अपने यहाँ जातिगत भेदभाव एक बड़ी समस्या रही है, इससे मुँह नहीं मोड़ा जा सकता। हिन्दू धर्म की सबसे ज्यादा आलोचना यदि किसी बात को लेकर होती है तो वो यही है। यद्यपि, पिछले कई दशकों में हमने इसको कम करने के लिए भरपूर प्रयास किये हैं और ऐसा नहीं है की हमे सफलता नहीं मिली है।
हाँ, सफलता जैसी मिलनी चाहिए, वैसी नहीं मिली परन्तु हम यह जरूर कह सकते हैं कि समाज के एक बड़े तबके में अब इस भेदभाव के लिए स्थान नहीं है।
दलितों आदिवासिओं को अभी भी इस दंश का सामना करना पड़ता है, इसी का फ़ायदा उठाकर धर्मान्तरण करने वाले अपने व्यापार का प्रसार करने में सफल हुए हैं।
इसलिए विशेषकर दलितों और आदिवासिओं को समाज में उनका गौरवशाली स्थान पुनर्स्थापित करने के लिए हमे और प्रयास करने होंगे।
यहाँ दो बातों पर ध्यान देना विशेष आवश्यक है, जो इस बीमारी का समूल नाश करने में सहायक होंगी –
प्रथम - जो एक बात इस भेदभाव को समाप्त करने में सबसे ज्यादा कारगर साबित हुई है और आगे भी होगी, वह है - अंतर्जातीय विवाह। हिन्दू हित में कार्य कर रहे संगठनों, धर्माचार्यों, संतों का यह विशेष दायित्व है कि अंतर्जातीय विवाह को बढ़ावा देने के अधिक से अधिक प्रयास करें
और इस दिशा में कार्य कर रहे लोगों को प्रोत्साहित भी करें।
दलितों के सामाजिक उत्थान के लिए इससे बेहतर कोई और उपाय नहीं है - हाँ, आर्थिक उन्नति के सहारे भी इस विकृति को समाप्त किया जा सकता है - परन्तु दलितों के आर्थिक उत्थान का कई दशकों से प्रयास किया जा रहा है,
क्रीमी लेयर को छोड़कर अन्य दलितों को इसका ज्यादा लाभ मिला नहीं है। इसलिए आर्थिक उत्थान के भरोसे रहे तो अगले सौ सालों में भी यह विकृति दूर नहीं होगी। इसलिए अंतर्जातीय विवाह एक विकल्प है जिसके माध्यम से हमे त्वरित परिणाम मिल सकते हैं।
द्वितीय - मंदिरों और धार्मिक कर्मकांडों में दलितों, आदिवासिओं को स्थान देना होगा। यद्यपि मंदिर में प्रवेश को लेकर मुझे नहीं लगता कि आज के समय में कोई भी समस्या है। आज मंदिरों में सभी हिन्दुओं को सामान रूप से प्रवेश करने का अधिकार है - चाहे वह किसी भी जाति का हो।
हाँ, अपवाद स्वरुप कहीं पर यह समस्या यदि है तो नहीं कहा जा सकता।
असली समस्या है दलितों का धार्मिक कर्मकांड में जुड़ाव न होना। उन्हें मंदिरो का पुजारी नियुक्त करना होगा, उन्हें यज्ञ, हवन, पूजन इत्यादि करने का प्रशिक्षण देना होगा और अपने घरों में दलित पुजारी से हवन, पूजन करने के लिए
खुले मन से उन्हें आमंत्रित करना होगा। वैसे इसकी शुरुवात हो चुकी है और कई मंदिरों में दलित पुजारी नियुक्त हो रहे हैं। वीएचपी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठनो ने आगे आकर इस दिशा में काफी प्रयास किये हैं।
अभी पिछले दिनों वीएचपी ने ५००० से ज्यादा दलितों को पुजारी के रूप में प्रशिक्षण कराया है। अग्निवीर जैसे कुछ संगठन भी इसके लिए बहुत प्रयास कर रहे हैं। हमारे धर्माचार्यों और संतों को इसके लिए और जोर से आवाज़ उठानी होगी और कार्य करना होगा।
यह दो कार्य यदि हो गए तो जातिगत भेदभाव का दंश हिन्दू समाज से अगले दो दशकों में आसानी से मिटाया जा सकता है।
लेकिन इस कार्य में जो सबसे बड़ी बाधा है, वो है – धर्मान्तरण। हिन्दू धर्म का त्याग कर इस्लाम या क्रिस्चियन कल्ट अपनाने वाले दलितों का यह नहीं पता कि जिस दंश से पीछा छुड़ाने के लिए उन्होंने यह कार्य किया है, वह दंश पहले से भी ज्यादा खतरनाक तरीके से धर्मान्तरण के बाद उनको डंसता है।
धर्मान्तरण के बाद दलित कि हिन्दू पहचान तो मिट जाती है परन्तु उसकी दलित पहचान बनी रहती है। फ़र्क़ केवल इतना है कि हिन्दू दलित से वह मुस्लिम या क्रिस्चियन दलित हो जाता है। यदि हिन्दू धर्म में वो अपने आप का दोयम दर्ज़े का समझता था तो नए संप्रदाय में वह एक दर्ज़ा और नीचे चला जाता है।
अव्वल तो उसे असली मुस्लिम या क्रिस्चियन नहीं माना जाता, दूसरा उसकी दलित पहचान जस कि तस बनी रहती है और वहां पहले से भी ज्यादा भेदभाव का सामना करना पड़ता है।
इसलिए यदि जातिगत भेदभाव मिटाना है तो दलितों और आदिवासियों के धर्मान्तरण पर पूर्णतः रोक लगानी होगी।
दलितों का सामाजिक उत्थान उनके हिन्दू बने रहने में ही संभव है। धर्मान्तरण न केवल उनकी हिन्दू पहचान को मिटा देता है बल्कि उसके सामाजिक उत्थान का रास्ता हमेशा के लिए बंद कर देता है। इसको रोकने के लिए सरकार और हिन्दू समाज दोनों को सामान रूप से प्रयास करने होंगे।
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हर साल दीपावली के त्यौहार में हिंदुओं को सरकार और न्यायालय से भीख माँगने पर मजबूर कर दिया जाता है- पटाखे जलाने के लिए। बच्चे एक एक फुलझड़ी के लिए तरस जाते हैं। लेकिन सरकार का न्यायालय का हृदय नहीं पिघलता। #crackerban
ये सब किया जाता है, प्रदूषण रोकने के नाम पर। पूरे साल प्रशासन कुम्भकर्ण की नींद सोया रहता है, दीपावली आते ही अचानक प्रशासन की नींद खुलती है और आनन फ़ानन में दीपावली के पटाखों पर प्रतिबंध लगाकर सब अपने कर्तव्य की इति श्री कर लेते हैं। #crackerban
लेकिन ऐसे बेतुकेपन का कोई वैज्ञानिक आधार है? उससे बड़ा प्रश्न यह है कि क्या प्रशासन का उद्देश्य वास्तव में प्रदूषण को रोकना है? साल भर में केवल एक दिन मनाए जाने वाला उत्सव पूरे साल के प्रदूषण का कारण कैसे हो सकता है? यदि नहीं तो हर साल इसी त्यौहार को निशाना क्यूँ बनाया जाता है?
उत्तर प्रदेश में महिलाओं पर अत्याचार कम हुए हैं या बढे हैं, नहीं कह सकता, आंकड़ों का हिसाब रखने वाले बताएँगे। लेकिन महिलाओं पर अत्याचार प्रदेश के लिए कोई नयी बात नहीं है। प्रदेश ही क्यों, पुरे देश के लिए कोई नयी बात नहीं है। और महिलाएं ही क्यों, दलितों पर अत्याचार भी देश के किसी
भी हिस्से में होना कोई नयी बात नहीं है।
फिर क्या वजह है की अचानक से कोई मामला उत्तर प्रदेश में तूल पकड़ लेता है। शेमस्ट्रीम मीडिया और सोशल मीडिया पर आग लग जाती है और माहौल बनाने वाले लोग एजेंडा चलने लगते हैं कि प्रदेश में क़ानून का राज नहीं है और प्रदेश में कोई सुरक्षित नहीं है-
दलित हो या महिला - दोनों हो तो और भी ज्यादा।
दरअसल २०१७ में मुख्यमंत्री बनने के बाद से ही योगी महाराज ने अपराध और अपराधियों के खिलाफ बिगुल बजा दिया था। अपराध पर नकेल कसने के लिए महाराज जी ने पूरी ताकत झोंक रखी है। माफिया गिरोहों के खिलाफ पुलिस ने अभूतपूर्व कार्यवाही की है।
बचपन में पढ़ा करते थे कि भारत एक कृषि प्रधान देश है, आज है या नहीं पता नहीं। हमेशा यही सुनने को मिलता था कि किसानों की तरक्की के बग़ैर इस देश का भला नहीं हो सकता। किसानों की आर्थिक उन्नति भारत की उन्नति के लिए अत्यावश्यक है। किसान का बेटा होकर यह सब सुनना अच्छा लगता था।
लेकिन पिछले साठ सत्तर सालों में किसानों की दशा दिशा सुधारने को लेकर कोई विशेष कार्य नहीं हुआ। हरित क्रांति के नाम पर रासायनिक खाद झोंककर कुछ राज्यों के किसानों ने उत्पादन बढ़ा लिया, इसके अलावा किसान और किसानी की उन्नति के लिए कोई गंभीर प्रयास नहीं हुआ।
साल दर साल एमएसपी बढ़ाकर कर्तव्य की इतिश्री करने वाले नेता, गांव और किसान के नाम पर सबसे ज्यादा वोट मांगते रहे। वही नेता यदि किसानों के लिए भूले भटके कोई सरकार एक आध अच्छा कदम उठाती है तो उसका दम भर विरोध करते हैं। आखिर यह विरोधाभास क्यों?
बम्बई में जितने स्टार नहीं बनते हैं, उससे ज्यादा ब्यूरोक्रेट्स प्रयागराज, बैंकर पटना और इंजीनियर कोटा में बनते हैं। लेकिन ऐसा क्या खास है फिल्मी सितारों में कि उनकी आलोचना नहीं कर सकता कोई। आप जैसे ही उनसे कोई सवाल करेंगे तो वह बम्बई की बेइज्जती माना जायेगा। बम्बई रूठ जाएगी।
ब्यूरोक्रेट्स से सवाल पूछने या उनकी आलोचना करने पर प्रयागराज ने कभी बुरा नहीं माना। ऐसे ही बैंकर्स और इंजीनियरों की आलोचना होने पर कभी पटना या कोटा ने भी बुरा नहीं माना।
ये बम्बई के पेट में फिर क्यों दर्द होने लगता है? इस दर्द की वजह क्या है?
दरअसल ये बॉम्बे स्पिरिट और मराठा प्राइड के नाम पर फिल्मी दुनिया के काले कारनामों को दबाने की कोशिश की जाती है।
आप नेताओं को दिन भर पानी पी पीकर बुरा भला कह सकते हैं, गाली दे सकते हैं, सवाल पूछ सकते हैं लेकिन अभिनेताओं से नहीं पूछ सकते क्योंकि थाली में छेद हो जाएगा।
6-Dec-92 was a day of national pride, not national shame. I have no regret, no repentance, no sorrow, no grief ~ Shri Kalyan Singh, the man who made it possible for us to see our dream of Ram Mandir turns into reality.
This footage is testimony to one of the bravest displays of Hindu pride &bhakti. Some of the greatest Rambhakts doing Lanka Dahan act on a Dhancha which stood as a nail in the heart of an entire civilisation.