ये तस्वीर हैं इंग्लैंड के लंकाशायर में डार्वेन नाम की जगह की।महात्मा गांधी को 1931 में इंग्लैंड दौरे के वक्त यहां आने का न्यौता मिला था।उन्हें आमंत्रित करनेवाला डेविस घराना था।डेविस घराना कपड़ा मिल चलाता था लेकिन उस दौर में बुरे हाल से गुज़र रहा था।उसकी बदहाली की एक बड़ी वजह खुद
महात्मा गांधी थे।गांधी जी ने देसी व्यापार पर अंग्रेज़ी शिकंजा कसता देख विदेशी माल के बहिष्कार का आह्वान किया था।उसी आह्वान का असर था कि इंग्लैंड में बन रहे कपड़े की खपत भारत में अचानक घटती चली गई और देखते ही देखते नुकसान उठा रहे कपड़ा मिलों ने मज़दूरों की छंटनी शुरू कर दी।डेविस
घराना चाहता था कि गांधी जी खुद आकर श्रमिकों की हालत देखें।पर्सी डेविस को उम्मीद थी कि वो महात्मा गांधी को विदेशी माल के बहिष्कार के फैसले से डिगा लेंगे।
25 सितंबर 1931 को गांधी डार्वेन पहुंचे थे। आशंका जताई जा रही थी कि परेशान हाल श्रमिक उनका ज़बरदस्त विरोध करेंगे लेकिन जब गांधी
पहुंचे तो नज़ारा एकदम बदला हुआ था।उनका शानदार स्वागत किया जा रहा था।अपनी ही सरकार के खिलाफ लड़ रहे बूढ़े आदमी के इस्तकबाल में श्रमिक और उनके परिवार बिछे जा रहे थे।गुस्टा ग्रीन जो उस वक्त महज़ दस साल के थे,याद करते हैं कि उनके पिता किसी तरह उन्हें महात्मा गांधी के दर्शन कराने के
इच्छुक थे ताकि गुस्टा भविष्य में सबको बता सकें कि उन्होंने गांधी से मुलाकात की थी। गांधी जी से मिलने गए गुस्टा जब रास्ते में उन्हें खड़े मिले तो उन्होंने बड़े प्यार से उसके बालों को सहलाया और मुस्कुराकर आगे बढ़ गए।
ये हैरानी की बात थी कि उनकी मुसीबत की वजह जो आदमी था वो उसे
संघर्ष के समर्थन में खड़े थे।गांधी जी ने दो दिन उसी इलाके में बिताए और तीसरे दिन दुनिया भर की प्रेस को संबोधित किया।उन्होंने साफ कहा कि वो विदेशी सामान के बहिष्कार को जारी रखेंगे। कहा जाता है कि कुछ बूढ़े बुनकरों ने उन्हें खराब होती जा रही अपनी माली हालत की जानकारी दी। गांधी जी
ने उन्हें जवाब दिया- प्यारे दोस्तों, तुम्हें कोई अंदाज़ा तक नहीं कि गरीबी कहते किसे हैं।
सच है, गांधी भारत की गरीबी देखकर इंग्लैंड में पहुंचे थे, इसलिए अच्छी तरह जानते थे कि भारत की हालत इंग्लैंड से भी जर्जर है।
(स्रोत- बीबीसी) #इतिइतिहास
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आज एडोल्फ हिटलर का जन्मदिन है। हिटलर को इसलिए याद रखना चाहिए ताकि दुनिया में हमारी लापरवाही के चलते फिर कभी कोई हिटलर ना पैदा हो जाए। हिटलर पर कुछ जानकारी...
आज आप हिटलर से नफरत करें या चाहे मज़ाक उड़ाएं लेकिन वो आम नेता नहीं था। उसने अच्छे खासे समझदार जर्मनों को अपने पीछे पागल
बनाकर युद्ध में झोंक दिया था। तब वो सभी को महान लगता था और कई तो उसे मसीहा भी समझते थे। आज से करीब 75 साल पहले हिटलर मीडिया, जनसंपर्क और भाषण की ताकत समझ गया था। वो पब्लिक स्पीच यूं ही नहीं दिया करता था बल्कि पहले रिहर्सल करता था। रिहर्सल भी सिर्फ बोलने की नहीं बल्कि बोलने के
अंदाज़ की भी। हिटलर इस बात का खास ख्याल रखता था कि उसके वही फोटो लोगों तक पहुंचे जिसमें वो आकर्षक दिखता हो वरना थोड़े भी खराब फोटो उसकी छवि में डेंट लगा सकते थे। इसी वजह से उसने अपनी फोटो खींचने के लिए प्राइवेट फोटोग्राफर हेनरीच हॉफमैन को रखा।
भगत सिंह सिर्फ गंभीर निबंध लिखनेवाले और ओज से भरे भाषण देनेवाले क्रांतिकारी ही नहीं थे, बल्कि ऐसे लड़के भी थे जो दूसरों की खूब मौज लेता था और मामला बिगड़ने पर हालात संभालने में भी गजब का हुनरमंद था.
एक बार किसी ने भगवानदास माहौर उर्फ कैलाश बाबू को बता दिया कि जाड़े में जॉन एक्शा
नंबर वन का रोज़ एक तौला पिया जाए तो बदन बड़ा चुस्त-दुरुस्त मज़बूत हो जाता है.अब ये तो थी ब्रांडी यानि विशुद्ध शराब लेकिन भगवानदास कहते हैं कि उनको तब ये बात समझ में आई नहीं. बस फिर क्या था. चंद्रशेखर आज़ाद जो दल के प्रमुख थे भागे भागे भगवान दास उनके पास पहुंचे और शक्तिवर्धक दवा
लाने के लिए चार रुपये मांगे.दे भी दिए गए. आज़ाद अपने क्रांतिकारी साथियों की वाजिब ज़रूरतों का ख्याल रखते थे तो हुआ ये कि बोतल आ गई.रोज़ एक एक तोला नापकर पिया जाने लगा.फिर कुछ दिन बाद वो अपने घर चले गए. एक रोज़ उन्हें क्रांतिकारियों के ठिकाने आगरा फिर से बुलाया गया. भगवानदास अपनी
बांग्लादेश को पाकिस्तान से अलग एक आज़ाद मुल्क बनाने में शेख मुजीबुर्रहमान के अलावा किसी और नेता का हाथ रहा तो वो इंदिरा गांधी थीं। इंदिरा ने दुनिया के सामने बांग्लादेश की समस्या रखने की ठानी थी। उन्होंने इस मसले पर दुनिया को अपने पक्ष में करने के लिए विशेष दूतों को थाइलैंड,
सिंगापुर, मलेशिया, हांगकांग, जापान और ऑस्ट्रेलिया तक दौड़ाया।खुद वो सोवियत संघ, ब्रिटेन, फ्रांस, पश्चिमी जर्मनी, ऑस्ट्रिया गई। इन सबमें अमेरिकी दौरा सबसे ज़्यादा कड़वा था जहां राष्ट्रपति निक्सन भारत की इस मामले में भूमिका को नापसंद करते थे।वो चाहते थे कि इंदिरा गांधी
पाकिस्तान से सुलह करके बांग्लादेश का मुद्दा भूल जाएं लेकिन इंदिरा गांधी मानने को तैयार नहीं थीं। उन्होंने निक्सन से समर्थन ना मिलने के बावजूद वॉशिंगटन प्रेस क्लब में भाषण दिया।ये इंदिरा थीं जब उन्होंने माना कि अपनी आत्मरक्षा में उन्होंने प्रेस की आलोचना करने से परहेज नहीं किया,
सुभाषचंद्र बोस के साथ महात्मा गांधी के मतभेदों को गांधी विरोधियों ने खूब उछाला है। 1939 में कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए नेताजी के सामने गांधी ने पट्टाभिसीतारमैया को उतारा था। उनके पास कई कांग्रेसी सुभाष के खिलाफ शिकायत लेकर आए थे। चुनाव हुए और गांधी के समर्थन के बावजूद सीतारमैया
हार गए सुभाष को 1580 वोट मिले थे जबकि सीतारमैया को महज़ 1377 वोट मिल सके। गांधी जी ने इसके बाद एक बड़ी गलती की। अपनी हताशा नहीं छिपा सके और इस हार को अपनी हार बताते हुए कह दिया कि जो भी कार्यकारिणी छोड़ना चाहें वो छोड़ सकते हैं। 14 में से 12 सदस्यों ने तुरंत इस्तीफा दे दिया
जिसके बाद सुभाष ने भी इस्तीफा सौंप कर कांग्रेस से हमेशा के लिए किनारा कर लिया।
अब सुनाता हूं गांधी से जुड़ी दूसरी कहानी जो कम ही बताई जाती है। इस घटना के करीब तीन साल बाद 1942 के अगस्त महीने में AICC के 13 वामपंथी सदस्यों ने भारत छोड़ो आंदोलन प्रस्ताव के खिलाफ वोट दिया। ऐसा करने
एडोल्फ हिटलर के पगलाए राष्ट्रवाद में सारा जर्मनी कूद पड़ा था।जब जर्मन सैनिक एक एक करके मरने लगे और हिटलर का मायाजाल टूटने लगा तो जर्मन सेना ने छोटे-छोटे बच्चों के लिए भी भर्ती खोल दी।आखिरी सांस ले रही नाज़ी सरकार को शर्म नहीं आई और उसने राष्ट्र के नाम पर बच्चों तक को हथियार थमाकर
युद्ध में भेज दिया।ये तस्वीर 16 साल के हैन्स जॉर्ज हेंक की है जिसे हथियार देकर लड़ने को कहा गया।वो अपने देश के ही हेसन में जंग करता हुआ पकड़ लिया गया था।जब पकड़ा गया तो ज़ार ज़ार रोने लगा।बच्चा ही तो था,रोना बनता भी था। तभी ये तस्वीर ले ली गई।बेचारे के पिता 1938 में मर गए थे।
मां भी 1944 में चल बसी।गुज़ारे के लिए कुछ करना था तो उसने 15 साल की उम्र में जर्मनी की वायु सेना में एंटी एयर स्क्वैड ज्वाइन कर लिया। साल भर लड़ा और फिर जर्मनी युद्ध हार गया। सोवियत सेना ने जर्मनी में घुसकर सबको घेर लिया था,वो उन्हीं में से एक था।फोटो अमेरिकी फोटोग्राफर जॉन
इंटरनेट की गलियों से गुज़रते हुए एक बहुत प्यारी तस्वीर से सामना हुआ।तस्वीर आपके सामने पेश कर रहा हूं।दूसरे विश्व युद्ध का ज़माना था। सिपाही अपनी प्रेमिकाओं और पत्नियों को अलविदा कहकर ऐसे सफर पर निकल रहे थे जिससे लौट आने का कोई भी वादा झूठा साबित होना था।जंग से पहले विदाई की इस
तस्वीर के साथ साहिर लुधियानवी साहब की मशहूर कविता 'खून फिर खून है' की चंद पंक्तियां साझा कर रहा हूं।युद्ध की हुंकार भरते दिमागों में कोई बात बैठाना यूं तो मुश्किल है,लेकिन इंसान का जीवन बदलावों की किताब है सो कोशिश अपनी मुसलसल जारी है।उम्मीद है कि तस्वीर और कविता आपको ठंडक
पहुंचाएगी।
बम घरों पर गिरें या सरहद पर
रूहे–तामीर ज़ख्म खाती है
खेत अपने जले कि औरों के
ज़ीस्त फ़ाकों से तिलमिलाती है..
जंग तो खुद ही एक मअसला है
जंग क्या मअसलों का हल देगी
आग और खून आज बख्शेगी
भूख और अहतयाज कल देगी..