एक बार एक गांव में पर्यावरण वाले मंत्रीजी ने दौरा किया। अब दौरा किया तो उसकी निशानी भी होनी चाहिए ताकि सालों बाद भी गॉंव वाले मंत्रीजी के दौरे को याद रखें।
इसलिए दौरे के दौरान मंत्रीजी ने एक पौधा लगाया (लगाया तो मजदूरों ने था, मंत्रीजी ने केवल उसके पानी देते हुए फोटो खिंचवाई थी)। अब मंत्रीजी के नाम का पौधा है तो देखभाल भी करनी पड़ेगी। कहीं सूख न जाए, कोई जानवर ना खा जाए इसलिए उस पौधे कि रखवाली के लिए एक चौकीदार रखा गया।
अब चौकीदार है तो कोई ना कोई तो उसकी रिपोर्ट लेने वाला भी चाहिए, नहीं तो चौकीदार पौधे का ध्यान रखता कि नहीं इसका ध्यान कौन रखेगा। इसलिए, एक चौकीदार के ऊपर एक सुपरिटेंडेंट बिठाया गया जिसका काम था चौकीदार कि हाजिरी नोट करना और सुबह शाम पौधे की रिपोर्ट लेना।
अब सुपरिटेंडेंट है तो उसको ऑफिस भी चाहिए, कुर्सी-टेबल, पंखा-कूलर भी चाहिए, ऑफिस के सफाई के लिए चपरासी भी चाहिए। कागज-पत्तर का काम करने कि लिए लिपिक भी चाहिए। सुपरिटेंडेंट साहब औचक निरीक्षण कर सकें इसलिए गाड़ी भी चाहिए और ड्राइवर भी।
एक वनस्पति विज्ञानी भी बिठाया गया जो समय समय पे चौकीदार को ये बताएगा कि पेड़ को कब कितना पानी, कितनी खाद, कितनी दवाई देनी है। पेड़ की रखवाली में कितना खर्चा हो रहा है इसके लिए एक अकाउंटेंट भी जरूरी है। अब इतने लोग हैं तो सबकी सैलरी भी देनी है इसलिए वित्त विभाग बनाया गया।
कोई घपला ना करे इसलिए विजिलेंस, ऑडिट वगैरह के लोग भी नियुक्त किये गए। कुल मिला कर काफी बड़ा ऑफिस बन गया। इतने बड़े ऑफिस को चलाने के लिए एक आईएएस अधिकारी बिठाया गया जो सीधे मंत्रीजी को रिपोर्ट करता था। कुछ समय बाद चुनाव आ गए।
मंत्रीजी ने जनता को बताया कि कैसे उनका लगाया पौधा अब पेड़ बनने वाला है और जल्दी ही फल देने लगेगा। जनता ने मंत्रीजी की बातों में आके उनको दोबारा जिता दिया। लेकिन कुछ समय बाद वैश्विक मंदी का दौर आया। सरकार पर भी कॉस्ट-कटिंग का जूनून छाया।
मंत्रीजी को खर्चे काम करने का आदेश आया। मंत्रीजी ने मीटिंग बुलाई जिसमें ये निर्णय हुआ कि एक आयोग गठन किया जाएगा जो पूरे विभाग की जांच करेगा और खर्चे कम करने के उपाय सुझाएगा।
जांच आयोग ने पूरे तीन महीने तक जांच पड़ताल करने के बाद ये निष्कर्ष निकाला कि एक चौकीदार को छोड़कर बाकी सारी पोस्ट जरूरी हैं। आयोग की सिफारिश पर कॉस्ट-कटिंग के लिए चौकीदार की पोस्ट ख़तम कर दी गयी है। बाकी पूरा ऑफिस अब भी वैसे ही चल रहा है।
बैंकों में भी कुछ ऐसा ही हाल है। मैनेजर क्रेडिट अलग है, मैनेजर NPA अलग। इनके ऊपर एक चीफ मैनेजर क्रेडिट & NPA है और नीचे डेस्क ऑफिसर। इसी तरह HR, क्रॉस सैलिंग, ऑपरेशन्स, ऑडिट, विजिलेंस, सेल्स, सबके अपने अपने डेस्क ऑफिसर, मैनेजर, चीफ मैनेजर हैं।
इन सबका एक ही काम है, ब्रांचों को टारगेट बांटना और ब्रांचों से डाटा लेना। काम सारा ब्रांच वालों को ही करना है। बाकी लोग केवल फ़ोन करके सुबह बताएँगे कि क्या करना है और शाम को पूछेंगे कि क्या किया।
एक ही चीज जिसके लिए एक मेल ही पर्याप्त था उसके लिए पहले डेस्क ऑफिसर फोन करेगा फिर मैनेजर और फिर चीफ मैनेजर। शाम को रिपोर्टिंग के टाइम भी यही क्रम रहता है। बीच-बीच में RM साहब भी फ़ोन करके अपने बॉस होने का सबूत देते रहते हैं।
अब कॉस्ट कटिंग का मौसम चल रहा है तो पोस्ट ख़तम की जा रही हैं। ब्रांचेज में से परमानेंट मैसेंजर की पोस्ट ख़तम कर दी गयी है। तीन ऑफिसर की ब्रांच को सिंगल ऑफिसर कर दिया है। जहाँ पहले 5-6 क्लर्क बैठते थे अब 1-2 से ही काम चल रहा है। बाकी सारा काम टेम्पोरेरी स्टाफ से कराया जा रहा है।
मतलब हालत ये हैं की ब्रांच में ५ सिस्टम हैं जिनमें से ३ खाली रहते हैं। अमिताभ कांत साहब की मानें तो बिना ब्रांच के भी बैंकिंग की जा सकती है। मतलब चौकीदार की अब कोई जरूरत नहीं। हाँ, बिज़नेस इनको डबल चाहिए।
मतलब घोड़े की चारों टाँगें तोड़ दो और फिर ये उम्मीद रखो कि वो रेस जीतेगा। धन्य है ऐसी सरकार और ऐसी सरकार के सलाहकार।
थ्रेड: #बेगानी_शादी
नौकरीपेशा आदमी के लिए जिंदगी की हर चीज मुसीबत की तरह ही लगती है। फलाने की शादी है। ज्यादा करीब हुआ तो छुट्टी लेनी पड़ेगी, नहीं तो ऑफिस से जल्दी निकलकर शादी में जाना पड़ेगा। अगर फैमिली रिलेशन है तो वाइफ को भी साथ ले जाना पड़ेगा।
नहीं तो कोशिश तो अकेले ही अटेंडेंस लगाने की रहती है। आठ बजे ऑफिस से छूटो, फिर शादी में जाओ। लिफाफा भी तो देना है। घर पहुँचते पहुँचते 11 बज जाते हैं। त्यौहारों का तो और भी बुरा हाल है। एक दिन की छुट्टी में क्या त्यौहार मनाये आदमी।
दिवाली पे अक्सर एक दिन की छुट्टी आती है। कई जगह दो दिन की और कई जगह तो कोई छुट्टी ही नहीं। एक दिन की छुट्टी में क्या दिवाली मनाये आदमी?
थ्रेड: #हंस_चला_बगुले_की_चाल
भारत एक मानसून आधारित देश हैं जहाँ साल में एक तिहाई समय मानसून का होता है। मानसून में जबरदस्त बरसात होती है। साल भर के हिस्से की बरसात चार महीनों में ही हो जाती है। बाकी समय लगभग सूखा ही रहता है।
यहाँ के मानसून को समझना विदेशियों के लिए हमेशा से एक टेढ़ी खीर ही रहा। विशेषकर अंग्रेज तो मानसून से इतने परेशान थे कि भारत की कृषि व्यवस्था की रीढ़ तोड़कर ही माने। लेकिन भारतीयों के लिए मानसून जीवनशैली का एक अभिन्न अंग था। हमारी जीवनशैली मानसून के हिसाब से ढली हुई थी।
मानसून के "चौमासे" में न तीर्थ यात्रा होती थी और ना ही शुभ कार्य जैसे विवाह इत्यादि। इन चार महीनों में हो देवताओं से सोने की परंपरा शुरू हुई थी वो आज भी जारी है। राम ने भी लंका पर चढ़ाई चार महीने के लिए रोकी थी और मानसून के दौरान माल्यवान पर्वत पर इंतज़ार किया था।
थ्रेड: #अंधी_पीसे_कुत्ता_खाय
भूखी जनता राजा के पास पहुंची: महाराज!!! विदेशी सब लूट के ले गए। खाने को कुछ नहीं है। कुछ कीजिये।
राजा (मंत्रियों से): सबके भोजन का इंतज़ाम करो। और सबको अन्न उगाने के लिए पर्याप्त भूमि, बीज खाद दो ताकि भविष्य में कोई भूखा न रहे।
कुछ समय बाद राज्य के सभी धनी व्यापारी राजा के पास पहुंचे: महाराज!!! हम तो बर्बाद हो गए।
राजा: क्या हुआ?
व्यापारी: महाराज!!! लोग खुद ही अन्न उगा रहे हैं और खा रहे हैं। साथ ही बुरे समय के लिए अन्न बचा भी रहे हैं। लोग आत्मनिर्भर हो रहे हैं। हमारी किसी को जरूरत ही नहीं।
फिर हमारा क्या होगा?
राजा: तो मैं क्या करूँ? जनता को अन्न उगाने से तो नहीं रोक सकता।
व्यापारी: लेकिन अन्न बचाने से तो रोक सकते हैं। ताकि हमारी भी दुकान चल सके। याद रखिये की आपका सिंहासन रथ वगैरह सब हमने ही स्पांसर किया हुआ है।
तो हुआ यूं कि पिछले महीने हमारी मोबाइल फ़ोन की एलिजिबिलिटी रिन्यू हुई। और हमारा फ़ोन भी काफी पुराना हो चुका था। छः साल से एक ही फ़ोन को चला रहे थे। हमारे फ़ोन को लोग ऐसे नजरों से देखते थे
जैसे कि हड़प्पा की खुदाई से निकला हुआ कोई नमूना देख लिया हो। लेकिन हम भी उस पुराने फ़ोन को घूंघट के ऑउटडेटेड रिवाज़ की तरह चलाये जा रहे थे। लेकिन समस्या तब हुई जब मोबाइल बैंकिंग के एप्प ने एंड्राइड 8 को ब्रिटिशराज घोषित करके आज़ादी की मांग कर दी।
अब तो हमें नया फ़ोन चाहिए ही था। अब चूंकि हम मोबाइल की दुनिया में चल रही क्रांति से नावाक़िफ़ थे इसलिए हमने यूट्यूब का रुख किया। वहां हमको अलग ही लेवल की भसड़ मिली। उनके बारे में बाद में बात करेंगे।
नोटबंदी जैसी तुग़लकी स्कीम जिससे सिर्फ एक पार्टी और चंद पूंजीपतियों को हुआ, लेकिन पूरा देश एक एक पैसे के लिए तरस गया, धंधे बर्बाद हो गए, बैंकरों ने अपनी जान खपा दी, दिन रात पत्थरबाजी झेली, रोज गालियां खाई,
साहब के कपड़ों की तरह दिन में कई कई बार बदले नियमों को झेला, नुक्सान की भरपाई जेब से करी। और जैसा कि होना था, भारी मीडिया मैनेजमेंट और ट्रोल्स की फ़ौज के बावजूद नोटबंदी फेल साबित हुई।
जब नोटबंदी फेल हुई थी तो बड़ी बेशर्मी से इन लोगों ने नोटबंदी की विफलता का ठीकरा बैंकों के माथे फोड़ दिया।
"अजी वो तो बैंक वाले ही भ्रष्ट हैं वरना जिल्लेइलाही ने तो ऐसे स्कीम चलाई थी कि देश से अपराध ख़त्म ही हो जाना था।"
थ्रेड: #ड्यू_डिलिजेंस
बैंक में ड्यू डिलिजेंस बहुत जरूरी चीज है। बिना ड्यू डिलिजेंस के हम लोन देना तो दूर की बात है कस्टमर का करंट खाता तक नहीं खोलते।
लोन देने से पहले पचास सवाल पूछते हैं। पुराना रिकॉर्ड चेक करते हैं। चेक बाउंस हिस्ट्री चेक करते हैं।
और लोन देने के बाद भी उसकी जान नहीं छोड़ते। किसी कस्टमर के खाते में अगर एक महीने किश्त ना आये तो उसकी CIBIL खराब हो जाती है। और तीन महीने किश्त न आये तो खाता ही NPA हो जाता है और फिर उसे कोई लोन नहीं देता। #12thBPS
अगर डॉक्यूमेंट देने में या और कोई कम्प्लाइंस में ढील बरते तो बैंक पीनल इंटरेस्ट चार्ज भी करते हैं। लेकिन बैंकों का ये ड्यू डिलिजेंस केवल कस्टमर के लिए ही है। पिछले 56 सालों से बैंकरों का अपना रीपेमेंट टाइम पर नहीं आ रहा। हर पांच साल में बैंकरों का वेज रिवीजन ड्यू हो जाता है।