रुरल इकॉनमी में ऐग्रिकल्चरल प्रडूस के लिए कॉंट्रैक्ट फ़ॉर्मिंग में फ़ॉर्मिंग में फ़ॉर्मिंग ही महत्वपूर्ण है, कॉंट्रैक्ट नहीं। वही मॉडल काम करेगा जिसमें कम्पनी २००-३०० किसानों के परिवार अडॉप्ट कर ले और उनके और उनके परिवार के लिए सबकुछ करे।
तमाम केस देखें हैं मैंने जिसमें किसान जी ने कॉंट्रैक्ट फ़ॉर्मिंग के तहत आलू की खेती की और तैयार होने पर एक रात आलू निकाल लिया और सुबह थाने में रपट लिखा दी।
राग दरबारी के थानेदार जी वैद्यजी की ठंडाई पीकर किसान जी के प्रोटेक्शन में उतर जाते हैं।
और जहाँ कॉंट्रैक्ट फ़ॉर्मिंग नहीं है वहाँ एक ही फसल के लिए किसान जी तीन लोगों से एडवांस लेकर चौथे को माल बेंच देते हैं।
मझोले और छोटे किसानों को मज़बूत बनाना और कोर्ट कचहरी को दुरुस्त करना ही लॉंग टर्म सलूशन है।
राज्यों की तुलना की जाय तो इंफ़्रास्ट्रक्चर में बहुत बड़ा असंतुलन है। किसी राज्य में एक ज़िले में मैंने २५ कोल्ड स्टोरेज देखे हैं और किसी राज्य के चार बड़े ज़िलों के लिए दस कोल्ड स्टोरेज। ऐसे में एक ही क़ानून सब जगह काम करे, उसके पहले कुछ बेसिक काम करने पड़ेंगे।
एक राज्य के ट्रेडर यूरोप में सब्ज़ियाँ बेंच रहे हैं और वहाँ पैकहाउस की भरमार है और दूसरे राज्य के कृषि विभाग के बड़े अफ़सर भी चकित हैं, ये कहते हुए कि, हे गुप्ता जी, हई पैकहाउस का होता है जी?
वहीं दूसरी तरफ़ मंडी के कामकाज का हाल यह है कि आप दूसरे राज्य से कोई प्रडूस लेकर आएँ, वहाँ आपने लोकल मार्केट टैक्स दिया, GsT दिया और अपने राज्य लेकर आए और यहाँ मंडी के गुंडे आपके बिल को कुछ मानते ही नहीं। बोलते हैं; इसी राज्य का प्रडूस है और आपको मंडी टैक्स देना पड़ेगा।
तो हलकान होने का प्रयोजन दोनों तरफ़ से हैं, ट्रेडर की तरफ़ से भी और किसानों की तरफ़ से भी। सरकार केवल क़ानून बना सकती है और संसद है ही क़ानून बनाने के लिए। इंफ़्रास्ट्रक्चर के लिए भी कोई सरकार आवे तब तो क़ानून भी अपना काम करे😀
नीति आयोग दो बातों पर काम करे तो अच्छा; पहला,छोटे/मझोले किसानों को पशुपालन का महत्व समझाए और दूसरा, क्षेत्रों के लिए नया प्रडूस मिक्स विकसित करे। किसी क्षेत्र विशेष को जो कमॉडिटी की मनॉपली पिछले हज़ार वर्षों में मिली है, वह फ़ॉर्मिंग में असंतुलन का बहुत बड़ा कारण है और समाप्त हो।
सरकार पर एक बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी और है। विद्वानों से किसानों की रक्षा की। सरकार को चाहिए कि विद्वानों और कृषि वैज्ञानिकों के लिए आवश्यक कर दे कि वे किसानों के पास जाएँ।
मैंने सिक्किम के किसानों की सभा में त्रिवेंद्रम से आए एक वैज्ञानिक जी को अपना पूरा रीसर्च पेपर पढ़ते हुए देखा है।
जैसे ये क़ानून बनाया गया है न, वैसे ही एक क़ानून और बनाया जाय जिसमें किसानों को अधिकार दिए जाएँ कि सरकारी संस्थाओं की बैठकों में किसान बोलें और सरकारी लोग सुनें😀
एम बी ए इन्स्टिटूट से निकले नए-नए बिज़्नेसमेन से भी इन किसानों की रक्षा आवश्यक है, ऐसे entrepreneur जो किसानों से जाकर कहते हैं कि; अदरक की खेती क्यों करते हो? स्टीविया उगाओ, हम सब ख़रीद लेंगे।
देश में पिछले तीन दशकों में दाल उत्पादन की कमी में सोयाबीन का योगदान पर एक पेपर आवे😀
एक रेस्ट्रिक्शन ICC टाइप संस्थाओं के उन अफ़सरों पर भी लगे जो ओवर्सीज़ ट्रेडर्स और बाइअर्ज़ को बुलाकर तेरह पन्नों का निबंध पढ़ते हैं।
आप मंडी क़ानून को बदल रहे हैं तो इन संस्थाओं और बॉर्ड्ज़ के क़ानूनों को भी बदलें। जड़ें ऐसी जमी हुई हैं कि वे हर प्रयास का पाँव जकड़ सकते हैं।
चलिए, रैंटिंग का कोई अंत नहीं। वैसे भी किसानों से मिलने आज जाना है हमें 😀
आज शनिवार है और अरुणाचल के एक छोटे से ब्लॉक में पोस्टेड हमारे मित्र ADO साहब साढ़े नौ बजे अपनी बाइक पर असिस्टेंट को लेकर निकल गए हैं खेतों की Geo Tagging करने ताकि Farm Traceability ensure की जा सके और आप सरकार को गाली देते हुए देश की राजधानी बंद करना चाहते हैं।
आपको नींद से जागने की आवश्यकता है। ये जो पचास वर्षों से लगातार एक ही बात सुनाई जा रही है कि देश के एक दो राज्य ही देश का भोजन उत्पादन करते हैं उस धारणा में दरार पड़ चुकी है। संभलने की आवश्यकता आपको है।
बाक़ी राज्यों में किसान की किसानी बहुत मज़बूत हुई है, बस उन्हें स्पेस नहीं मिलता कि वे बता सकें कि क्या कर रहे हैं क्योंकि वे बेचारे दिल्ली से दूर रहते हैं।
पंडित जी ने भाखड़ा नांगल बाँध कहाँ से निकाल कर आपको दिया था वह बात इतिहास में छिप गई है। अपने इस दान के जस्टिफ़िकेशन में उन्हें एक प्रॉपगैंडा की आवश्यकता भी थी जिसकी नींव पूरी मेहनत के साथ डाली गई और उसे सालों साल मज़बूती प्रदान की गई। पुराने ऐश्वर्य का भाड़ा खा रहे हैं आप।
आपसे अधिक मेहनत करने वाले किसान हैं जो चक्का जाम नहीं कर सकते क्योंकि उनके राज्य में चक्का ही नहीं है। लेकिन अपना काम तो वे भी कर ही रहे हैं। उतनी ही मेहनत से जितनी मेहनत से आप कर रहे हैं।
हो सकता है मैं ग़लत होऊँ पर ७ वर्षों में १०-११ राज्यों के किसानों से थोड़ा इंटरैक्शन हुआ है मेरा। जहाँ के किसान MSP का मुँह नहीं ताकते वहीं के किसानों ने नए क्रॉप मिक्स ट्राई किए और सफल भी रहे। शायद MSP ने किसानों का पुरुषार्थ भी कम किया और उन्हें imaginative होने से रोका भी है।
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लगता है जैसे अपने समर्थकों और कार्यकर्ताओं का साथ न देना अब भाजपा की ऐसी आदत बन गई है जिससे छुटकारा पाने के लिए उसके लिए बड़ा कठिन काम है।
बंगाल में जब २०१६ से पहले यहाँ जब लोगों ने पार्टी को अपना समर्थन देना चाहा तो कोई भी स्थानीय नेता आगे आकर वह समर्थन न ले सका।
इसी समय दिल्ली से मंत्री आकर पता नहीं क्यों ममता बनर्जी को good humour में रखना चाहते थे। नतीजा क्या हुआ? पार्टी स्ट्रक्चर नहीं खड़ा हो सका।
२०१८ के बाद आनन-फ़ानन में पार्टी स्ट्रक्चर खड़ा करने की कोशिश की गई जो शायद २०२० तक कुछ हद तक खड़ा तो हो गया लेकिन स्थानीय नेता तब भी वैसे ही रहे जैसे पहले थे।
नतीजा यह हुआ कि अधिकतर स्थानीय नेता आज भी क्लास मॉनिटर का चुनाव जीतने लायक़ न बन सके।
मैं आवश्यक एक कृषि सुधार,
तुम जबरन एक प्रोटेस्ट प्रिये,
मैं सकल राष्ट्र में व्याप्त शांति,
तुम दिल्ली का अनरेस्ट प्रिये,
मैं मेहनत पर निर्भर किसान,
तुम काश्तकार एम एस पी पर,
मैं परेशान एक लोकतंत्र,
तुम पोषित कोई पेस्ट प्रिये!
मैं यू एस ए की प्रोफ़ेसर,
तुम राडिया कन्सल्टेंट प्रिये,
मेरी निधि पर भारी फिसिंग,
इक “एरर ऑफ़ जज्मेंट प्रिये,”
तुम दिल्ली की कैबिनेट मेकर,
मैं हॉर्वर्ड तक फ़ॉर्वर्ड,
मैं पत्रकारिता की मशाल,
तुम उसका अटेनमेंट प्रिये!
मैं कृषक फ़्रेंडली गौरमिंट,
तुम कोई चक्का जाम प्रिये,
मैं फ़िक्स्ड रेट एम एस पी का,
औ तुम मंडी का दाम प्रिये,
मैं खटनी-रत कोई किसान,
तुम मिया ख़लीफ़ा फ़ॉर्मिंग की,
मैं थनबर्गित एक गूगल-शीट,
तुम ट्वीटित कोई ईनाम प्रिये!
आज शनिवार है और अरुणाचल के एक छोटे से ब्लॉक में पोस्टेड हमारे मित्र ADO साहब साढ़े नौ बजे अपनी बाइक पर असिस्टेंट को लेकर निकल गए हैं खेतों की Geo Tagging करने ताकि Farm Traceability ensure की जा सके और आप सरकार को गाली देते हुए देश की राजधानी बंद करना चाहते हैं।
आपको नींद से जागने की आवश्यकता है। ये जो पचास वर्षों से लगातार एक ही बात सुनाई जा रही है कि देश के एक दो राज्य ही देश का भोजन उत्पादन करते हैं उस धारणा में दरार पड़ चुकी है। संभलने की आवश्यकता आपको है।
बाक़ी राज्यों में किसान की किसानी बहुत मज़बूत हुई है, बस उन्हें स्पेस नहीं मिलता कि वे बता सकें कि क्या कर रहे हैं क्योंकि वे बेचारे दिल्ली से दूर रहते हैं।
यह कैसा तर्क है कि; एक भी श्लोक रामायण में दिखा सकते हो जो साबित कर दे कि श्रीराम के अयोध्या लौटने पर पटाखे जलाए गए थे?
कोई यह साबित कर सकता है कि इस पृथ्वी पर पहले शुभ कार्य में नारियल या फूल का प्रयोग किया गया था? पहले पूजन में ही दीपक का प्रयोग किया गया था?
क्या हजारों वर्ष पुरानी सभ्यता के धार्मिक, सांस्कृतिक अनुष्ठान या पूजा पद्धति के नियम पहले ही दिन तय हो गए होंगे? क्या किसी ने पहले ही दिन लिख कर नियम बना दिए थे कि बस इतना ही करना है और इससे बाहर कुछ नहीं करना है?
जिस संस्कृति का इतिहास सहभागिता का अनुपम उदाहरण रहा हो, उसके विकास में समय समय पर नियम जुड़े न हों, इस बात की गारंटी कोई दे सकता है? यदि पहले दिन किताब लिख कर रख दी गई होती तो क्या हमारे इतने देवता होते? हमारे यहाँ पूजा की इतनी पद्धतियाँ होतीं?
जाट आंदोलन,अर्बन नक्सल,दिल्ली दंगा,तुर्की प्लान,एमपी किसान ‘आंदोलन’, शाहीन बाग, जेएनयू..... हाथरस, ऐसे षड्यंत्र तानाशाही के विरुद्ध किए जाते हैं।
नरेंद्र मोदी को वर्षों तक तानाशाह कहने का सबसे बड़ा परिणाम यह है कि विपक्ष(कांग्रेस) अपने प्रॉपगैंडा में ख़ुद ही विश्वास करने लगा है।
लोकतंत्र में विरोध के तरीक़े षड्यंत्र और मीडिया से नहीं बल्कि परोक्ष रूप से रैली, डिबेट, शासन का विकल्प और नेतृत्व देने में है। समस्या यह है कि इतने षड्यंत्र करने के बाद की बदनामी और लोकतांत्रिक तरीक़े अपनाने पर असफल होने का भय विपक्ष को केवल षड्यंत्र करने तक रोक के रखता है।
विपक्ष पोषित पत्रकार और संपादक हवाट्सऐप यूनिवर्सिटी का चाहे जितना मज़ाक़ बना लें और सच को हँसी में चाहे जितना उड़ा लें, सच यही है कि सोशल मीडिया बहुत मज़बूत है और सूचना प्रसार से देश का राजनीतिक भविष्य तय करने की क्षमता रखता है।