मेरी मां के छोटे से गांव में पक्की सड़क तब आई, जब मां 50 पार हो गई. ऐसे गांव में हाई स्कूल तो क्या ही होता! परिवार में बेटों का पढ़ना ज़रूरी माना गया, तो गांव में बड़े स्कूल का ना होना मामाओं की पढ़ाई में आड़े नहीं आया. वो पढ़ने के लिए दरभंगा भेजे गए.
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मां लड़की थी और लड़की को पढ़ाना किसी को ज़रूरी नहीं लगा. सो मां को बस चौथी तक पढ़ने की इजाजत मिली. नाना-नानी को सबसे ज़रूरी लगा बिटिया ब्याहना. तो मां छुटपन में, करीब 15-16 बरस में ब्याह दी गई.
ससुराल में किसी को क्यों होती परवाह कि उसको पढ़ाएं.
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मां को बस तब पेन उठाते देखा, जब बैंक, पोस्टऑफिस का काम होता. पापा फॉर्म लाते, मां से साइन करने कहते. मां कोई बहाना बनाती. उनके सामने साइन नहीं करती. इसलिए कि सालों महीनों बाद उसको साइन करने बल्कि कुछ लिखने का मौका मिलता था. उसके सिग्नेचर हर बार अलग हो जाते. पापा झल्लाते थे.
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मुझे याद है एक बार, बस एक बार ऐसे ही मौके पर मां ने पेन फेंक दिया और फॉर्म फाड़कर चौके में चली गई. मुझे लगा, वो पापा के झल्लाने पर गुस्सा हुई है. मैं गलत थी. मां गुस्सा नहीं थी, वो दरअसल झेंप रही थी. उसको बुरा लगा था, खुद पर खीझ हुई थी कि क्यों वो सही दस्तखत नहीं कर पाई है.
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मुझे कई दोपहरी याद है. जब मां बिस्तर पर पेट के बल लेटकर, दोनों पांव पीछे मोड़कर हवा में हिलाते हुए कोई हिंदी की किताब पढ़ती. एक एक अक्षर पर उंगली रखकर धीरे धीरे शब्दों का उच्चारण करते, कहानी पढ़ते. मां को वैसे बस मैंने देखा है, बस मैंने.
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वैसे ही जैसे बस मैंने अपनी साड़ी पहनने वाली मां को आंचल खोंसकर सट से घर के अमरूद पेड़ पर चढ़ते देखा है. अमरूद उसकी कमज़ोरी है 😀
मैंने कई दोपहर को उसके साथ बैठकर दस्तखत करने का अभ्यास करवाया है. उसकी ज़िद पर उसको व्रत कथाएं पढ़कर सुनाई हैं.
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उससे इमोशनल ब्लैकमेल होकर दुर्गा सप्तशती का पाठ किया है.
तीन साल पहले मां एक बार मेरे पास दिल्ली आई थी. मेरा बड़ा टीवी थोड़ा कॉम्प्लिकेटेड था. एक रिमोट से ऑन करो, फिर टीवी के रिमोट से बाकी फंक्शन. मां को उसका सिस्टम समझ नहीं आता था.
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मेरे पीछे वो सारा दिन अकेले बोर होती, सो मैं सुबह ऑफिस जाते समय ही टीवी ऑन करके कोई चैनल लगा जाती थी. उस दिन लाइट चली गई होगी. टीवी ऑफ हो गया. लाइट आने पर ऑन तो हो गया खुद से, लेकिन चैनल नहीं आया.
मां ने मुझे कॉल किया. मैंने जितना हो सका, गाइड करने की कोशिश की.
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लेकिन उससे नहीं हुआ. उसने ये कहकर फोन रख दिया कि उसको सोना है. मैं जानती हूं कि उस वक्त मेरे बताए को फॉलो ना कर पाने पर उसको कितनी लाचारगी महसूस हुई होगी. सवाल टीवी का नहीं था, सामने लिखी चीज, वो इंस्ट्रक्शंस ना पढ़ पाने पर उसका आत्मविश्वास टूटा था, उसे झेंप हुई थी.
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उसे झेंप नहीं होनी चाहिए थी. वो झेंप उसके हिस्से की थी ही नहीं. वो झेंप होनी चाहिए थी उसके माता पिता को. सास ससुर को. पति को. और उसके दोनों बच्चों को भी.
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मेरी चौथी पास मां ने मुझे खूब पढ़ाया. मैं अपने खानदान की, मां और पापा दोनों तरफ के खानदान की पहली लड़की हूं जिसे पढ़ने दूसरे शहर भेजा गया, जिसे हॉस्टल भेजा गया, जिसने नौकरी की. मुझे हॉस्टल भेजने के लिए मां को बहुत ताने भी मिले, लेकिन उसको फ़र्क नहीं पड़ा.
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बहुत छोटे गांव, साधारण परिवेश और पढ़ी लिखी ना होने पर भी वो बहुत तरक्कीपसंद है. आज़ाद खयाल. फेमिनिस्ट. देश, राजनीति, लोकतंत्र इन सबको लेकर उसकी समझ बहुत आधुनिक है. उसको पता है कि whatsapp पर आए मेसेज और विडियो सच नहीं होते.
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वो बहुत धार्मिक है, लेकिन दूसरे धर्मों से, उनके तौर तरीकों से उसको कोई बैर नहीं. बहुत सहिष्णु है वो. नई चीजें सीखने को हमेशा तैयार. करेक्ट होने को तैयार. अगर उससे मौके छीने ना जाते, तो यकीनन वो बहुत कुछ करती. कुछ बनती. #MothersDay
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मिथिला में राम का स्थान पाहुन का है. वो सम्मान पाते हैं क्योंकि वो मिथिला की धी सीता के पति हैं. हमारे लोकजीवन और जन परंपरा में जगह जगह राम मिलेंगे, लेकिन योद्धा के रूप में नहीं, रौद्र रूप में नहीं...
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बल्कि पाहुन...दामाद के रूप में. ऐसा दामाद, जो पात्रता में सीता से श्रेष्ठ नहीं है. ये ऐसा संबंध है, जिसमें घराती विनम्र तो हैं, लेकिन एक ठसक भी है कि हमारी बेटी किसी लिहाज में तुमसे उन्नीस नहीं. पारंपरिक तौर पर मिथिला पेंटिंग में राम धनुष ताने नहीं मिलेंगे.
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धनुष आएगा भी तो मात्र एक साधन के तौर पर, जिसका प्रयोजन और औचित्य स्वयंवर जीतने भर तक है. हमारे यहां मिलेंगे कोहबर की दीवार पर. किसी उपवन में टहलते. या ब्याह की रस्में निभाते. सीता के साथ खड़े, उनको प्रेम से निहारते. प्रेमी राम, दूल्हा राम. जो मिथिला में गालियां भी खाता है.
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एक ठंडी रात, ट्रेन स्टेशन, जर्मन लड़की और शाहरुख खान...
करीब चार हफ़्ते पहले की बात है. मुझे कुछ खरीदारी करनी थी. सोचा, कोलोन चलते हैं. घूमना भी हो जाएगा. Bahnhof से ट्रेन ली, कोलोन पहुंची, सामान खरीदा, खाया पीया. शाम हुई, तो सोचा अब लौटा जाए. एक दोस्त साथ में था.
उसने ट्रेन की टाइमिंग चेक की. शाम साढ़े 6 बजे मुख्य स्टेशन से बॉन के लिए एक फ़ास्ट ट्रेन दिखी, जो करीब आधे घंटे में पहुंचा देती. हम स्टेशन पहुंचे, तो लगा किसी मॉल आ गए हैं. बहुत ही बड़ा स्टेशन. निचली मंज़िल पर दुकानें ही दुकानें. ऊपरी मंज़िल पर प्लेटफॉर्म. वो भी इतने फैले हुए.
6.35 में ट्रेन थी, लेकिन हम सही प्लेटफॉर्म नहीं खोज पाए. हमने तीन लड़कों से पूछा, उन्होंने वहां एक महिला दुकानदार से मदद मांगी. वो अपना काउंटर छोड़कर हम दोनों को एक लिफ़्ट के पास ले गई. कहा: ऊपर चले जाओ, वहां 6:56 वाली ट्रेन में बैठ जाना.
मैं दरभंगा की हूं. हमारे यहां जिसके परिवार में थोड़ी भी गुंजाइश हो, वो अपने बच्चों को बिहार के बाहर भेज देते हैं. उनसे कम गुंजाइश वाले बच्चे को पटना भेजते हैं. उनसे भी कम आर्थिक क्षमता वाले स्कूल के बाद बच्चे को दरभंगा शहर भेजते हैं.
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दरभंगा अपनी लचर स्थिति के बावजूद अगल-बगल के इलाकों से बेहतर है. यहां यूनिवर्सिटी है. यूनिवर्सिटी में पढ़ाई का स्तर भले ना हो, लेकिन है तो! इसलिए अगल-बगल के ग्रामीण इलाकों के बच्चों के लिए पढ़ाई का सबसे बड़ा सेंटर है दरभंगा शहर.
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बच्चे यहां आते हैं. कॉलेज में खानापूर्ति के लिए दाखिला लेते हैं. फिर जुट जाते हैं तैयारी में. मैथ्स कोचिंग, साइंस कोचिंग, अंग्रेज़ी कोचिंग. ये ही लड़कों (थोड़ी लड़कियां भी, क्योंकि मौके ही कम को मिलते हैं) का सहारा हैं.
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हम दुमका के एक बेहद रिमोट आदिवासी गांव गए. वहां एक सरकारी स्कूल है. कुल चार टीचर. एक प्रिंसिपल और तीन शिक्षक. प्रिंसिपल ने बड़ी अच्छी पहल की. जब पिछले साल कोविड के चलते लॉकडाउन में स्कूल बंद हुए, तो उनको लगा कि इतने ग्रामीण परिवेश के बच्चों का अगर एक बार स्कूल छूटा 1/6
तो शायद हमेशा के लिए वो पढ़ाई से कट जाएं. बाल मजदूरी, काम-काज में लग जाएं. सो उन्होंने गांव के घर की दीवारों को स्कूल बना दिया. किसी पर गिनती, वर्णमाला, पहाड़े, शरीर के अंगों के नाम, ए फॉर ऐपल से ज़ेड फॉर ज़ेबरा तक... ऐसे ही सब गांव के मिट्टी वाले घरों पर उकेर दिया. 2/6
फिर उन्हीं दीवारों पर नीचे की ओर कुछ-कुछ दूरी छोड़ते हुए काले रंग से पुतवा कर स्लेट बनाए. उन्हीं के पास बच्चे बैठकर पढ़ते-लिखते हैं. प्रिंसिपल रोज़ आकर मुआयना करते हैं. जिस बच्चे को जो समझ नहीं आता, अपनी दीवार वाली स्लेट पर लिखकर रखता है. 3/6
US के साथ अच्छी बात ये है उनकी कमियों, उनकी ग़लतियों से जुड़ा एक भी ऐसा पक्ष नहीं, जिसे उनकी मीडिया ने छोड़ा हो. वो गंभीर राष्ट्रीय मुद्दों पर बिना जिंगोइस्टिक हुए लिख लेते हैं. US सरकार सुलेमानी को आतंकी कहती है, और वो उन्हें मिस्टर सुलेमानी लिखते हैं. अपन के यहां तो, चलो छोड़ो
सुलेमानी एक मिसाल हैं. इस बात का कि आप हमेशा सरकार का अजेंडा नहीं लपकते. अगर ईरानी सेना आतंकी है, तो अमेरिका कहां निर्दोष है. पेंटागन पेपर्स, वॉटरगेट, मीडिया ने सरकार की पोल खोली. इराक़ पर हमले के समय सरकारी अजेंडे का शिकार होने वाली US मीडिया का ही हिस्सा है NYT, जिसने हमले के
15 महीने बाद 'The Times and Iraq' हेडिंग से अपने यहां लेख छापा और लोगों से मुआफ़ी मांगते हुए लिखा कि उन्होंने अपनी कवरेज में ग़लती की. उन्होंने माना कि वो सरकारी दावे की दिशा में गुमराह हुए. ग़लत रिपोर्टिंग करने वाली पत्रकार जूडी मिलर को निकाला भी NYT ने.