#मांडण_का_युद्ध
यह युद्ध 1822 वि.स. (6 जून 1775) में लड़ा गया था, जिसकी स्मृति प्रत्येक शेखावत घराने में आज भी ताजा बनी हुई है विशेष रूप से झुंझुनू और उदयपुरवाटी परगनों का प्रत्येक शेखावत परिवार इस बात का दावा करता है कि उसका कोई एक पुरखा माण्डण के युद्ध में अवश्य लड़ा था...1
अधिकांश कुटुम्बों के योद्धाओं ने माण्डण के समरांगण में प्राणों की आहुतियाँ देकर अपने वंशजों को ऊँचा मस्तक रखने का गौरव प्रदान किया था। कहा जाता है- माण्डण के उस रक्तरंजित युद्ध में सैकड़ों ऐसे नवयुवा वीरों ने अपना रक्त बहाया था, जो उसी समय विवाह करके अपनी नव वधुओं के साथ....2
घरों को लौटे थे और जिनके मंगल सूचक कांकड़-डोरड़े (विवाह के समय हाथ की कलाई पर बांधा जाने वाला रक्षा सूत्र) विधिवत खोले ही नहीं जा सके थे।
यह युद्ध उस वक्त लड़ा गया जिस युग के षड्यंत्रों से दूषित राजनीतिक वातावरण में पले उन शेखावत योद्धाओं ने किस प्रकार एक दिल-दिमाग होकर....3
अपनी मान-मर्यादा और मातृभूमि की रक्षार्थ दिल्ली के सम्राट की शक्तिशाली सेना से टक्कर ली और अपने प्राणों की बाजी लगाक माण्डण के रणक्षेत्र को रक्त से आप्लावित कर अनेक घटकों से बनी शाही सेना को हराने में वे समर्थ हुये....4
इस युद्ध में जयपुर के कच्छवाह राजपूतों की सेना के साथ ही भरतपुर की सेना ने शेखावाटी के शेखावत सिरदारों के सहयोगार्थ युद्ध लड़ा और वीरता प्रदर्शित की थी|
इतिहासकार बताते है कि माण्डण युद्ध इतना भीषण था कि इसमें शेखावतों की तीन-२ पीढ़ियां एक साथ खप गई। @dryadusingh @Rahi_Banna
नमन हैं उन तमाम वीर पुरुषों को जिन्होंने मातृभूमि की रक्षार्थ इस युद्ध में अपने प्राणों की आहुतियां दी..कोटि-कोटि नमन🙏💐
लेकिन दुर्भाग्यवश इस एतिहासिक युद्ध को इतिहास में कोई विशेष स्थान नहीं मिला🤔😢
खंडेला के प्रथम शेखावत राजा रायसल दरबारी के 12 पुत्रों को जागीर में अलग-२ ठिकाने मिलें जिनसे आगे जाकर शेखावतों की विभिन्न शाखाएं चली। इन्हीं के पुत्रों में से एक ठाकुर भोजराज जी को उदयपुरवाटी जागीर के रूप में मिली....१
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इन्हीं के वंशज 'भोजराज जी के शेखावत' कहलाते हैं। भोजराज जी के पश्चात उनके पुत्र टोडरमल उदयपुरवाटी(शेखावाटी) के स्वामी बनें। टोडरमल जी दानशीलता के लिए इतिहास में विख्यात है। टोडरमलजी के पुत्रों में से एक झुंझारसिंह थे, झुंझारसिंह सबसे वीर, परम-प्रतापी, निडर व कुशल योद्धा थे....२
तत्कालीन समय "केड़" नामक गांव पर नवाब का शासन था.... नवाब की बढ़ती ताकत से टोडरमल जी चिंतित हुए परन्तु वो काफी वृद्ध हो चुके थें इसलिए केड़ गांव पर चाहकर भी अधिकार नहीं कर पा रहे थे।
कहते हैं कि टोडरमलजी जब मृत्यु शय्या पर थें तब उनको मन-ही-मन एक बैचेनी उन्हें हर समय खटकती थी...३
छाछरो हवेली के राणा तथा पाकिस्तान के पूर्व रेलमंत्री जिनका दिल सदैव हिंदुस्तान राष्ट्र के लिए धड़कता था जिस कारण 1969 में दोनों देशों के बीच टकराव की स्थिति को चलते उनपर पाकिस्तान सरकार द्वारा जासूसी का आरोप लगाया गया....1
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ऐसे माहौल के बीच सोढ़ा ठाकुर साहब छाछरो की हुकूमत छोड़ ऊंट पर सामान बांधकर हिंदुस्तान आ गये तब वहां की 'मांगणियार महिलाओं' ने विदाई गीत गाएं... "बोल्या चाल्या माफ़ करज्यो, म्हारा राणा रायचंद रे"
अब छाछरो ठाकुर साहब हिंदुस्तान आकर खेती-बाड़ी करने लगे। .....2
दूसरी तरफ़ 71 की जंग छिड़ चुकी थी और कमान जयपुर महाराजा ब्रिगेडियर भवानीसिंह जी के हाथों में थी। छाछरो के मुख्य मौर्चे पर "20राजपूत इन्फैंट्री" व "दरबार की ब्रिगेड" थी।
कहते हैं छाछरो पर अटैक करने से पहले जयपुर दरबार बिग्रेडियर साहब और सोढ़ा ठाकुर साहब की बात हों चुकी थी.....3
द्वितीय-विश्वयुद्ध में जोधपुर एयरबेस से 1000 जंगी जहाजों ने उड़ान भरी थी.... इस एयरपोर्ट का निर्माण मारवाड़(जोधपुर) के तत्कालीन महाराजा उम्मेदसिंह जी राठौड़ ने करवाया था....1
राजस्थान की सबसे बड़ी हॉस्पिटल सवाई मानसिंह अस्पताल जयपुर हैं.... इस अस्पताल का निर्माण महाराजा साहेब सवाई मानसिंह जी कच्छवाह (द्वितीय) ने करवाया था.... दिल्ली एम्स के बाद यह उत्तर-भारत की दूसरी/तीसरी सबसे बड़ी अस्पताल हैं.... सरकारी अस्पताल हैं.... मुफ्त अस्पताल हैं.... 2
राजस्थान के पूर्व व वर्तमान राज्यपालों/मुख्यमंत्रियों/मंत्रियों/सांसदों/विधायकों से ले के प्रदेश की अंतिम पंक्ति में खड़े अंतिम व्यक्ति का इलाज इसी अस्पताल में होता हैं.... शानदार इलाज होता हैं.... आधुनिक उपकरणों मशीनों से इलाज होता हैं.... 3
मुगलों की ताकत मिलने के बाद महादजी सिंधिया ने राजपूताना की रियासतों में तोप व तलवार के बल पर अवैध वसूली और लूटपाट करनी चाही।
कहते हैं कि महादजी सिंधिया ने जयपुर महाराजा प्रतापसिंह जी से 60 लाख रुपए मांगे थे लेकिन जयपुर महाराजा ने....1
60लाख रुपए देने से इंकार कर दिया तब यहादजी सिंधिया ने फ्रांसिसी डिबॉयन को कमांडर बनाकर जयपुर पर चढ़ाई कर दी। अतः परिणामस्वरूप तुंगा नामक स्थान पर भीषण युद्ध हुआ।
तुंगा का युद्ध 28 जुलाई 1787 को जयपुर नरेश सवाई प्रतापसिंह कछवाह तथा मराठा सेनापति महादजी सिंधिया के बीच शुरू हुआ...2
इस युद्ध में जयपुर राज्य की ओर से कछवाहों राजवंश की शेखावत, राजावत, धिरावत, खंगारोत, बलभद्रोत तथा नाथावत शाखाओं ने भाग लिया साथ ही जोधपुर (मारवाड़) के राठौड़ सैनिकों ने भी जयपुर राजघराने का सहयोग किया जबकि मराठों की सेना का नेतृत्व अपने समय के सबसे बड़े सेनानायक....3