किसी भी चुनाव को रद्द करना है तो सभी दलों की सहमति होना चाहिए। विडंबना देखिए कि लखनऊ दौरे पर गए चुनाव आयोग के दल को कल एक भी राजनीतिक दल ने नहीं कहा कि चुनाव टाल दीजिए बल्कि सबने एक सुर में कहा कि चुनाव समय पर होना चाहिए।
वैसे तो हमाम में सब नंगे हैं लेकिन अगर हमाम सियासी हो तो नंगई जन्मसिद्ध अधिकार व कर्तव्य हो जाता है।
कोरोना की पिछली विभीषिका देखने व कोर्ट के निवेदन के बाद वैसे तो केंद्र व राज्य सरकारों की जिम्मेदारी बनती थी कि वह आगे बढ़ कर खुद इस बात को सभी राजनीतिक दलों के सामने रखता कि
अभी चुनाव का उपयुक्त समय नहीं है। खैर इस सरकार को चुनाव लड़ने में आनंद आता है इसलिए उससे अपेक्षा बेकार है।
इस समय का मौजूदा विपक्ष सरकार को किसी तरह की चुनौती न दे पा रहा। सरकार को किसी विधा चुनौती मिले और उसकी तुक्का फ़ज़ीहत हो इसलिए सभी विपक्षी दल शायद यही चाहते है क्यों कि
कोरोना फैलने पर सरकार को दोषी ठहरा कुछ तो सहानुभूति मिल ही जाती है।
खैर गलती से ये सरकार कह ही दे कि चुनाव टाल दिया जाय, तो आज के विपक्ष को यह लोकतंत्र पर हमला लगने लगेगा और चुनाव आयोग स्वयं ही चुनाव टाल दे तो यही विपक्ष अयोग को बिका हुआ घोषित कर देगा।
यहां सामान्य जनता की भी तो कोई जिम्मेदारी नहीं है। सरकार विरोधी लोग कोरोना को लेकर चुनाव और रैलियों के खिलाफ माहौल बना रहे जबकि धरातल पर लोगों को रत्ती भर फर्क नहीं पड़ रहा। अगर कोरोना ज्यादा फैला तो जो लोग वैक्सीन नहीं लगवा रहे, मास्क भी नहीं पहन रहे और भीड़ में घूम रहे हैं
वो भी चुनाव और केंद्र सरकार पर ठीकरा फोड़ देंगे क्यों कि यंहा हर तरह के गलत की जिम्मेदारी सरकार की होती है।
जब भी चुनाव होता है, चुनाव में मुद्दे होते हैं।
मुद्दे चुनावी संग्राम की सुंदरता होती है। मुद्दों को जमीन से उठाया जाता है, फिर इसे आम जनता में भुनाया जाता है।मुद्दों पर सत्ता को घेरने की कोशिश होती है।सत्ता के राजनीतिक मातहत डिफेंस करते हैं।विपक्ष उन डिफेंसेज का काउंटर करता है।
देश की लैंडमार्क पॉलिटिक्स यूपी से होती है। लेकिन आश्चर्य कि इस चुनाव यहां एक भी मुद्दे अभी तक टिक नहीं पाए हैं। आधारभूत सुविधा मुद्दा नहीं है। बिजली, सड़क, खाद्यान्न मुद्दा नहीं है। भ्रष्टाचार मुद्दा नहीं है। लॉ एंड ऑर्डर मुद्दा नहीं है। गुंडागर्दी मुद्दा नहीं है।
माफियागिरी मुद्दा नहीं है। अपराधी को जेल भी नसीब नहीं है। शिक्षा माफिया के घर बुलडोजर चलाए जा रहे। परीक्षाओं में नकल संभव नहीं।
अर्थव्यवस्था देश में 17वें पायदान से उठकर 2रे पायदान पर आ गया है। रोजगार के लिए उद्योग धंधे लाल कारपेट सम्मान पा रहे। दंगा हो नहीं रहा है।
गोगोई ने सच कहा तो
दागी भ्रष्ट जजों के नाम बता कर
बाहर किया जाये, अन्यथा,
गोगोई पर अदालत की अवमानना
की कार्रवाई शुरू हो -
पूर्व चीफ जस्टिस रंजन गोगोई से
सुधीर चौधरी, ज़ी न्यूज़ के संपादक
ने उनकी आत्मकथा "Justice for
Judges" के प्रकाशित होने से पूर्व
सीधा सवाल
किया था कि क्या
सुप्रीम कोर्ट में भी भ्र्ष्टाचार है -
इस पर रंजन गोगोई ने कहा -
"जज आसमान से नहीं गिरते हैं.
भ्रष्टाचार उतना ही पुराना है जितना
कि समाज. भ्रष्टाचार जीवन का एक
तरीका बन गया है – जीवन का ऐसा
तरीका जिसे लोग अब स्वीकार्य
करते हैं"
सुप्रीम कोर्ट में भ्रष्टाचार के लिए इतनी
बड़ी स्वीकारोक्ति के लिए मीडिया के
किसी चैनल में कोई बहस नहीं हुई,
कोई शोर नहीं मचा और ना ही CJI
एन वी रमना की तरफ से किसी तरह
की कोई प्रतिक्रिया नहीं आई --
मैं रंजन गोगोई के कथन से सहमत
नहीं हूँ कि भ्रष्टाचार जीवन का ऐसा
भूल गए न ?
वे चैराहों पर पीटी जाती औरतें ,,,
एयरपोर्ट पर अनजान अमेरिकी सैनिकों को अपने दुधमुंहे बच्चे सौंपती बेबस माएँ,
मासूम बच्चियों को छाती से चिपटाकर बेतहाशा भागती औरतें ,
सचमुच भूल गए न ?
वक्त भी क्या चीज है , बड़े और गहरे जख्मों को भी भर देता है !
स्मृतियाँ भी ऐसी हैं !
बेशक याद आती हैं पर वक्त के साथ हल्की पड़ती जाती हैं , उतना दर्द नहीं देती !
अब देखिए न ! अफगानिस्तान और प्रतिदिन यातनाएं भोग रही उसकी जनता को हमने किस तरह भुला दिया !
कोई चर्चा भी नहीं होती तो किसी को दर्द भी नहीं होता !
बदकिस्मती देखिये कि अफगानियों के जख्म आज भी उतने ही हरे हैं!
ज़ुल्म की दास्तान उसी तरह लिखी जा रही है!
घरों से लड़कियाँ उठाई जा रही हैं,चैराहों पर कोड़े बरस रहे हैं,स्कूल कालेज की चौखट पर खड़ी लड़कियाँ भीतर जाने को तडफ़ रही हैं , सड़कों पर नर्क आज भी पसरा हुआ है !
दिग्विजय सिंह --मानसिक रोगी -
अपनी लुगाई से तो पूछ लो,
क्या वो भी मोदी से प्रभावित है -
हिन्दू कौन, ये बताने की औकात
नहीं है तुम्हारी --
सच में लगता है दिग्विजय सिंह एक
मानसिक रोगी है --उसने अपने एक
बयान में कहा है कि प्रियंका वाढरा
ने उसे "ज्ञान" दिया है जिसके
अनुसार
पैंट जींस पहनने वाली लड़कियां
मोदी से प्रभावित नहीं है बल्कि 40
वर्ष से ऊपर की औरतें मोदी से ज्यादा
प्रभावित हैं --
कितना गिरोगे दिग्विजय सिंह मोदी
को कोसने के लिए, वो भी तब, जब
वो तुम लोगों की अनर्गल बकवास
का जवाब नहीं देते --
अब एक बार प्रियंका से ही
पूछ लो
दिग्विजय, वो तो जींस छोड़ कर साड़ी
पहन रही है और 49 वर्ष की है -
वो क्यों मोदी से प्रभावित नहीं है;
आपने घर में लुगाई अमृता राय से भी
पूछ लो जो आज 49 वर्ष की हैं कि
क्या वो भी तो मोदी से प्रभावित तो नहीं
हैं --उनकी शादी जब आपसे हुई थी,
तब भी वो 43 वर्ष की थी
TV पर शाहरुख़ खान आते हैं अजय देवगन के साथ दो रुपए वाला पान मसाला बेंचते हुवे. मुझे मालूम है शाहरुख़ खान ऐसे दस मसाला वालों को ख़रीद लें. मैं ब्रांड शाहरुख़ का कोई फ़ैन भी नहीं. पर मुझे और इस ब्रांड के मालिक को मालूम है जब शाहरुख़ स्क्रीन पर ये मसाला खाते हैं तो सवा अरब के
भारत में पचीस करोड़ यह मानते हैं कि वाक़ई शाहरुख़ यह खाते हैं और वह bhi यह ज़हर खाने लगते हैं.
यह होती है ब्रांड और ब्रांड अंबेसडर की ताक़त.
भारत में नेहरू परिवार ने दसियों साल ब्रांड गांधी पर खर्च किया है. एक समझदार व्यवसाई होते हुवे मैं व्यक्तिगत गांधी से असहमत हूँ तो
भी मुझे पता है एज आ ब्रांड गांधी दुनिया के सबसे बड़े ब्रांड हैं. आप खरबों खर्च कर इस ब्रांड को मिटाएँ इससे बेहतर है गांधी ब्रांड पर क़ब्ज़ा कर अपना प्रोडक्ट बेंचे. मुझे मोदी जी इस लिए और पसंद हैं कि उन्मे इतनी बेसिक समझ है कि उन्हें पता है किसे मिटाना है और
"हिंदुस्तान ही खालिस्तान है" और "सारा खालिस्तान ही हिंदुस्तान है"
पंजाब के Nangal (नंगल) और लुधियाना ' में कुछ कार्यक्रम थे । प्रश्नोत्तर सत्र के दौरान वहां आमंत्रित मुख्य अतिथि से खालिस्तान समर्थक एक बंधु ने तीख़ा प्रश्न करते हुए कहा- खालिस्तान की मांग पर आप
(हिन्दुओं) को क्या कहना है?
मुख्य अतिथि ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया :-
जब देश को और धर्म को आध्यात्मिकता से ओत-प्रोत, शीश देने वाले वीरों की आवश्यकता थी तब "पिता दशमेश" गुरु गोविंद सिंह जी महाराज ने "ख़ालसा पंथ" का सृजन करते हुए "संत-सिपाही" परंपरा की नींव डाली थी,
जिसमें हर जाति, वर्ण और क्षेत्र के लोग शामिल हुए ताकि धर्म बच सके।
यानि खालसा पंथ लोगों को समाज को और राष्ट्र को जोड़ने के लिए आया था लेकिन दुर्भाग्य से कुछ लोगों ने इस पवित्र शब्द का दुरूपयोग कर इस शब्द का प्रयोग भारत को तोड़ने के लिए और लोगों को बांटने के लिए उपयोग मे