कांग्रेस में पदाधिकारी बन कर बैठे लोग ही @RahulGandhi की सारी नेकनामी को डुबो देते हैं। मोहम्मद जुबैर पत्रकार है। झूठ किसी के भी खिलाफ हो उसका पर्दाफाश करता है। कभी किसी पार्टी को सच सामने आने का फायदा होता है कभी किसी को। पत्रकार यह सोचकर नहीं करता। जुबैर की गिरफ्तार होने पर
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कांग्रेसी खुश हो रहे थे। मगर राहुल ने गिरफ्तारी के विरोध में स्टैंड लेकर उनका सारा नशा काफुर कर दिया। मगर फिर भी बाज नहीं आए। कह रहे हैं कि यह हमारे विरोध में था मगर राहुल ने इसका समर्थन किया। क्या मतलब हुआ इसका? क्या कांग्रेस जैसी पार्टी के कोई विरोध में भी होगा तो उस पर
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ज्यादती होने पर कांग्रेस स्टैंड नहीं लेगी? राहुल को यह लोग छोटा बनाना चाहते हैं! #AltNews@zoo_bear ने हमेशा सच का साथ दिया है। एक बार शिवराज सिंह चौहान के हाथ में फ्रैक्चर हो गया था। मगर उनके दो-दो फोटो चल रहे थे जिसमें लग रहा था दोनों हाथ में में प्लास्टर बंधा है। मजाक उड़
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रहा था। जुबैर ने फैक्ट चेक किया और बताया एक फोटो वास्तविक है और दूसरा आईने में सामने खड़े होने पर खींचा गया है। जिससे लग रहा है कि दोनों हाथों में प्लास्टर है।
पार्टियों को कान भरने वाले, पत्रकार विरोधी नेताओं से हमेशा दूर रहना चाहिए। मोदी जी इस मामले में सावधान हैं।
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जब कानपुर में जुमे की नमाज के बाद जुलूस निकाला तब हमने लिखा था बेवकूफ मुसलमानों ने।
सब को सावधान किया था इस जाल में नहीं फंसे। मगर अगले जुमे को फिर पूरे देश में जुलूस, पथराव और प्रदर्शन हुए।
और आज उययपुर में सारी हदें पार कर दीं। मुस्लिम संगठनों, खासतौर पर धार्मिक संगठनों को
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आगे आना होगा। और धर्म के नाम पर लोगों के दिमाग में जो जहर और बदले की भावना भरी जा रही है उसको दूर करने के काम में लगना होगा। नूपुर शर्मा ने जो कहा उसकी देश भर निंदा हुई। खासतौर से हिंदू समाज की तरफ से। मगर नूपुर के बयान के बाद जब उसे पार्टी से निकाल दिया FIR हो गई। तब अचानक
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कुछ लोग सड़कों पर निकल आए। पहले बेवकूफ लिखा था मगर अब यह नफरती धर्मांध मानसिकता के शिकार लग रहे हैं। उस वक्त भी कहा था कि कानपुर के मुसलमानों ने खासतौर से मुसलमान संगठनों ने उन्हें रोका क्यों नहीं? दरअसल मुसलमानों में राजनीतिक और सामाजिक नेतृत्व है ही नहीं। जो है वह मूर्ख और
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सबसे ज्यादा श्रद्धांजलियां बाबा साहब को दी जाती हैं। और भारत में सबसे ज्यादा नफरत भी उन्हीं से की जाती है।
यही डॉ आंबेडकर की ताकत है कि उनसे घृणा करने वाले, उनके नाम, उनके बनाए संविधान, उनका लिखा सब कुछ मिटा देने कि कोशिश करने वाले भी आज के दिन उनके सामने सिर झुकाते हैं।
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नफरत तो भारत में और भी नेताओं से की जाती है। जैसे गांधी, नेहरू।
मगर अंबेडकर से नफरत की अलग बात यह है कि हर पार्टी के नेता उनसे नफरत करते हैं। भाजपा के लोग तो करते ही हैं। कांग्रेस के नेता भी खूब करते हैं। आरोप एक ही है कि भारत की सामाजिक व्यवस्था को उन्होंने पूरा उलट पुलट
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करने की कोशिश की। भारत में असली झगड़ा धर्म का नहीं है असली झगड़ा है यथास्थितिवाद बनाम सामाजिक न्याय का।
अंबेडकर सामाजिक न्याय के सबसे बड़े पैरोपकार थे। इसलिए सामाजिक यथास्थिति वाद बनाए रखने वाली ताकतें उनके खिलाफ हैं। मुसलमानों से नफरत फिलहाल राजनीतिक फायदा दे रही है मगर
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कुछ मामले ऐसे होते हैं जिनमें प्रधानमंत्री और पार्टी का हस्तक्षेप होता है। मगर कई मामले मंत्री के विवेक के भी होते हैं।
देश के लाखों प्राइवेट सेक्टर के कर्मियों की PPF 1995 पेंशन स्कीम के लिए कर्मचारी मजदूर संगठनों ने हरीश रावत से कहा कि इसे बड़वाइए।
पता है कर्मचारियों को
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कितनी पेंशन मिलती थी?
13 रु, 27रु, 105 रु. महीना। बेहद खराब कैलकुलेशन से बनी स्कीम थी 1995 में कांग्रेस सरकार ने ही पब्लिक और प्राइवेट क्षेत्र के लिए इसे लागू किया था। इसमें कर्मचारी और कंपनी दोनों से शेयर लिया जाता था। अपना पैसा देकर इतनी कम पेंशन पाना शर्म की बात थी। सरकार
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के लिए भी।
हरीश रावत, मलिकार्जुन खड़गे श्रम मंत्री थे। कभी ध्यान नहीं दिया। 2014 में मोदीजी ने आते ही पहला काम किया पेंशन मिनिमम 1000 रु कर दी। हालांकि मैक्सिमम अभी भी 2000 से ज्यादा नहीं बढ़ी है। मगर पेंशनरों को यह संतोष है की कई राज्य कि वृद्धावस्था पेंशन के करीब तो पहुंचे।
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सबसे गंदी बहस शुरू हो गई।
महिलाओं को आगे बढ़ाने पर घोषित दक्षिणपंथी, प्रतिक्रियावादी लोग तो सामने आते ही हैं समाज का वह वर्ग भी जो शोषण और असमानता का शिकार रहा है महिलाओं पर आक्रमण शुरू कर देता है।
और सबसे मजेदार होता है यहां हिंदू और मुसलमान दोनों यथास्थितिवादी एक ही मंच पर
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आ जाते हैं।
महिलाओं को सब दबाकर रखना चाहते हैं। उन्हें लगता है कि महिलाओं को अगर कुछ ताकत मिल गई तो वे उनके हाथ से निकल जाएंगी।
दलित, पिछड़े, अल्पसंख्यक के सवालों पर भी तीखा विभाजन होता है। मगर महिलाओं के मामले में सारा समाज एकजुट हो जाता है। ये भी उनके साथ खड़े हो जाते हैं।
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प्रियंका गांधी ने बहुत साहस का काम किया है। कांग्रेस के अंदर ही उनके खिलाफ स्वर उठने लगे हैं।
पुरुष एकता का अद्भुत नजारा अगले कुछ महीनों तक देखने को मिलेगा। लेकिन यह पहली बार नहीं है। 2010 में भी जब सोनिया गांधी ने राज्यसभा में महिला बिल पास करवाया था तो ऐसे ही वाहियात आरोप
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दुनिया में विचार से बड़ी कोई ताकत नहीं है खासतौर से प्रगतिशील विचार, जनसमर्थक विचार।
राहुल और प्रियंका इन्हीं के सहारे लड़ रहे हैं। कांग्रेस की इतनी बुरी अवस्था में भी इन्होंने लड़ने का हौसला खोया नहीं। जनता भी डरी हुई है। चुप है।
मगर यह दोनों उसकी आवाज उठाए जा रहे हैं।
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मुहावरे में जिसे कहते हैं सारा जहां खिलाफ है। कुछ वैसा ही हाल है। सत्ता पक्ष, भाजपा और उसकी सरकार तो है ही मीडिया उनसे ज्यादा मोर लायन देन द किंग बना हुआ है।
भारतीय मीडिया के सबसे बड़े शत्रु महंगाई, बेरोजगारी, चीन द्वारा हमारे सैनिकों को बंदी बनाकर वीडियो डालना, किसानों को
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रौंद कर मार डालना नहीं है।
सबसे बड़े टारगेट राहुल गांधी बने हुए हैं। राहुल जो करते हैं उसे तो दिखाना, बताना नहीं। बस राहुल में कमियां, विरोधाभास ढूंढते रहना। सलाहें देना।
सरकार और मीडिया की जुगलबंदी भी जब राहुल को अपनी बात कहने से नहीं रोक पाई तो कांग्रेस के अंदर से कुछ लोगों
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कांग्रेस वर्किंग कमेटी कितनी ताकतवर है और जब इसमें नेहरू गांधी परिवार का सदस्य नहीं होता है तो क्या होता है इसके लिए एक पुरानी घटना देखिए।
ठीक 72 साल पहले अक्टूबर का यही महीना था, तारीख थी 7, और सन 1949। प्रधानमंत्री नेहरू विदेश यात्रा पर थे। तब CWC की मीटिंग में एक प्रस्ताव
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पास कर दिया गया कि आर एस एस के सदस्य कांग्रेस में शामिल हो सकते हैं। प्रस्ताव की खबर से कांग्रेस में तहलका मच गया। दिल्ली, पश्चिमी बंगाल और कई प्रदेश कांग्रेस कमेटियों ने इसका तीखा विरोध किया। लेकिन संघ का समर्थन करने वाले भी थे। डीपी मिश्रा, पट्टाभी सीतारमैया और कई नेताओं ने
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इसका समर्थन किया। तब भी एक सैद्धांतिक मुल्लमा चढ़ाते हुए कहा गया कि यह पार्टी की खुले द्वार की नीति के अनुरूप है।
जब नेहरू वापस आए तो फिर से सीडब्ल्यूसी की मीटिंग हुई और उसमें साफ तौर पर कहा गया की आर एस एस का सदस्य कांग्रेस में शामिल नहीं हो सकता।
सोचिए अगर नेहरु नहीं होते
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