ये एक ऐसा खेल है जो विश्व की महाशक्तियों के बीच हमेशा से चलता आया है और चलता रहेगा।
ये खेल पौराणिक युग में भी चला था जिसे हम देवासुर संग्राम के नाम से जानते हैं और वजह थी वही जो आज है- संसाधनों पर कब्जा।
लेकिन भली प्रकार ज्ञात ऐतिहासिक युग में इस खेल की शुरूआत हुई थी #प्रथम शताब्दी ईसवी में।
खिलाड़ी थे- भारत के कुषाण, चीन के हान, ईरान के पार्थियन और यूरोप के रोमन्स।
ट्रॉफी: अफगानिस्तान का रेशम मार्ग या सिल्क रुट
परिणाम:- कनिष्क ने चीन को बुरी तरह पराजित कर ताशकंद व समरकंद तक अधिकार जमाया। दुनियाँ की इकोनॉमी पर भारत का एकाधिकार।
#दूसरे ग्रेट गेम की शुरूआत हुई चौथी शताब्दी ई में
खिलाड़ी थे- भारत के गुप्त सम्राट और ईरान के सासानिद सम्राट
ट्रॉफी:- रेशम मार्ग
परिणाम:-मध्यएशिया पर भारत का सैन्य व सांस्कृतिक प्रभाव तथा सिल्क रुट पर कब्जा। दुनियाँ की इकोनॉमी पर 35 से 40%अधिकार।
---- #तीसरे ग्रेट गेम की शुरूआत हुई पंद्रहवीं शताब्दी में
खिलाड़ी थे-ब्रिटेन,स्पेन,हॉलैंड,पुर्तगाल,फ्रांस
ट्रॉफी: हिंद महासागर और भारत
परिणाम: ब्रिटेन का भारत के माध्यम से दुनियाँ के सारे व्यापार पर नियंत्रण और अमेरिका व ऑस्ट्रेलिया ब्रिटिश उपनिवेश।
#चौथे ग्रेट गेम की शुरूआत हुई औद्योगिक क्रांति के परिणामों में एडम स्मिथ के मुक्त व्यापार की विचारधारा के मिश्रण ने। इसके परिणाम में अधिकाधिक उत्पादन और उसे खपाने के लिये निरंतर क्रयशक्ति उपलब्ध कराने की कोशिश ने जिस उपभोक्तावाद को जन्म दिया
उसने प्रकृति व मानव सभ्यता के बीच के संतुलन को तोड़ दिया।
सारे राष्ट्र अब एक ही अंधी दौड़ में थे- "अधिकाधिक उत्पादन औऱ उसे खपाने के लिये देश विदेश की जनता की क्रयशक्ति में निरंतर वृद्धि" जिसके कारण अर्थव्यवस्था का वैश्वीकरण हुआ व
विश्व 'मंदी' के रूप में एक नये आर्थिक कारक से परिचित हुआ जो राजनैतिक व सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन का 'डरावना शब्द' बन गया। #खिलाड़ी: ग्लोबलाइजेशन व तकनीक के कारण इस खेल में खिलाड़ी अब तक बदलते रहे हैं
लेकिन वर्तमान ग्रेट गेम के पूर्वार्द्ध दौर के खिलाड़ी थे - अमेरिका और सोवियत संघ
मैदान था अफगानिस्तान
परिणाम था सोवियतसंघ का पतन जिसके बाद कुछ समय तक अमेरिका ने विजेता का आनंद भी उठाया लेकिन उत्तरार्द्ध में इस खेल को एक नये खिलाड़ी ने फिर से शुरू कर दिया।
इस चौथे ग्रेट गेम केउत्तरार्द्ध की शुरूआत हुई थी आधुनिक युग में विदेशनीति के चाणक्य कहे जाने वाले अमेरिकी डिप्लोमेट हेनरी किसिंजर की एक भयंकर भूल से। जी हाँ, जो व्यक्ति जीवन में कभी गलती नहीं करता वो प्रायः अंत में एक भीषण गलती अवश्य करता है
और यही गलती की थी किसिंजर ने।
सोवियत संघ को मिटाने की धुन में किसिंजर ने 1972 में बीजिंग की गुप्त यात्रा की और चीन को सोवियत पाले से अलग कर दिया। साम्यवादी जगत दो हिस्सों में बंट गया।
किसिंजर की हार्दिक इच्छा पूरी हुई।
पूर्वी यूरोप ही नहीं बल्कि सोवियत संघ से भी साम्यवाद खत्म हो गया।
लेकिन किसिंजर और अमेरिकी थिंक टैंक चीनी चरित्र को पढ़ने में चूक गये। वे भूल गये कि चीनी दुनियाँ की सबसे मौकापरस्त जाति है और 'हान राष्ट्रवाद' के लिये कम्युनिज्म के सिद्धांत
उसकी 'हान राष्ट्रीयता' के आर्थिक विकास का उपकरण भर थे।
अमेरिकियों ने चीन के संदर्भ में नेपोलियन व स्वामी विवेकानंद की चेतावनियों को नजरअंदाज कर दिया और लगभग मृतप्रायः कम्यूनिस्ट दैत्य को जल्दी समाप्त करने चक्कर में दुनियाँ के सबसे खतरनाक पिशाच के मुँह में
'तकनीक व पूंजी' का अमृत टपका दिया और यहीं से चीन एक खिलाड़ी के रूप में उभरना शुरू हुआ जिससे अमेरिका का जीता हुआ मैच फिर से शुरू हो गया।
चीनियों ने सोवियतसंघ से परमाणु बम और मिसाइल टैक्नोलॉजी हथिया ली और
पूंजी प्राप्त करना शुरू किया अमेरिका व पश्चिम के पूंजीवादी राष्ट्र समूहों से।
इधर अमेरिका पहले 'सोवियत संघ' फिर, 'मध्यपूर्व' और फिर 'इस्लामिक आतंकवाद' में उलझा रहा और उधर अपने 'कोकून' में चीनी पिशाच विकसित होता रहा।
तंग श्याओ फंग ने चीन को समृद्ध बनाने की नींव रखी लेकिन जैसा कि उपभोक्तावाद की नियति है चीनी कम्यूनिस्ट पार्टी भी एक कारपोरेट समूह बनकर विश्व के पश्चिमी व यहूदी कारपोरेटर्स समूह के बीच विश्व पर नियंत्रण के लिये खूनी दौड़ में शामिल हो गयी।
चीन और कुछ नहीं बल्कि कम्यूनिस्ट पार्टी के बिलेनियर, ट्रिलेनियर पूंजीपतियों का एक ऐसा गिरोह है जिसके पास फैक्ट्रियों के लिये अपार भूमि, 150 करोड़ निरीह बंधुआ मजदूर, विश्व की सबसे बड़ी सेना और भयानक तकनीक है।
कभी अगर किसिंजर की डायरी खुली तो वर्तमान चीन के लिए ये शब्द जरूर लिखे मिलेंगे,
"ओह गॉड, ये मैंने क्या कर डाला।"
लेकिन फिर भी ईश्वर ने मानो किसिंजर की सुन ली हो, एक और पहलवान ने इस खेल में घुसना शुरू किया।
9/11 से पहले भारत ग्रेट गेम में नहीं था लेकिन स्व. नरसिम्हाराव के सुधारों, स्व.अटलजी के परमाणु विस्फोट व कारगिल के सैन्य प्रदर्शन, ताजिकिस्तान में एयर बेस व नॉर्दर्न एलायंस के माध्यम से अफगानिस्तान में उसके अप्रत्यक्ष हस्तक्षेप और
उनके द्वारा चीन के 'स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स' के जवाब में 'नेकलेस ऑफ डायमंड्स' की स्थापना ने अमेरिकी थिंक टैंक का ध्यान अपनी ओर खींचा और उन्होंने इस खेल में भारत द्वारा घुसेड़ी टांग को स्वीकार कर लिया।
दुर्भाग्य से नौ वर्षों के मनमोहन के ने भारत को अंदर से खोखला कर दिया लेकिन हिंदुओं के इस राष्ट्र के सौभाग्य से उन्हें नरेंद्र दामोदरदास मोदी के रूप में एक अद्भुत राजनेता मिला जिसने एक वर्ष में ही सारे वैश्विक समीकरण उलट पुलटकर रख दिये।
2019 में वृद्ध हेनरी किसिंजर ने मोदीजी से मुलाकात की। किसिंजर जो कि मनोवैज्ञानिक और व्यक्तियों को पढ़ने में माहिर रहे, अपनी भूल का परिमार्जन किया।
भारत अब अपनी एक टांग के साथ नहीं बल्कि हाथ, पैर और सिर के साथ समूचे रूप में एक प्रतियोगी स्वीकार किया जा चुका था और
यही अमेरिका को चाहिए था क्योंकि एशिया में चीन को चुनौती देने की सामर्थ्य वर्तमान में और किसी की नहीं।
तकनीक पश्चिम की, बाहुबल भारत की सेनाओं का।
ग्रेट गेम के खिलाड़ी दुबारा निश्चित किये गये।
#वर्तमान_खिलाड़ी:- अमेरिका, रूस, चीन और भारत
खेल का मैदान:- पीओके, बलूचिस्तान और हिंद महासागर
ट्रॉफी:- मध्य एशिया व हिंद महासागर पर नियंत्रण
समीकरण- वर्तमान में प्रमुख खिलाड़ियों के समीकरण बहुत उलझे हुये हैं।
ईरान यों तो कोई विशेष शक्ति नहीं लेकिन उसकी भोगौलिक स्थिति बहुत महत्वपूर्ण है और चूंकि पीओके से ही 'सीपैक' के माध्यम से व्यापार व सैन्य सप्लाई सुरक्षित हो सकती है अतः पीओके में शामिल गिलगित व बाल्टिस्तान के रूप में सीपैक की पूंछ और
बलूचिस्तान के रूप में इसका मुँह इस ग्रेट गेम के मैदान बन गए हैं।
यही कारण है कि अमेरिका ने सऊदी गट के अरब देशों से इजरायल से राजनयिक संबंध स्थापित करवाये हैं,
क्या चीन के पास कोई रहस्यमय हथियार आ गया है?
क्या यह कोई जैविक हथियार है जैसा कि शी जिन पिंग ने धमकी देते
हुए कहा था कि यह तो कोरोना की सिर्फ पहली लहर है।
WHO से चीन की साठगांठ के स्पष्ट हो जाने से यह तो अब पूरी तरह स्पष्ट हो चुका है कि कोरोना का निर्माण व प्रसार पूरे उद्देश्यपूर्वक वुहान की लैबोरेटरी से हुआ है ताकि विश्व की अर्थव्यवस्थाओं को पूरी तरह चीनी कारपोरेट
अपने कब्जे में ले सके लेकिन भारत के संदर्भ में वह आकलन में चूक कर बैठा और यहाँ वह स्वयं ही मोदी के बिछाए जाल में फंस गया।
लद्दाख प्रकरण में चीन को सेर का सवासेर जवाब देकर एक ओर तो उसके सैनिकों की कॉम्बेट पॉवर की कलई पूरे विश्व के सामने खोल दी
वहीं दूसरी ओर भारतीय अर्थव्यवस्था के शरीर पर चिपकी चीनी कंपनी रूपी जोंकों को इस प्रकरण के बहाने से नोंच फैंका।
अब शी जिन पिंग एक ऐसे पहलवान के रूप में दिख रहे हैं जिसकी गर्दन मोदी की जांघों में फंसी है। जैसे ही वह कुछ फड़फड़ाते हैं मोदी जकड़ को और तंग कर देते हैं।
भविष्य की संभावना:- भारत की मिलिट्री डिप्लॉयमेंट जिस जगह है वहाँ से पीओके पर आसानी से अभियान किया जा सकता है बशर्ते चीन पीछे हट जाये। लेकिन अगर चीन एक सीमित युद्ध छेड़ता है तो पाकिस्तान इसका फायदा उठाना चाहेगा और ऐसी स्थिति में अमेरिका को सक्रिय हस्तक्षेप करना ही पड़ेगा।
युद्धों में चीन के इतिहास को देखें तो मुझे यहां चीन की ओर से तीन सम्भावनाएं या आशंकाएं दिखती हैं। 1- चीनी मौसम और हवाओं का युद्ध रणनीति में विशेष ध्यान रखते हैं अतः वे अक्टूबर-नवंबर में युद्ध शुरू कर सकते हैं क्योंकि लद्दाख में तूफानी साइबेरियाई हवायें भारत की ओर होंगी।
2-चीन द्वारा रासायनिक हथियारों का प्रयोग। जैव हथियार वायरस हो सकते हैं बैक्टेरिया नहीं क्योंकि इतनी ठंड में जीवाणु मर जाते हैं। 3- इस बीच अगर विश्व के राष्ट्र चीन का आर्थिक बहिष्कार भी अगर कर दें तो खाद्यान्न की समस्या और ठप्प पड़े कारखाने ही चीन में अराजकता उत्पन्न कर
सकने में सक्षम है जिसका असर हम देख भी रहे हैं क्योंकि शी ने हिटलर के आखिरी दिनों की तरह 'प्लेट में खाद्यान्न छोड़ने' के विरुद्ध नियम बनाया है।
संभावित_परिणाम:- बहरहाल अगर यह युद्ध तृतीय विश्वयुद्ध की ओर नहीं बढ़ा तो इतना तय है कि परिणाम में चीन की सीमा में परवर्तन हो न हो एशिया का नक्शा दुबारा खींचा जाएगा और उसमें भारत के पश्चिम में एक देश का नाम मिट चुका होगा।
नाम बताने की जरूरत है क्या?
🙏🙏🙏🙏🌹
साभार
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पहली बार मैंने देखा कि कोई शंकराचार्य अपने चांदी के सिंहासन को छोड़कर महीनों तक आदिवासी क्षेत्र में पैदल भ्रमण कर रहा है धर्म ईसाई मिशनरियों के कुचक्र को तोड़ रहा है आदिवासी बंधुओं को उनके मूल धर्म में वापस ला रहा है
गुजरात के आदिवासी जिले डांग में जिस पर ईसाई मिशनरियों और इस्लामिक संगठनों की बुरी नजर थी जहां लालच देकर बड़े पैमाने पर धर्म परिवर्तन का काम हो रहा था वहां अब बड़े पैमाने पर ईसाइयों को मूल धर्म में वापस लाया जा रहा है हिंदू संस्कृति का प्रचार किया जा रहा है
इस इलाके में द्वारिका शारदा पीठ के शंकराचार्य स्वामी सदानंद सरस्वती महीनों से जमीनी स्तर पर काम कर रहे हैं
शंकराचार्य भोजन के लिए ऐसे ही चलते चलते किसी भी आदिवासी के घर में जाकर खाना मांग कर खा लेते हैं वहां शबरी पीठ को और बड़ा बनाया जा रहा है और
आज जो भारत में रेलवे है.., उसको भारत में कौन लाया ?
आपका उत्तर ब्रिटिश होगा ।
कैसा रहेगा अगर मैं कहूं कि ब्रिटिश सिर्फ विक्रेता थे, यह वास्तव में एक भारतीय का स्वप्न था ।
भारतीय गौरव को छिपाने के लिए हमारे देश की पूर्व सरकारों के समय इतिहास से बड़ी एवं गम्भीर छेड़छाड़ की गई।
रेलवे अंग्रेजों के कारण नहीं बल्कि नाना के कारण भारत आयी । भारत में रेलवे आरम्भ करने का श्रेय हर कोई अंग्रेजों को देता है लेकिन श्रीनाना जगन्नाथ शंकर सेठ मुर्कुटे के योगदान और मेहनत के बारे में कदाचित कम ही लोग जानते हैं ।
१५ सितंबर १८३० को दुनिया की पहली इंटरसिटी ट्रेन इंग्लैंड में लिवरपूल और मैनचेस्टर के बीच चली । यह समाचार हर जगह फैल गया । बम्बई ( आज की मुंबई ) में एक व्यक्ति को यह बेहद अनुचित लगा । उन्होंने सोचा कि उनके गांव में भी रेलवे चलनी चाहिए । अमेरिका में अभी रेल चल रही थी और
संथाल विद्रोह आप जानते होंगे पर आपने कभी पहाड़िया विद्रोह सुना है?
सबसे शुरुआती संघर्षों में एक जो 1772 से 1782 तक चला था
अंग्रेजो ने बंगाल विजय के बाद अपना बड़े स्तर पर विस्तार किया था जिसके कारण बिहार और झारखंड का एक बड़ा हिस्सा अंग्रेजो के अधीन आ गया
झारखंड के उत्तर पूर्वी इलाके पाकुड़, राजमहल में पहाड़िया बड़ी मात्रा में रहते थे, जो बाद में संथाल परगना बन गया, वहां अंग्रेजो ने मनसबदार नियुक्त किए
वैसे तो शुरू में पहाड़ियों से मनसबदारो का व्यवहार अच्छा था किंतु जल्द ही खटास पड़ गई पहाड़ियों के मुखिया की उन्होंने हत्या करवा दी
जिसके बाद पहाड़िया विद्रोह शुरू हो गया जिसकी शुरुआत रमना आहड़ी ने किया, ये कई चरणों में चला
उस समय ये इलाका वन संपदा से परिपूर्ण था, पग पग पर वृक्ष थे, जिससे रूबरू होने के कारण उन वनवासियों ने अंग्रेजो की नींव हिला दी
गणितज्ञ "लीलावती" का नाम हममें से अधिकांश लोगों ने नहीं सुना है, उनके बारे में कहा जाता है कि वो पेड़ के पत्ते तक गिन लेती थीं 🙏
शायद ही कोई जानता हो कि आज यूरोप सहित विश्व के सैंकड़ो देश जिस गणित की पुस्तक से गणित को पढ़ा रहे हैं, उसकी रचयिता भारत की एक महान गणितज्ञ
महर्षि भास्कराचार्य की पुत्री लीलावती हैं! आज गणितज्ञों को गणित के प्रचार और प्रसार के क्षेत्र में लीलावती पुरूस्कार से सम्मानित किया जाता है!
आइए जानते हैं महान गणितज्ञ लीलावती जी के बारे में जिनके नाम से गणित को पहचाना जाता था :-
दसवीं सदी की बात है, दक्षिण भारत में भास्कराचार्य नामक गणित और ज्योतिष विद्या के एक बहुत बड़े पंडित थे। उनकी कन्या का नाम लीलावती था।
वही उनकी एकमात्र संतान थी। उन्होंने ज्योतिष की गणना से जान लिया कि ‘वह विवाह के थोड़े दिनों के ही बाद विधवा हो जाएगी।’
महुआ मोइत्रा ओवरस्मार्ट बन रही थी। कहा कि मैं तो यूपी के मुख्यमंत्री को योगी आदित्यनाथ नहीं बोलूँगी, अजय बिष्ट बोलूँगी, क्योंकि यही उनका असली नाम है और मैं लोगों को उनके असली नाम से बुलाना पसंद करती हूँ।
लोगों ने कहा, अच्छा! तुम लोगों को उनके असली नाम से बुलाना पसंद करती हो? तो ठीक है, हम भी अब तुम्हें तुम्हारे असली नाम से बुलायेंगे और उन्होंने उसे बुलाना शुरू कर दिया 'महुआ लार्स ब्रोरसन'! अब महुआ को समझ आया कि उसने क्या किया है। पर अब पछताये होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत
! सोशल मीडिया पर Mahua Lars Brorson ट्रेंड करने लगा। योगी आदित्यनाथ को अजय बिष्ट बुलाने वाली महिला इसे झेल नहीं पाई। खीझ में उसने हर उस व्यक्ति को ट्विटर पर ब्लॉक कर दिया जो उसे महुआ लार्स ब्रोरसन नाम से बुला रहा था।
एक बार कभी सोचना कि वह असद कितना बड़ा दरिंदा था
उमेश पाल तो गवाह थे लेकिन उनके साथ जो दो निर्दोष गनर मारे गए उनका क्या कसूर था ??
मारे गए एक सिपाही राघवेंद्र सिंह की कहानी आपको रुला देगी, राघवेंद्र सिंह के दादा भी पुलिस में थे और एनकाउंटर के दौरान शहीद हुए थे,
राघवेंद्र सिंह के पिताजी भी पुलिस में थे और उन्नाव में चुनावी ड्यूटी के दौरान बूथ कैप्चर करने वाले गुंडों से मुकाबला करते शहीद हुए थे 😨👿😡राघवेंद्र पढ़ने में बहुत होशियार थे लेकिन पिता के शहीद होने के बाद पूरे परिवार की जिम्मेदारी उनके कंधे पर आई
उन्हें अपनी दो बहनों की शादी करनी थी फिर उन्होंने मृतक आश्रित कोटे से पुलिस में नौकरी किया, अपनी एक बहन की शादी की एक बहन की शादी अभी होनी थी और खुद राघवेंद्र की शादी इस घटना के 15 दिन के बाद होनी थी राघवेंद्र सिंह की छुट्टी मंजूर कर ली गई थी