फल से लदी डालियों से नित
सीखो शीश झुकाना
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अभी हाल ही में राष्ट्रपति रामनाथ कोविन्द अपनी जन्मभूमि परौंख पहुँचे थे। वहाँ हेलीकॉप्टर से उतरते ही वे नीचे झुके, उन्होंने अपनी जमीन को छुआ। वे अपने गाँव में भ्रमण पर निकले, लोगों से मिले-जुले। ImageImage
उनकी भावमुद्रा को देखकर ऐसा नहीं लगा कि वे यह सब दिखावे के लिये या देशवासियों का ध्यान आकर्षित करने के लिये कर रहे हैं। न तो उन्हें कोई चुनाव जीतना है, न उन्हें किसीको खुश करना है। पिछले वर्ष वे अपने स्कूल-शिक्षकों के चरणस्पर्श करते हुए भी देखे गये थे।
एक तरह से तो यह सब बहुत सामान्य है। हम भारतवासियों के लिये इसमें कुछ भी नया नहीं है। रघुकुल के राजाओं का जब इतिहास पढ़ाया जाता है, तब केवल राम ही नहीं, दिलीप, रघु, अज और दशरथ सहित सभी सम्राट् हमारे मानस पर अपनी सहज विनयशीलता की अमिट छाप छोड़ते हैं।
रघुकुल के सम्राट् सिंहासन पर कम, लोगों के बीच ही ज्यादा दिखाई देते रहे हैं, और वह भी अपने गुरुजनों के सम्मुख शीश झुकाये हुए। वह युग तो हमारे इतिहास का आदर्श था, उसकी पुनरावृत्ति अब सम्भव नहीं।
समय बहुत तेजी से बदल गया है। भले ही हम लोकतांत्रिक गणराज्य में हैं,
लेकिन देश का सर्वोच्च संवैधानिक पद सामन्ती ठाठ-बाट से सजा कर रखा गया है। ऐसे में राष्ट्रपति रामनाथ कोविन्द का व्यवहार सबको चकित कर देता है। लोकतांत्रिक राष्ट्र के प्रथम नागरिक को इतना विनम्र तो होना ही चाहिए, यह संदेश देकर राष्ट्रपति जी ने अपने पद को जिन मूल्यों से सींचा है,
उन पर हमारा ध्यान तो जाना ही चाहिए।
एक राष्ट्राध्यक्ष को सहज रूप से सरल, विनम्र और भावुक होते हुए देखकर हम देशवासियों ने क्या सीखा, यह जानने की उत्सुकता किसे नहीं होगी? इसे केवल एक खबर की सुर्खी समझ कर छोड़ा तो नहीं जा सकता। श्री रामनाथ कोविन्द ऐसे विरले व्यक्ति हैं,
जो सर्वोच्च पद पर होते हुए भी झुकना जानते हैं। राष्ट्रपति के पद पर रहते हुए भी सामान्य बने रहना कोई सामान्य बात नहीं है। उनका आचरण किसी योग्य कुलपति जैसा है, जो अपने व्यवहार से देशवासियों को वे मूल्य सौंपना चाहते हैं, जो हमारी प्रगति में सहायक हों। इससे पहले ए.पी.जे. अब्दुल कलाम
ने भी राष्ट्रपति पद पर रहते हुए ऐसी ही विनम्र कोशिश की थी। क्या हम इतने कृतघ्न हैं, कि हम अपने ही देश के प्रथम नागरिक की विनम्रता के महत्व को न समझ सकें। क्या हमारे पास महानता को मापने का पैमाना ही नहीं?

यह बताने की आवश्यकता नहीं है,
कि सामान्य नौकरीपेशा आदमी भी थोड़ा सा बड़ा ओहदा पाकर घमंड में चूर हो जाता है। वह किसीके सामने झुकने को अपनी तौहीन समझता है। आजकल अधिकारियों को तो प्रशिक्षण के दौरान ही सिखा दिया जाता है कि 'कभी किसीके आगे झुकना मत। यह शान के खिलाफ है।'
यह कभी नहीं बताया जाता कि झुकना कमजोरी का लक्षण नहीं है। इसके लिये साहस चाहिए।हनुमान वीर है, इसलिये वे झुके हुए हैं।

झुकने का स्वभाव यह दर्शाता है कि आप अपनी जड़ों को सींचना जानते हैं। झुक कर आप किसीके आगे छोटे सिद्ध नहीं होते,
अपितु अपनी जमीन से ऊर्जा लेते हुए और अधिक चमकदार हो जाते हैं। आप झुकेंगे नहीं, तो आपकी पीठ पर कोई हाथ कैसे रखेगा? किसी के अहं को संतुष्ट करने के लिये, आत्मानुशासन के लिये विनयशील होना जीवन की किताब का पहला पाठ है। जिसने यह पाठ ठीक ढंग से नहीं पढ़ा, वह अपात्र रह गया।
'विनयात् याति पात्रताम्' जैसा सुभाषित वाक्य यूँ ही नहीं बना है।

अपना मतलब निकालने के लिये लोग पाँव छूना तो दूर, नाक तक रगड़ते देखे गये हैं। चुनाव के मौसम में एक टिकट के लिये साष्टांग दंडवत करने वाले नेताओं को भी हमने देखा है।
लेकिन कम ही लोग जानते हैं कि श्रद्धापूर्वक बड़ों के पाँव छूना एक संस्कार है, जो धीरे-धीरे लुप्त होता जा रहा है। बड़ों के पाँव छूना एक कृतज्ञता है। यह एक नि:स्वार्थ समर्पण है, जिसमें कोई मांग नहीं होती। यह स्वयं का विसर्जन है। अपने आपको किसीकी विशालता में सौंप देने का भाव न हो,
तो पाँव छूना एक यांत्रिक क्रिया भर है और उसके निष्फल होने में कोई संदेह नहीं।

पाँव छूना कोरी रस्म नहीं, यह एक पहल है मनुष्यता को बचाये रखने की। यह एक मौन संवाद है, निश्छल प्रार्थना है, गोपनीय निवेश है। प्रसिद्ध कवि दिनकर सोनवलकर ने लिखा है-
'बड़ों के पैर छूने का रिवाज इसलिये भी अच्छा है कि उनके पैरों की बिवाइयाँ देखकर तुम जान सको कि ज़िन्दगी उनकी भी कितनी कठिन रही है और कैसे-कैसे संघर्षों से वे गुज़रे हैं। बदले में वे तुम्हें देते हैं अपने आशीर्वाद व कभी न खत्म होने वाले अनुभवों की ऊष्मा।'
आजकल घरों में बड़ों का सम्मान करना सिखाया ही नहीं जाता। संयुक्त परिवार टूटे, तो यह सिखाने वाले भी नेपथ्य में चले गये। घर से बाहर निकलने के बाद तो अब कौन किसके पैर छूता है, लेकिन यह क्या कम दुर्भाग्य की बात है कि बच्चे अपने माता-पिता के सामने झुकने से
भी गुरेज करते देखे जाते है। बड़े-बुजुर्गों के पाँव छूने के रिवाज को अब इतना औपचारिक सम्मान समझ लिया गया है, कि नई पीढ़ी इससे लगातार दूर हो रही है। हाँ, हमने ऐसे बड़े संस्थान भी देखे हैं, जहाँ वरिष्ठ और अनुभवसिद्ध वैज्ञानिकों, कलाकारों और शिक्षकों के पाँव छूने का चलन अब भी है,
इसलिये वहाँ प्रेम और सौहार्द के स्पंदन भी महसूस किये जाते हैं।

नये स्कूल कल्चर में भी अपने से बड़ों के पैर छूकर आशीर्वाद लेना अब शिष्टाचार के विरुद्ध मान लिया गया है। जो कुछ बचा-खुचा था, वह ऑन लाइन एजूकेशन की
भेंट चढ़ गया। नये भारत के बच्चों को न प्रणाम का अर्थ मालूम है, न आशीर्वाद की महिमा विदित है। ऐसे में वह महत्वपूर्ण जीवनमूल्य हमारे हाथ से खिसक गया है, जो भारतीय संस्कृति का पोषक माना जाता था।

जब हम प्राथमिक स्कूल में पढ़ते थे, तब बालभारती की पहली कविता की एक पंक्ति थी- '
'फल से लदी डालियों से नित सीखो शीश झुकाना'। यह पंक्ति अब केवल याद ही नहीं, मौके पर हमारी सहायता भी करती है। शायद इसे ही संस्कार कहा जाता है। कौन होगा, जो फलदार वृक्ष की तरह नहीं होना चाहता। हमारी पढ़ाई-लिखाई, हमारी चिन्ता, हमारे सब प्रयत्न इसी बात को लेकर है कि हम
अपने परिवार के लिये, समाज के लिये फलदार साबित हों। आचरण की सभ्यता का कोई लिखित दस्तावेज तो मिलता नहीं, वह तो हमें ही प्रमाणित करना होता है। आप कितने महान् हैं, कितने प्रज्ञावान् हैं, दूसरों की अपेक्षा कितने श्रेष्ठ है, यह तब एक झटके में सिद्ध हो
जायेगा, जब आप अपने से बड़ों के आगे शीश झुका देंगे।
आप मानें या न मानें, इस कठिन दौर में आपको आशीर्वादों की बहुत जरूरत है। आपके पास आशीर्वादों का बैंक बैलेंस शून्य है तो आप बहुत दरिद्र हैं, और यह दुनिया आपके लिये हरगिज नहीं। आप किसी क्षेत्र में
कैरियर बनाना चाहते हैं, नाम कमाना चाहते हैं, जीवन को समग्रता में जीना चाहते हैं, तो ज्ञान से ज्यादा विनम्रता ही आपका साथ देगी।यह जरूरी है कि वह दिखावे की न हो,क्योंकि अब सब इतने समझदार तो हो ही गये हैं कि सच्ची श्रद्धा और दिखावे में फर्क कर सकें।
🍁मुरलीधर m.facebook.com/groups/2151847…

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