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Oct 26, 2021 10 tweets 4 min read Read on X
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Mundakopanishad written around 6000 BCE in ancient India, is associated with the Atharvaveda.
It describes about Tachyons (particles that travel faster than light), Ultra-Violet band, Infra-Red band, Nuclear Energy and Black Holes in the space.
Mundakopanishad has three chapters and each chapter is divided into sub chapters which are called “Khanda“. In total this Upanishad has 64 Mantras.
This Upanishad divides all knowledge into two categories.
The knowledge that leads to Self Realization is called Para Vidya (Great or Divine Knowledge) and everything else is called Apara Vidya or Knowledge of Material world (wordly knowledge).
Another important feature of this upanishad is its lauding of Sarva Karma Sannyasa or Renouncement of All Action. Thus encourages the opinion that monkhood is good way for attaining self-realization.
It has a mantra which describes seven flickering tongues of the fire(light/energy).
Those are Kaali (black one), Karaali (terrific one), Manojava (swift as the mind), Sulohita (the deep red), Sudhumravarna (the smoke-coloured), Sphulligini (sparkling) and...
...the Viswa-Rupi or the Viswaruchi (having all forms).
Whoever performs his Karmas (Agnihotra etc.), when these flames are shining and in proper time, then these oblations lead him through the rays of the sun to where the one God of all dwells.
The properties described for Manojava are same as for Tachyon, which travels faster than light and its speed is equal to that of human mind.
In modern science, Tachyon,(term in use since 1967)
is still a hypothetical faster-than-light particle.
In the 1967 paper that coined the term, Gerald Feinberg proposed that tachyonic particles could be quanta of a quantum field with negative squared mass.
The descriptions of Sulohita is similar to Infra-red rays, of Sudhumravarna is similar to ultra-violet rays, Sphulligini same as nuclear energy and Viswaruchi same as Black Hole in space that can absorb everything.
It won't be an exaggeration to say that if you want to know the answers to the mysteries of the Universe or Multivers or whatever, turn to our scriptures and you find it there.

Jayatu Sanatan 🙏🌺

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Dec 20
🌺।।भगवान विष्णु का प्रथम अवतार: मत्स्य अवतार की कथा।।🌺

श्रीमद्भागवत महापुराण में राजा परीक्षित ने श्री शुकदेव से ईश्वर, जगत और आत्मा के विषय में अनेक प्रश्न किए हैं जिसका श्री शुकदेव ने अपनी दिव्य वाणी से उत्तर देकर उनकी मन की जिज्ञासा को शांत किया ।

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🌺।।परीक्षित का शुकदेव से मत्स्य अवतार की कथा सुनाने का आग्रह करना।।🌺

ईश्वर की कृपा से राजा परीक्षित के मन में प्रभु के मत्स्य अवतार की कथा सुनने की इच्छा जागृत हुई । उन्होंने श्री शुकदेव जी से प्रश्न किया, "प्रभु मैं आपके श्री मुख से श्रीहरि की अनेक दिव्य कथाओं का श्रवण कर चुका हूं और अब मैं आपसे श्रीहरि के दिव्य मत्स्य अवतार की कथा सुनने की इच्छा रखता हूं ।"
श्री शुकदेव बोले, "प्रभु के प्रथम मत्स्य अवतार की कथा अत्यंत दिव्य है जो वक्ता और श्रोता दोनों के मन को पवित्र कर देती है । अतः परीक्षित इस दिव्य कथा को एकाग्रचित्त होकर सुनो ।"

💮प्रभु के मत्स्य अवतार की कथा श्रीमद्भागवत के आठवें स्कंध के 24वें अध्याय में वर्णित है ।💮
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Dec 19
🌺।।महर्षि दधीचि का इन्द्र को दिया गया अपनी हड्डियों का महादान,महाशक्तिशाली देवास्त्र वज्रास्त्र का निर्माण और वृत्रासुर का वध।।🌺

श्रीमद्भागवत और शिव महापुराण में महान ऋषि दधीचि की कथा आती है,जिन्होंने मानवता के कल्याण के लिए अपना शरीर इंद्रदेव को दान कर दिया था।

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महर्षि दधीचि ने समस्त देवताओं को दुर्धर असुर वृत्रासुर के भय से मुक्त किया था ।

इस कथा का श्रीमदभागवत के छठे स्कंध के तीसरे अध्याय में वर्णन आता है ।  

आइए जानते हैं ये अद्भुत कथा;
🌺।।गुरु बृहस्पति का इंद्र को त्यागना।।🌺

एक बार देव गुरु बृहस्पति, इंद्र से मिलने के लिए उनकी राज्यसभा में गए । उस समय इंद्र और अन्य देवगण गंधर्वों के गान और अप्सराओं के नृत्य में इतना डूबे हुए थे कि उन्होंने गुरु बृहस्पति की तरफ कोई ध्यान नहीं दिया । उस समय किसी भी देवता ने ना तो उन्हें प्रणाम किया और ना ही उन्हें उचित आसन दिया ।Image
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Dec 17
🌺।।श्रीमद्भागवत महापुराण से महाराजा अंबरीश की कथा, ऋषि दुर्वासा का उन्हें शाप और एकादशी व्रत का महत्व।।🌺

महाराजा अंबरीष जिनका नाम सुनते ही मन में पवित्रता का भाव जागृत हो जाता है। यह भगवान विष्णु के अनन्य भक्तों में से एक थे।

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शुकदेव जी परीक्षित राजा को ये कथा कह रहे हैं;

महाराजा अंबरीष की सहनशीलता और तपस्या के प्रभाव से दुर्वासा जैसे महाक्रोधी ऋषि भी उनके समक्ष नतमस्तक हो गए थे।महान ग्रंथ श्रीमद्भागवत के नवम स्कंध के चतुर्थ अध्याय में राजा अंबरीष की दिव्य कथा का वर्णन है ।
🌺।।राजा अंबरीष की वंशावली।।🌺

आर्यव्रत सदैव से ही महान राजाओं की भूमि रहा है। समय-समय पर अनेक राजाओं ने भगवान की भक्ति कर देवत्व को प्राप्त किया है। प्राचीन काल में इक्ष्वाकु वंश में नाभाग नाम के बहुत ही धर्मात्मा राजा हुए। वह हर समय अपनी प्रजा की सेवा के लिए तत्पर रहते थे। वह राजा नभग के पुत्र थे और वैवस्वत मनु के पौत्र थे। वह हर समय धर्म के कार्य में लगे रहते थे।
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Dec 16
🌺।।भगवान विष्णु के दिव्यास्त्र सुदर्शन चक्र की उत्पत्ति कथा और उससे जुड़ी कुछ जानकारी।।🌺

सुदर्शन चक्र भगवान विष्णु का अमोघ चक्र है, जिसे प्रभु अपनी तर्जनी उंगली पर धारण करते हैं।

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🌺।।सुदर्शन चक्र के बारे में कुछ जानकारी।।🌺

1. ये अस्त्र मन की गति से चलने वाला और अपने लक्ष्य का पीछा करके, उसे समाप्त करके, वापस प्रभु के पास आ जाता है। 

2. इस चक्र मैं 108 मुड़े हुए किनारे हैं।
3. इस चक्र मैं 12 आरे लगे हैं, जो साल के 12 महीनों को प्रतिष्ठित करते हैं। यह आरे इसके मध्य और किनारों को जोड़ने का कार्य करते हैं। 

4. यह चक्र 6 नाभि वाला है, और 2 युगों से युक्त है।
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Dec 15
🌺।।महाभारत काल में शान्तनु तथा गंगा विवाह और वसुओं का रहस्य।।🌺

राजा शांतनु चंद्र वंश के परम प्रतापी नरेश थेे। वह चक्रवर्ती  सम्राट भरत, जिनके नाम से हमारे देश का नाम भारत पड़ा, की 14वीं पीढ़ी मैं हुए थे।

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वह बहुत ही उत्तम कोटि के नरेश थे। प्रजा का बहुत ध्यान रखते थे। उनको एक ऋषि से वरदान मिला था कि वह जिस रोगी के सिर पर भी हाथ रख दे तो उसका रोग ठीक हो जाएगा इसलिए उनके यहां रोगियों का तांता लगा रहता था ।
पुराणों में राजा शांतनु को सागर का अवतार भी माना गया है। राजा शांतनु को शिकार खेलने का बहुत शौक था, एक बार वह गंगा के किनारे शिकार कर रहे थे और उनको बहुत प्यास लगी वह पानी पीने गंगा नदी के किनारे गए।
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Dec 13
🌺।।जब श्रीकृष्ण ने सत्यभामा को ये समझाया कि जो मनुष्य पुण्य कर्म करने वाले लोगों का दर्शन, स्पर्श और उनके साथ वार्तालाप करता है, वह उनके पुण्य का छठा अंश प्राप्त कर लेता है।।🌺

आइए जानें कार्तिक माह की ये महागाथा;

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श्रीकृष्ण ने सत्यभामा से कहा – ‘पूर्वकाल में अवन्तिपुरी(उज्जैन)में धनेश्वर नाम का एक व्यक्ती रहता था। वह रस, चमड़ा और कम्बल आदि का व्यापार करता था। वह वैश्यागामी और मद्यपान आदि बुरे कर्मों में लिप्त रहता था। चूंकि वह रात-दिन पाप में रत रहता था इसलिए वह व्यापार करने नगर-नगर घूमता था।
एक दिन वह क्रय-विक्रय के कार्य से घूमता हुआ महिष्मतीपुरी में जा पहुँचा जो राजा महिष ने बसाई थी। वहाँ पापनाशिनी नर्मदा सदैव शोभा पाती है। उस नदी के किनारे कार्तिक का व्रत करने वाले बहुत से मनुष्य अनेक गाँवों से स्नान करने के लिए आये हुए थे। धनेश्वर ने उन सबको देखा और अपना सामान बेचता हुआ वह भी एक मास तक वहीं रहा।
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