राम से मेरा प्रेम स्वाभाविक है..
जीवन की प्रथम स्मृति यही है कि बाबा पलंग के कोने में आसान पे मानस पढ़ते थे और उनकी उसी सुमधुर ध्वनि से से नींद खुलती थी!

अवधी भाषा का ज्ञान ना होने से मेरा मन केवल अर्थ सुनने में रहता जो बाबा बिना झुंझलाए सुनाते थे..
उमर बढ़ी ..

(धागा)
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#राम
और प्रेम वैसे ही बढ़ता गया..राम की कहानी मेरी सबसे पसंदीदा कथा थी..

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पर अब बड़े होने के साथ हिन्दू होने का सबसे बड़ा लक्षण परवर्ती हुआ – तर्क
इस बीच अक्सर मंदिर मंदिर – मस्जिद विवाद सुनती थी तो बाबा से पूछा मंदिर इतना जरूरी क्यों?
बाबा ने पूछा क्यों नहीं है?
इस बीच उतर रामायण ने मेरे पसंद पर प्रश्न किया।राम हिन्दी फिल्मों में दिखाए जाने वाले दर्प ग्रसित हिन्दू पुरुष लगे जिसके लिए पत्नी भोग्या थी
मेरी उस मधुर भावना पर तुषारापात हो गया जिसमें राम वो मृदु प्रेमी थे जिन्होंने सीता को लता भवन में देख, रात भर चन्द्रमा से अपनी व्यथा कथा कही थी!...
खैर संस्कार संस्कार होते है और कॉलेज में ऐसा माहौल होता है कि आप सामाजिक चिन्तन के नाम पे ब्रांड्स का नाम और कंपनी की लिस्ट बनाते है, यदि पूजा पाठ करते है तो आप अंधविश्वासी है!
साफ हिसाब था,कोई गुंजाइश नहीं थी..
पर चिन्तन बना रहा जो कई दिशाओं में जाता था.
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पढ़ाई के बाद उत्तर अध्ययन के लिए लगभग सारे भारत में रहने घूमने का अवसर मिला
यह समय मेरे जीवन का सबसे सुन्दर समय था..
भारत के लंबाई चौड़ाई को यदि कुछ बांधता है वो है राम..
चाहे गुजरात की राम नवमी हो या बंगाल का अकाबोधन या तमिलों का सुबह सुबह MS सुब्बुलक्ष्मी की आवाज में बजने वाला “ राम चन्द्र कृपालु भज मन”..
भरतनाट्यम् वर्कशॉप में किन्हीं भी राम भजन पर एक नृत्य नाटिका का प्रबन्ध होता था जो बहुत ही सुखद आश्चर्य में डालता था...
ऐसा क्या था या है राम में जो सारा भारत स्नेह करता है श्री राम से, किसी की तुलना राम से करना श्रेय है...की राम वो राजा है जो प्रत्येक हृदय में राज करते है...
..की कार सेवा के नाम पे सारा भारत अयोध्या इकट्ठा गया..

की प्रधानमंत्री नेहरू से लड़ कर दो IAS अफसर जो देश के सुदूर दक्षिण और उत्तर भाग से आते थे, मिलकर इतिहास की नीव रख दी!
वो IAS थे,उनका तर्क हमसे अधिक संपन्न रहा होगा पर उन्होंने क्यों नहीं कहा मंदिर–मस्जिद एक समान!?
उनको महाठगिनी माया क्यों व्याप गई?
राम प्रेम के चिन्ह होने के बाद भी अत्यधिक शौर्य के परिचायक क्यूं रहे?
उनके चरित्र की शक्ति है कि सर्वोच्च बलिदान देने के लिए उनका नाम पराक्रम जनक रहा
”सियावर राम चन्द्र की जय” कहके वीर भीषण समर में भी विजय प्रशस्त समझते थे!
लेकिन इन प्रश्नों का उतर आप कहा ढूंढेंगे?..फैजाबाद में,या लखनऊ में, या बस्ती या देवरिया में जो प्राचीन अवध होता था, आज कुछ नहीं...भले यहूदी, ईसाई, मुसलमान आज भी अपने पवित्र स्थान येरूसलम के लिए आज भी लड़ते है... मक्का आज भी मक्का है, वैटिकन आज भी वैटिकन पर ना अवध वैसा है ना बृज..
आध्यात्म को ना जानने वाले , मेरे जैसे कहानियों को मानने वाले समन्यजन बनारस में आध्यात्म ढूंढने की जगह उस चबूतरे को अपनी श्रद्धा समर्पित करते रहे..अपनी सारी मनोकांक्षाए और प्रेम उसपे निछावर करते ...
वहा भारत के कोने कोने से लोग आते है जो किसी ऐतिहासिक तथ्य के “इति” और “ह्वास” को ना मान , उस एकांकी चौतरे को अपने “अनंत” पर विश्वास से चुनौती देते है!
और बगल के शिला निर्माण में एक ईंट भी दान देते है..कोई कोई अपने सर पर ईंट रखके भी लाता है सुदूर दक्षिण और कश्मीर से पैदल चल..
पर इतनी आस्था के बाद भी चेतना केंद्र के नाम पर हमारे पास वाराणसी का तुलसी घाट ,चित्रकूट और दंडकारण्य है..
भले हमारे वर्तमान महान व्यक्तियों के नाम रामानुजम,रामदास और राममोहन या तत्कालीन वामपंथी नेता का सीताराम हो पर उनके अस्तित्व विमर्श के नाम पर कोहिनूर देने वाला भारत कितना गरीब दिखता था..
इस बीच जीवन में कर्तव्य आए और जब निर्वाहन में अंतर्द्वंद्व आया तब एक भावना आती थी कि कोई ऐसा हो जो कहे जैसा मन करे, निडरता से करो और सिया राम के संग का महत्व समझ में आया...
उन्होंने रानी की तरह गौरवयापन किया..जिस राम राज के लिए राम को जाना गया सीता उसकी कुण्डलिनी थी! राम का जैसा स्वभाव है, लगता है जाते समय सीता ने मुस्कुराते हुए बहलाया होगा कि मै जल्द ही वापस आऊंगी,पर हृदय दोनो का ही समझता था ...
बाद में उतर रामायण के क्षेपक होने का संदेह हुआ तो आश्चर्य नहीं हुआ...जब राम का मंदिर ऐसे तोड़ा जा सकता है, स्वयंभू शिव को लेके पुजारी को कुएं में कूदना पड़ता है...तो यह तो प्रशांत ग्रन्थ है
पर अब फर्क नहीं पड़ता क्यूंकि अब वो परिक्वता है कि समझ में आए की अचिंत्य बन्धन में बंधे राधा–कृष्ण की पूजा साथ ही होगी,क्योंकि वो दैवीय है, गुण–दोषमय नहीं...
राम सीता के साथ भी यही है!..
जब राम मंदिर का फैसला आया..और जब शिला पूजन हुआ.. मैं शांत हो चुकी थी..क्योंकि मन यह मान चुका था कि यह होगा क्योंकि हम प्रतीक्षा नहीं कर रहे थे, कर्म कर रहे थे...
हम भी, वो वकील, वो कार्यकर्ता, वो स्वयंसेवक सब..
जब शिला पूजन चल रहा था मेरा मन अपने गांव के बगीचे के हनुमान जी पास बैठा था...गांव में हनुमान जी चबूतरे के रूप में बगीचे के बीच होते है,जहा दोपहर में भी ठंडी हवा आती है,उतरोतर कीर्तन आदि के नैसर्गिक सुविधा हेतु....
मन उसी चबूतरे के पास बैठ हजारों साल के संघर्ष को सोच रहा था और राम की उस चेतना का विचार कर रहा था जो कभी तुलसी से प्रखर हुई, कभी कृतिवास, कभी कंब से..
जो रहीम और इकबाल के लिए भी “इमाम–ए–हिंदोस्ता” थे..
उस दिन विश्वास के मायने समझ में आए और यह भी समझ आया कि धर्म को हम नहीं चुनते, हम बस निभाते है..धर्म प्राकृतिक है और शास्वत भी।
जब जब धर्म विपन्न होगा दक्षिण से शंकराचार्य और उतर से तुलसी स्वयं प्रकट हो जायेंगे!
चेतना अनवरत है और सियाराम सनातन!

“कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम।
तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम”
पश्चिम से गोगोई और पूर्व से गोगोई भी आएंगे 🌸❤️

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