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Jan 9 46 tweets 15 min read
#श्रीमद्भगवद्गीता
‘सञ्जय उवाच’

दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा ।
आचार्यमुपसङ्गम्य राजा वचनमब्रवीत् ।२।

पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम् ।
व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता ।३।
#श्रीमद्भगवद्गीता

संजय बोले — उस समय राजा दुर्योधन ने व्यूहरचनायुक्त पाण्डवों की सेना को देखकर और द्रोणाचार्य के पास जाकर यह वचन कहा, “हे आचार्य! आपके बुद्धिमान् शिष्य द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्न द्वारा व्यूहाकार खड़ी की हुई पाण्डु पुत्रों की इस बड़ी भारी सेना को देखिये।” ॥२-३॥
#श्रीमद्भगवद्गीता

अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि ।
युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः ।४।

धृष्टकेतुश्चेकितानः काशिराजश्च वीर्यवान् ।
पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुङ्गवः ।५।

युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान्।
सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः ।६।
इस सेना में बड़े-बड़े धनुषों वाले तथा युद्ध में भीम और अर्जुन के समान शूरवीर सात्यकि व विराट तथा महारथी राजा द्रुपद, धृष्टकेतु, चेकितान तथा बलवान् काशिराज, पुरुजित्, कुन्तिभोज और मनुष्यों में श्रेष्ठ शैब्य, पराक्रमी युधामन्यु तथा बलवान् उत्तमौजा, सुभद्रापुत्र अभिमन्यु एवं द्रौपदी
…के पाँचों पुत्र-ये सभी महारथी हैं। ।४-६।

अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम।
नायका मम सैन्यस्य संज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते।७।
हे ब्राह्मणश्रेष्ठ! अपने पक्ष में भी जो प्रधान हैं, उनको आप समझ लीजिये। आपकी जानकारी के लिये मेरी सेना के जो-जो सेनापति हैं, उनको बताता हूँ। ।७।
#श्रीमद्भगवद्गीता

भवान् भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिञ्जयः।
अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च ।८।

आप - द्रोणाचार्य और पितामह भीष्म तथा कर्ण और संग्राम विजयी कृपाचार्य तथा वैसे ही अश्वत्थामा, विकर्ण और सोमदत्त का पुत्र भूरिश्रवा है। ॥८॥
#जय_श्री_कृष्ण
#श्रीमद्भगवद्गीता

अन्ये च बहवः शूरा मदर्थे त्यक्तजीविताः।
नानाशस्त्रप्रहरणाः सर्वे युद्धविशारदाः ।९।

इसके अतिरिक्त मेरे लिये जीवन की आशा त्याग देने वाले बहुत से शूरवीर अनेक प्रकार के शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित और सब-के सब युद्ध में चतुर हैं ॥९॥
#जय_श्री_कृष्ण
#श्रीमद्भगवद्गीता जी में आगे सञ्जय कहते हैं कि –

अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम् ।
पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम् । १० ।

अर्थात — भीष्म पितामह द्वारा रक्षित हमारी वह सेना सब प्रकार से अजेय है और भीम द्वारा रक्षित इन लोगों की यह सेना जीतने में सुगम है। ॥ १०॥
#श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय १, श्लोक ११

पर्याप्तं अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः । भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि । ११ ।

अर्थात — अतएव सब मोर्चों पर अपनी - अपनी जगह स्थित रहते हुए आप लोग सभी निःसन्देह भीष्म पितामह की ही सब ओर से रक्षा करें। ॥ ११॥
#श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय -१, श्लोक - १२ व १३

तस्य सञ्जनयन् हर्षं कुरुवृद्धः पितामहः ।
सिंहनादं विनद्योच्चैः शङ्खं दध्मौ प्रतापवान् । १२ ।

ततः शङ्खाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः ।
सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत् । १३ ।
अर्थात — कौरवों में वृद्ध बड़े प्रतापी पितामह भीष्म ने उस दुर्योधन के हृदय में हर्ष उत्पन्न करते हुए उच्च स्वर से सिंह की दहाड़ के समान गरज कर शंख बजाया। इसके पश्चात् शंख और नगारे तथा ढोल, मृदंग और नरसिंघे आदि बाजे एक साथ ही बज उठे। उनका वह शब्द बड़ा भयंकर हुआ।
॥ १२-१३ ॥
#श्रीमद्भगवद्गीता

ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ ।
माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः । १४ ।

पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्जयः ।
पौण्ड्रं दध्मौ महाशङ्खं भीमकर्मा वृकोदरः । १५ ।

(श्लोक संख्या १४ व १५ में सञ्जय महाराज धृतराष्ट्र जी को बताते हैं कि) —👇🏻
श्लोकार्थ — इसके अनन्तर सफेद घोड़ों से युक्त उत्तम रथ में बैठे हुए श्री कृष्ण महाराज और कुन्ती पुत्र अर्जुन ने भी अलौकिक शंख बजाये।
श्रीकृष्ण महाराज ने पांचजन्य नामक, अर्जुन ने देवदत्त नामक और भयानक कर्म वाले भीमसेन ने पौण्ड्र नामक महाशंख बजाया ॥ १४-१५॥
#श्रीमद्भगवद्गीता के इस श्लोक में संजय महाराज धृतराष्ट्र को वर्णन कर रहे है कि —
अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः ।
नकुलः सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ । १६ ।

श्लोकार्थ – कुन्ती पुत्र राजा युधिष्ठिर ने अनन्तविजय नामक और नकुल तथा सहदेव ने सुघोष और मणिपुष्पक नामक शंख बजाये। ॥१६॥
#श्रीमद्भगवद्गीता के प्रथम अध्याय में श्लोक संख्या १७ और १८ इस प्रकार से हैं —

काश्यश्च परमेष्वासः शिखण्डी च महारथः ।
धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजितः । १७ ।

द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वशः पृथिवीपते ।
सौभद्रश्च महाबाहुः शङ्खान्दध्मुः पृथक् पृथक् । १८ ।
#श्रीमद्भगवद्गीता
पूर्वोक्त श्लोकों का अर्थ – श्रेष्ठ धनुषवाले काशिराज और महारथी शिखण्डी एवं धृष्टद्युम्न तथा राजा विराट और अजेय सात्यकि, राजा द्रुपद एवं द्रौपदी के पाँचों पुत्र और बड़ी भुजा वाले सुभद्रा पुत्र अभिमन्यु – इन सभी ने, हे राजन्! सब ओर से अलग-अलग शंख बजाये। ॥१७, १८॥
#श्रीमद्भगवद्गीता
‘अध्याय प्रथम, श्लोक संख्या १९’

स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत् ।
नभश्च पृथिवीं चैव तुमुलो व्यनुनादयन् । १९ ।

अर्थात – और उस भयानक शब्द ने आकाश और पृथ्वी को भी गुँजाते हुए धार्तराष्ट्रों के अर्थात् आप के पक्ष वालों के हृदय विदीर्ण कर दिये है। ॥ १९ ॥
#श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय – १, ‘श्लोक २०-२१’

अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान् कपिध्वजः ।
प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः । २० ।

हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते ।
‘अर्जुन उवाच’
सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत । २१ ।
श्लोकार्थ – हे राजन्! इसके बाद कपिध्वज अर्जुन ने मोर्चा बाँधकर डटे हुए धृतराष्ट्र सम्बन्धियों को देखकर, उस शस्त्र चलने की तैयारी के समय धनुष उठाकर हृषीकेश श्रीकृष्ण महाराज से यह वचन कहा — हे अच्युत! मेरे रथ को दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा कीजिये ॥ २०-२१ ॥
#श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय – १, श्लोक २२–२३
यावदेतान्निरीक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान् ।
कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन्रणसमुद्यमे ।२२।

योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः ।
धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः ।२३।

श्लोकार्थ — और जब तक कि मैं युद्ध क्षेत्र में डटे +
युद्ध के अभिलाषी इन विपक्षी योद्धाओं को भली प्रकार देख लूँ कि इस युद्ध रूप व्यापार में मुझे किन-किन के साथ युद्ध करना योग्य है, तब तक उसे खड़ा रखिये। दुर्बुद्धि दुर्योधन का युद्ध में हित चाहने वाले जो-जो ये राजा लोग इस सेना में आये हैं, इन युद्ध करने वालों को मैं देखूँगा ॥२२-२३॥
#श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय - १, श्लोक संख्या – २४ व २५

एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत ।
सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम् । २४ ।

भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम् ।
उवाच पार्थ पश्यैतान् समवेतान्कुरूनिति । २५ ।
श्लोकार्थ — संजय बोले – हे धृतराष्ट्र! अर्जुन द्वारा इस प्रकार कहे हुए महाराज श्रीकृष्ण चन्द्र ने दोनों सेनाओं के बीच में भीष्म और द्रोणाचार्य के सामने तथा सम्पूर्ण राजाओं के सामने उत्तम रथ को खड़ा करके इस प्रकार कहा कि हे पार्थ! युद्ध के लिये जुटे हुए इन कौरवों को देख ॥ २४-२५ ॥
#श्रीमद्भगवद्गीता
तत्रापश्यत्स्थितान् पार्थ: पितॄनथ पितामहान् ।
आचार्यान्मातुलान्ध्रातॄन्पुत्रान्यौत्रान्सखींस्तथा ।२६।
श्लोकार्थ — अर्जुन ने उन दोनों ही सेनाओं में स्थित ताऊ-चाचों, दादों परदादों, गुरुओं, मामाओं, भाइयों, पुत्रों, पौत्रों तथा मित्रों, ससुरों और सुहृदों को भी देखा।
श्वशुरान् सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि ।
तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान्बन्धूनवस्थितान् । २७ ।
कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत् ।
‘अर्जुन उवाच’
दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम् । २८ ।
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति ।
वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते । २९ ।
उपस्थित सम्पूर्ण बन्धुओं को देखकर कुन्ती पुत्र अर्जुन ने अत्यन्त करुणा से युक्त होकर शोक करते हुए यह वचन बोले – हे कृष्ण! युद्ध क्षेत्र में डटे हुए युद्धाभिलाषी इस स्वजन समुदाय को देखकर मेरे अंग शिथिल और मुख सूखा जा रहा है तथा मेरे शरीर में कम्प एवं रोमांच हो रहा है ।। २७-२९ ।।
#श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय – १, श्लोक संख्या ३०-३१

गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते ।
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः । ३० ।

निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव ।
न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे । ३१ ।
श्लोकार्थ — हाथ से गाण्डीव धनुष गिर रहा है और त्वचा भी बहुत जल रही है तथा मेरा मन भ्रमित-सा हो रहा है; इसलिये मैं खड़ा रहने को भी समर्थ नहीं हूँ।
हे केशव! मैं लक्षणों को भी विपरीत ही देख रहा हूँ तथा युद्ध में स्वजन-समुदाय को मारकर कल्याण भी नहीं देखता। ॥ ३०-३१ ॥
#श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय - १

न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च ।
किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा । ३२ ।

येषामर्थे काङ्क्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च ।
त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च । ३३ ।
#ShriGitaJi
श्लोकार्थ — हे कृष्ण! मैं न तो विजय चाहता हूँ और न राज्य तथा सुखों को ही। हे गोविन्द ! हमें ऐसे राज्य से क्या प्रयोजन है या ऐसे भोगों से व जीवन से भी क्या लाभ है? हमें जिनके लिये राज्य, भोग और सुखादि अभीष्ट हैं, वे ही सब धन और जीवन की आशा को त्यागकर युद्ध में खड़े हैं ॥ ३२-३३ ॥
#श्रीमद्भगवद्गीता #ShriGitaJi
अध्याय – १, श्लोक ३४ - ३५

आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः ।
मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः सम्बन्धिनस्तथा । ३४ ।

एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन ।
अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते । ३५ ।
श्लोकार्थ — गुरुजन, ताऊ-चाचे, लड़के और उसी प्रकार दादे, मामे, ससुर, पौत्र, साले तथा और भी सम्बन्धी लोग हैं।
हे मधुसूदन! मुझे मारने पर भी अथवा तीनों लोकों के राज्य के लिये भी मैं इन सबको मारना नहीं चाहता; फिर पृथ्वी के लिये तो कहना ही क्या है? ॥ ३४-३५ ॥ #ShriGitaJi
#श्रीमद्भगवद्गीता #ShriGitaJi
अध्याय – १, श्लोक ३६ - ३७

निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्याज्जनार्दन ।
पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतानाततायिनः । ३६ ।

तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान् ।
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव । ३७ ।
श्लोकार्थ — हे जनार्दन! धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर हमें क्या प्रसन्नता होगी? इन आततायियों को मारकर तो हमें पाप ही लगेगा।
अतएव हे माधव! अपने ही बान्धव धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारने के लिये हम योग्य नहीं हैं; क्योंकि अपने ही कुटुम्ब को मारकर हम कैसे सुखी होंगे? ॥३६-३७ ॥
#श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय – १ (क्रमशः)

यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः ।
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम् । ३८ ।

कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम् ।
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन । ३९ ।
श्लोकार्थ — यद्यपि लोभ से भ्रष्टचित्त हुए ये लोग कुल के नाश से उत्पन्न दोष को और मित्रों से विरोध करने में पाप को नहीं देखते तो भी हे जनार्दन! कुल के नाश से उत्पन्न दोष को जानने वाले हम लोगों को इस पाप से हटने के लिये क्यों नहीं विचार करना चाहिये? ॥३८-३९॥ #ShriGitaJi
#श्रीमद्भगवद्गीता

कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः।
धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत । ४० ।

अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः ।
स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसङ्करः । ४१ ।
श्लोकार्थ — कुल के नाश से सनातन कुल-धर्म नष्ट हो जाते हैं, धर्म के नाश हो जाने पर सम्पूर्ण कुल में पाप भी बहुत फैल जाता है। हे कृष्ण! पाप के अधिक बढ़ जाने से कुल की स्त्रियाँ अत्यन्त दूषित हो जाती हैं और हे वार्ष्णेय! स्त्रियों के दूषित हो जाने पर वर्णसंकर उत्पन्न होता है ॥४०-४१॥
#श्रीमद्भगवद्गीता | अध्याय - १
श्लोक संख्या – ।४२-४३।

सङ्करो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च ।
पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः। ४२।

दोषैरेतैः कुलघ्नानां वर्णसङ्करकारकैः ।
उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः । ४३।

#ShriGitaJi

श्लोकार्थ — 👇🏻
वर्णसंकर कुलघातियों को और कुल को नरक में ले जाने के लिये ही होता है। लुप्त हुई पिण्ड और जल की क्रिया वाले अर्थात् श्राद्ध और तर्पण से वंचित इन के पितर लोग भी अधोगति को प्राप्त होते हैं। इन वर्णसंकर कारक दोषों से कुलघातियों के सनातन कुल-धर्म और जाति-धर्म नष्ट हो जाते हैं। ॥४२-४३॥
#श्रीमद्भगवद्गीता
उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन ।
नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम । ४४ ।
अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम् ।
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः । ४५ ।
यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः ।
धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत् । ४६ ।
श्लोकार्थ — हे जनार्दन! जिनका कुल-धर्म नष्ट हो गया है, ऐसे मनुष्यों का अनिश्चित काल तक नरक में वास होता है, ऐसा हम सुनते आये हैं। हा! शोक! हम लोग बुद्धिमान् होकर भी महान् पाप करने को तैयार हो गये हैं, जो राज्य और सुख के लोभ से स्वजनों को मारने के लिये उद्यत हो गये हैं। क्रमशः…
…यदि मुझ शस्त्र रहित एवं सामना न करने वाले को शस्त्र हाथ में लिये हुए धृतराष्ट्र के पुत्र रण में मार डालें तो वह मारना भी मेरे लिये अधिक कल्याणकारक होगा। ॥ ४४ - ४६ ॥ #ShriGitaJi

इसके बाद #श्रीमद्भगवद्गीता के पहले अध्याय के अंतिम श्लोक के रूप में संजय धृतराष्ट्र से कहते हैं…👇🏻
‘सञ्जय उवाच’
एवमुक्त्वार्जुनः सङ्ख्ये रथोपस्थ उपाविशत् ।
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः । ४७ ।

#ShriGitaJi #श्रीमद्भगवद्गीता

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादेऽर्जुनविषादयोगो नाम प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥
‘संजय बोले’
रणभूमि में शोक से उद्विग्न मन वाले अर्जुन इस प्रकार कहकर, बाण सहित धनुष को त्याग कर रथ के पिछले भाग में बैठ गये ॥ ४७ ॥

“इस तरह से श्रीमद्भगवद्गीता उपनिषद् से ब्रह्मविद्या के योगशास्त्र से श्रीकृष्ण अर्जुन संवाद का अर्जुनविषादयोग नामक पहला अध्याय समाप्त होता है।” ॥१॥
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Jan 23
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