शास्त्रसम्मत सदाचार में कोई भी पदस्थव्यक्ति प्रमाण नहीं होता है अपितु शास्त्रवचन प्रमाण होते हैं व शास्त्रसम्मत कृत्य मान्य होते हैं।
शास्त्रानुसार, राजा दिक्पतियों का अंश होता है।
इन्द्रानिलयमार्काणामग्नेश्च वरुणस्य च।
चन्द्रवित्तेशयोश्चैव मात्रा निर्हृत्य शाश्वतीः॥ +
यस्मादेषां सुरेन्द्राणां मात्राभ्यो निर्मितो नृपः।(मनु)
ऐसे में राजा को ही इन्द्र,ईशान आदि का साक्षात् स्वरूप मानकर क्या ऋषियों ने वेन आदि के व आचार्य शङ्कर ने सुधन्वा आदि के धर्मपराङ्मुखता का समर्थन किया था! क्या उन्होंने शास्त्रमर्यादा के ऊपर पदस्थव्यक्ति को रखा दिया था!+
आज बड़ी विकट समस्या यह आ गयी है कि सामूहिक उपनयनादि दुर्भाग्यपूर्ण व हेय कृत्यों की पापपूर्णता के विषय में सद्गृहस्थ ब्राह्मणों द्वारा शास्त्रोक्तवस्तुस्थिति बताये जाने पर उन्हीं शास्त्रधर्मस्थब्राह्मणों व शास्त्रविचारों की व्यङ्ग्यपूर्ण व कठिन शब्दों में अवहेलना कर दी जा रही है।
किसी की व्यक्तिगत निन्दा कर देने से शास्त्रसम्मत दोष, सद्गुण में व सद्गुण दोष में नहीं बदल जाते हैं। श्रेयोनिमित्तक कहे गये आर्जवपूर्ण शास्त्रवचन को अपनी या किसी की निन्दा कहकर उनका अपमान किये जाने से तो वसिष्ठादि ऋषियों का अपमान होता है,उस उद्धरणकर्त्ता का अपमान नहीं होता।
सामूहिक उपनयन, विवाह में उपनयन, परशाखोक्त उपनयनादि अन्य सभी शास्त्रनिन्दित कृत्य कोई [स्वयं ब्रह्माजी] भी करायें तो उनका कृत्य सदाचार का प्रमाण नहीं हो सकता है क्योंकि श्रेष्ठव्यक्ति का भी शास्त्रविरुद्ध कृत्य सदाचार का प्रमाण नहीं होता है।अहल्या इन्द्र का प्रकरण उदाहरण है।
शास्त्रविरुद्ध कृत्य के होने पर स्वयं को अल्पज्ञ बताकर/बात को अनदेखा करके/व्यक्ति को प्रमाण मानकर शास्त्रवाक्यों का अपमान करना, उस शास्त्रविरुद्धकृत्य में कर्ता के समान भागीदार होने के लिये पर्याप्त है
कर्ता कारयिता चैव प्रेरकश्च अनुमोदकः।
सुकृते दुष्कृते चापि चत्वारः समभागिनः॥
हमारे द्वारा सामूहिक उपनयन या सामूहिक गोत्रप्रवरसहित अभिवादन के सन्दर्भ में जो बात कही गयी,वह हमारी अपनी बात नहीं है अपितु शास्त्रवचन हैं। इस विषय में हमारी निन्दा से शास्त्रविरुद्ध बात शास्त्रसम्मत नहीं हो जाती है। अपितु हमें बोले गये अपशब्द शास्त्र व ऋषियों को लगते हैं।
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