीटर तक की ज़मीन पर 120 फुट चौड़ाई में शरणार्थियों का अवैध क़ब्ज़ा है।
लेकिन भाजपा और उसके सरकारी पत्रकार एक शब्द नहीं बोलेंगे क्योंकि वो उनका वोट बैंक हैं।
हल्द्वानी से दिक़्क़त इसलिए है कि वहाँ हिंदू मुसलमान दोनों हैं और भाजपा को वोट नहीं मिलता।
जब संविधान सभा में 370 (तब 306-ए) पास हुई तो श्यामाप्रसाद मुखर्जी मंत्रिमंडल में थे। विरोध बस मौलाना हसरत मोहानी ने किया, मुखर्जी कुछ नहीं बोले। पटेल भी नहीं। पटेल के ख़ास आयंगर साहब ने मौलाना से कहा कि 370 तोड़ने वाली नहीं जोड़ने वाली धारा है।
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जब पाकिस्तान से सीज़ फ़ायर हुआ और सीज़ फ़ायर रेखा बनी (यही शिमला समझौते के बाद नियंत्रण रेखा कहलाई) तो भी मुखर्जी और पटेल मंत्रिमंडल में थे। किसी ने विरोध नहीं किया। पटेल उसके ठीक पहले अयंगर को पत्र में लिख रहे थे कि युद्ध का ख़र्च उठाना मुश्किल हो रहा है। ख़ज़ाना ख़ाली हो रहा।
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जब मामला यू एन में गया तब भी मुखर्जी साहब और पटेल साहब मंत्रिमंडल में थे। कोई विरोध नहीं हुआ। तथागत रॉय (त्रिपुरा के राज्यपाल) ने मुखर्जी की जीवनी में उन्हें यू एन वाले निर्णय पर चुप्पी को जस्टिफाई करते कोट किया है।
इतना याद रखिए, देवता कोई नहीं होता। न नेहरू न सुभाष न कोई और।
द्वितीय विश्वयुद्ध में हिटलर के साथ जाना सही निर्णय तो नहीं ही था। रेकर्ड्स बताते हैं कि हिटलर कभी भारत की आज़ादी के पक्ष में नहीं रहा। जो योरप के देशों को ग़ुलाम बना रहा था, वह भारत को क्या आज़ाद कराता?
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कांग्रेस अध्यक्ष रहते बिना साथियों को भरोसे में लिए नेताजी की जर्मनी और जापान के प्रतिनिधियों से मुलाक़ात एक राजनैतिक चूक थी।
पर्ल हार्बर जैसी घटनाएँ हों या दूसरी जगहों पर जापान का व्यवहार, भरोसा करना मुश्किल है कि जापान या जर्मनी हमारे मुक्तिदाता होते।
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कांग्रेस में वह वामपंथ के पक्ष में लड़ रहे थे, बाहर फासीवाद से समझौता कर रहे थे। आज़ादी की तड़प के बावजूद यह नीति कैसे सही थी? इसका विरोध करने वाले पटेल या नेहरू विलेन क्यों माने जाएँ?
देखें तो वक़्त ने उनका निर्णय ग़लत ही साबित किया। अगर भारत हिटलर के साथ जाता तो क्या मिलता?
अक्सर कहा जाता है कि जहाँ मुस्लिम बहुसंख्य हैं वहाँ लोकतंत्र नहीं। इस थ्रेड में कुछ उदाहरण पढ़िए
1/n *अजरबैजान की कुल आबादी में 8,6,75,000 (92.2%) मुस्लिम है। अजरबैजान एक धर्मनिरपेक्ष (Secular State) देश है। संदर्भ के लिए उनके संविधान के अनुच्छेद 48 को देखें।
*अल्बानिया की कुल आबादी में 2,5,22,000 (79.9%) मुस्लिम हैं और वह आज एक सेक्युलर देश है। लोग अपने धार्मिक विश्वास करने या ना करने और अपने धार्मिक विश्वास को बदलने के लिए स्वतंत्र हैं।
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*बुर्कीना फासो की कुल आबादी में 9,29,2000 (59.0%) मुस्लिम हैं। उनके संविधान के अनुच्छेद 31 में कहा गया है कि “बुर्किना फ़ासो एक लोकतांत्रिक, एकात्मक और धर्मनिरपेक्ष राज्य है।