नौकरी ज्वाइन करते ही सबसे पहली चीज होती है ट्रेनिंग। पहली ट्रेनिंग शुगर कोटेड कड़वी दवाई की तरह होती है। किसी होटल जैसे ट्रेनिंग सेंटर में हफ्ते-दो हफ्ते के लिए अपने ही जैसे नए लोगों के साथ रहने का मौका मिलता है।
विभिन्न अभिरुचियों और आदतों के हिसाब से नए दोस्त बनते हैं। गंजेड़ियों का अलग ग्रुप, दारूबाजों का अलग, सुटेरियों का अलग। लड़कियों का अलग ग्रुप और उन पर लाइन मरने वालों का अलग। कइयों के दिल टूटते हैं तो कुछ सौभाग्यशालियों को कन्या राशि मिल भी जाती है।
कुलमिला कर कॉलेज वाला माहौल रहता है इसीलिए ट्रेनिंग को नौकरी का हनीमून पीरियड भी कहते हैं। ट्रेनिंग ख़तम होने के बाद कड़वी दवाई यानि पोस्टिंग की शुरुआत होती है।
ट्रेनिंग किसी भी जॉब का सबसे महत्वपूर्ण और जरूरी हिस्सा होता है। ट्रेनिंग एक सतत प्रक्रिया है।
ट्रेनिंग सिर्फ नौकरी के शुरुआत में नहीं होती बल्कि हर नयी जिम्मेदारी के लिए भी होती है। जब भी कोई नयी तकनीक, कोई नया बदलाव आता है तो ट्रेनिंग होती है। कैश ऑफिसर, ब्रांच मैनेजर, फील्ड ऑफिसर सबके लिए अलग ट्रेनिंग होती है। आर्मी वाले तो साल में नौ महीने ट्रेनिंग ही करते हैं।
वो अलग बात है कि आर्मी की ट्रेनिंग और बैंकों की ट्रेनिंग में जमीन आसमान का अंतर होता है। ट्रेनिंग केवल काम सिखाने के लिए ही नहीं होती। इसके और भी फायदे हैं। व्यक्ति रोज एक ही ऑफिस जा के, एक ही कुर्सी पे बैठ के, एक ही काम कर कर के, एक ही जैसे लोगों के साथ बैठ के बोर हो जाता है।
ट्रेनिंग उस मनहूसियत भरी मशीन जैसी जिंदगी में बहार की तरह आती है। थोड़ा सैर सपाटा हो जाता है, साथ में TA/DA मिलता है वो अलग। नए लोगों से मिलना हो जाता है और कुछ नया सीखने को भी मिलता है। घिसी-पिटी जिंदगी में थोड़ी ताजगी आ जाती है।
पहले के समय में ट्रेनिंग अच्छे से हुआ करती थी। बढ़िया दो-तीन महीने की। लेकिन जब से उदारवाद का दौर आया है ट्रेनिंग सिर्फ एक औपचारिकता रह गयी है। "On The Job Training" के नाम पे पहले दिन से ही ब्रांच में रगड़ाई शुरू हो जाती है।
एक हफ्ते के लिए ओरिएंटेशन प्रोग्राम के तहत HR वाले आके थोड़ा मन बहला देते हैं। बाद में ब्रांच की हालत देख के उन्ही HR वालों पे गुस्सा आने लगता है, कि "छोटी गंगा बोल के गंदे नाले में कुदा दिया"।
नयी जिम्मेदारी के लिए ट्रेनिंग की प्रथा भी समाप्त कर दी गयी है। चट ट्रांसफर, पट रिलीविंग, झट जॉइनिंग। कुछ पूछें तो कहते हैं कि सर्कुलर पढ़ लो सब सीख जाओगे। ट्रेनिंग की कोई जरूरत नहीं। आजकल ट्रेनिंग पे केवल बैक ऑफिसेस वाले जाते हैं।
उनको गप्पें लड़ाने की, कुर्सी तोड़ने की, पॉलिटिक्स करने की ट्रेनिंग चाहिए होती है ना। ब्रांच वाले को तो ट्रेनिंग की कोई जरूरत ही नहीं।
वो तो खाली ब्रांच ऑपरेशन, कस्टमर हैंडलिंग, क्राउड मैनेजमेंट, इंस्पेक्शन, वेरिफिकेशन, कम्प्लाइंस, KYC, कैश मैनेजमेंट, लोन सोर्सिंग, क्रॉस सेलिंग, मेंटेनेंस ही तो करता है।
अगर उसी को ट्रेनिंग पे भेज देंगे तो काम कौन करेगा। ब्रांच चलाने जैसा नीच काम बैक ऑफिसेस में बैठे ऊंची पहुँच वाले लोग थोड़े ही करेंगे। कौन कहता है कि जात पात समाप्त हो गयी है। इन RBO में बैठे इन नए ब्राह्मणों से मिले हैं आप?
यहां तक तो फिर भी ठीक था। जब से कोरोना आया है अलग ही भसड़ मची हुई है। वेबिनार ट्रेनिंग की। अब चूंकि ट्रेनिंग ऑनलाइन होनी है, इसलिए किसी को कहीं जाना नहीं। अब सारी ट्रेनिंग ब्रांच वालों को ही कराई जाएंगी।
रोज सुबह-सुबह फोन आ जाएगा,
"सर आज शाम चार बजे टीम्स पे लॉगिन कर लेना, रूरल बैंकिंग का वेबिनार है, मेल पे इनविटेशन भेज दिया है।"
और मजे की बात ये है कि रूरल बैंकिंग पे वेबिनार देने वाला खुद मेट्रो सिटी में बैठा है, जिसने कभी रूरल ब्रांच की शकल भी नहीं देखी।
RBO वालों को कोई लेना देना नहीं कि शाम को चार बजे ब्रांच मैनेजर क्या कर रहा है या ब्रांच में कितनी भीड़ है। अब तो बकरी पालने से लेकर कुत्ता खरीदने के लिए लोन देने के लिए भी ट्रेनिंग मिलेगी।
पिछले हफ्ते दो वेबिनार करने के बाद तीसरे वेबिनार के लिए जब फोन आया तो मेरा धैर्य जवाब दे गया।
"मैडम, ये बता दीजिये कि मैं कस्टमर अटेंड करूँ या ये वेबिनार अटेंड करूँ?"
"सर, इसीलिए तो शाम को चार बजे का प्रोग्राम रखा गया है, ताकि कस्टमर को कोई दिक्कत नहीं हो।"
"और जो कस्टमर आलरेडी ब्रांच के अंदर आ गया है, जो कस्टमर मेरे सामने बैठा है, जो कस्टमर एक घंटे से मेरे फ्री होने का इंतज़ार कर रहा है, उसको क्या बोलूं? कि DGM साहब की ईगो पैम्परिंग का टाइम हो गया है, आप भाड़ में जाइये??"
"सर, आप बस ज्वाइन कर लीजिये, माइक और कैमरा ऑफ कर लीजिये, टीम्स को मिनीमाइज कर दीजिये, फिर चाहे तो अपना काम कीजिये, अटैंडेंस लग जायेगी और आपका काम भी नहीं रुकेगा। सर आप तो जानते हैं ये बड़े अफसर किसी की नहीं सुनते, इनको केवल अटेंडेंस से मतलब है।"
एक तो कन्या राशि, ऊपर से बात भी सही बोल रही है। मैं भी नरम पड़ गया।
अभी आज ताईजी का फरमान सुना। बैंक स्टाफ को स्थानीय भाषा का ज्ञान होना चाहिए। घरों से 3000 किलोमीटर दूर पड़े हुए कई लोगों की बरसों से मन में दबी होम पोस्टिंग की उम्मीद दोबारा जाग उठी।
But I seriously doubt that. मुझे पूरी उम्मीद है की एक दो हफ्ते में एक और वेब ट्रेनिंग का फरमान आता ही होगा। जिसमें वही शाम को चार बजे लोकल लैंग्वेज की ट्रेनिंग दी जायेगी। केवल अटेंडेंस काउंट की जायेगी। ब्रांच मैनेजर बेचारा आँख कान मुंह बंद करके अपना काम करता रहेगा।
क्यूंकि कंप्यूटर में वीडियो चला के, स्पीकर ऑन करके अगर उसने ट्रेनिंग करी, तो कोई ना कोई कस्टमर उधम मचा देगा कि BM तो बैठ के कंप्यूटर पे वीडियो देख रहा है। उधर उच्चाधिकारी ढोल पीट देंगे कि ताईजी के आदेश का पालन करते हुए हर ब्रांच के हर कर्मचारी को लोकल लैंग्वेज सिखा दी गयी है।
ना किसी को कोई डेप्युटेशन पे लगाना पड़ा, ना कोई TA/DA का खर्चा। ट्रेनिंग देने वाला भी मजे में, क्यूंकि सवाल तो कोई कुछ पूछ पायेगा नहीं। मतलब हींग लगे ना फिटकरी, रंग भी चोखा आये।
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थ्रेड: #बेगानी_शादी
नौकरीपेशा आदमी के लिए जिंदगी की हर चीज मुसीबत की तरह ही लगती है। फलाने की शादी है। ज्यादा करीब हुआ तो छुट्टी लेनी पड़ेगी, नहीं तो ऑफिस से जल्दी निकलकर शादी में जाना पड़ेगा। अगर फैमिली रिलेशन है तो वाइफ को भी साथ ले जाना पड़ेगा।
नहीं तो कोशिश तो अकेले ही अटेंडेंस लगाने की रहती है। आठ बजे ऑफिस से छूटो, फिर शादी में जाओ। लिफाफा भी तो देना है। घर पहुँचते पहुँचते 11 बज जाते हैं। त्यौहारों का तो और भी बुरा हाल है। एक दिन की छुट्टी में क्या त्यौहार मनाये आदमी।
दिवाली पे अक्सर एक दिन की छुट्टी आती है। कई जगह दो दिन की और कई जगह तो कोई छुट्टी ही नहीं। एक दिन की छुट्टी में क्या दिवाली मनाये आदमी?
थ्रेड: #हंस_चला_बगुले_की_चाल
भारत एक मानसून आधारित देश हैं जहाँ साल में एक तिहाई समय मानसून का होता है। मानसून में जबरदस्त बरसात होती है। साल भर के हिस्से की बरसात चार महीनों में ही हो जाती है। बाकी समय लगभग सूखा ही रहता है।
यहाँ के मानसून को समझना विदेशियों के लिए हमेशा से एक टेढ़ी खीर ही रहा। विशेषकर अंग्रेज तो मानसून से इतने परेशान थे कि भारत की कृषि व्यवस्था की रीढ़ तोड़कर ही माने। लेकिन भारतीयों के लिए मानसून जीवनशैली का एक अभिन्न अंग था। हमारी जीवनशैली मानसून के हिसाब से ढली हुई थी।
मानसून के "चौमासे" में न तीर्थ यात्रा होती थी और ना ही शुभ कार्य जैसे विवाह इत्यादि। इन चार महीनों में हो देवताओं से सोने की परंपरा शुरू हुई थी वो आज भी जारी है। राम ने भी लंका पर चढ़ाई चार महीने के लिए रोकी थी और मानसून के दौरान माल्यवान पर्वत पर इंतज़ार किया था।
थ्रेड: #अंधी_पीसे_कुत्ता_खाय
भूखी जनता राजा के पास पहुंची: महाराज!!! विदेशी सब लूट के ले गए। खाने को कुछ नहीं है। कुछ कीजिये।
राजा (मंत्रियों से): सबके भोजन का इंतज़ाम करो। और सबको अन्न उगाने के लिए पर्याप्त भूमि, बीज खाद दो ताकि भविष्य में कोई भूखा न रहे।
कुछ समय बाद राज्य के सभी धनी व्यापारी राजा के पास पहुंचे: महाराज!!! हम तो बर्बाद हो गए।
राजा: क्या हुआ?
व्यापारी: महाराज!!! लोग खुद ही अन्न उगा रहे हैं और खा रहे हैं। साथ ही बुरे समय के लिए अन्न बचा भी रहे हैं। लोग आत्मनिर्भर हो रहे हैं। हमारी किसी को जरूरत ही नहीं।
फिर हमारा क्या होगा?
राजा: तो मैं क्या करूँ? जनता को अन्न उगाने से तो नहीं रोक सकता।
व्यापारी: लेकिन अन्न बचाने से तो रोक सकते हैं। ताकि हमारी भी दुकान चल सके। याद रखिये की आपका सिंहासन रथ वगैरह सब हमने ही स्पांसर किया हुआ है।
तो हुआ यूं कि पिछले महीने हमारी मोबाइल फ़ोन की एलिजिबिलिटी रिन्यू हुई। और हमारा फ़ोन भी काफी पुराना हो चुका था। छः साल से एक ही फ़ोन को चला रहे थे। हमारे फ़ोन को लोग ऐसे नजरों से देखते थे
जैसे कि हड़प्पा की खुदाई से निकला हुआ कोई नमूना देख लिया हो। लेकिन हम भी उस पुराने फ़ोन को घूंघट के ऑउटडेटेड रिवाज़ की तरह चलाये जा रहे थे। लेकिन समस्या तब हुई जब मोबाइल बैंकिंग के एप्प ने एंड्राइड 8 को ब्रिटिशराज घोषित करके आज़ादी की मांग कर दी।
अब तो हमें नया फ़ोन चाहिए ही था। अब चूंकि हम मोबाइल की दुनिया में चल रही क्रांति से नावाक़िफ़ थे इसलिए हमने यूट्यूब का रुख किया। वहां हमको अलग ही लेवल की भसड़ मिली। उनके बारे में बाद में बात करेंगे।
नोटबंदी जैसी तुग़लकी स्कीम जिससे सिर्फ एक पार्टी और चंद पूंजीपतियों को हुआ, लेकिन पूरा देश एक एक पैसे के लिए तरस गया, धंधे बर्बाद हो गए, बैंकरों ने अपनी जान खपा दी, दिन रात पत्थरबाजी झेली, रोज गालियां खाई,
साहब के कपड़ों की तरह दिन में कई कई बार बदले नियमों को झेला, नुक्सान की भरपाई जेब से करी। और जैसा कि होना था, भारी मीडिया मैनेजमेंट और ट्रोल्स की फ़ौज के बावजूद नोटबंदी फेल साबित हुई।
जब नोटबंदी फेल हुई थी तो बड़ी बेशर्मी से इन लोगों ने नोटबंदी की विफलता का ठीकरा बैंकों के माथे फोड़ दिया।
"अजी वो तो बैंक वाले ही भ्रष्ट हैं वरना जिल्लेइलाही ने तो ऐसे स्कीम चलाई थी कि देश से अपराध ख़त्म ही हो जाना था।"
थ्रेड: #ड्यू_डिलिजेंस
बैंक में ड्यू डिलिजेंस बहुत जरूरी चीज है। बिना ड्यू डिलिजेंस के हम लोन देना तो दूर की बात है कस्टमर का करंट खाता तक नहीं खोलते।
लोन देने से पहले पचास सवाल पूछते हैं। पुराना रिकॉर्ड चेक करते हैं। चेक बाउंस हिस्ट्री चेक करते हैं।
और लोन देने के बाद भी उसकी जान नहीं छोड़ते। किसी कस्टमर के खाते में अगर एक महीने किश्त ना आये तो उसकी CIBIL खराब हो जाती है। और तीन महीने किश्त न आये तो खाता ही NPA हो जाता है और फिर उसे कोई लोन नहीं देता। #12thBPS
अगर डॉक्यूमेंट देने में या और कोई कम्प्लाइंस में ढील बरते तो बैंक पीनल इंटरेस्ट चार्ज भी करते हैं। लेकिन बैंकों का ये ड्यू डिलिजेंस केवल कस्टमर के लिए ही है। पिछले 56 सालों से बैंकरों का अपना रीपेमेंट टाइम पर नहीं आ रहा। हर पांच साल में बैंकरों का वेज रिवीजन ड्यू हो जाता है।