तो ये #जवाब है मेरा मेरे अदु के लिए
कि मुझ को हिरसे करम है ना ख़ौफे़ ख़मयाज़ा
उसे है सतवतें शमशीर पर #घमंड बहुत
उसे शिकोह #क़लम का नहीं है अंदाजा
मेरा क़लम नहीं #किरदार उस मुहाफ़िज़ का
जो अपने #शहर को महसूर करके नाज़ करें
मेरा #क़लम नहीं का
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मेरा #क़लम नहीं का़सा किसी गदागर का
जो ग़ासिबों को कसीदों से सरफ़राज़ करें
मेरा क़लम नहीं #औजा़र उस नक़बज़न का
जो अपने घर की ही छत में #शिगाफ़ डालता है
मेरा क़लम नहीं उस दुज़्द नीम शब का रफ़ीक़
जो बेचाराग़ #घरों पर कमंद उछलता है
ज़िंदा क़ौम पाँच साल इंतज़ार नहीं करती- यह इस देश में लोकतंत्र के ख़िलाफ़ पहला नारा था। लोकतांत्रिक चुनाव के ख़िलाफ़ पहला फ़ासीवादी अभियान था।
यह नारा देने वाला राम मनोहर लोहिया, आज़ादी मिलने के साल 35-37 के हो गए पर आज़ादी की लड़ाई में ढेला भर फेंकने के योगदान ना देने वाले
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दीन दयाल उपाध्याय का चुनाव प्रचारक था।
उसके बाद इसी गैंग ने सेनाओं तक से सशस्त्र विद्रोह की माँग की थी। आरएसएस को अपना बाहुबल बताया उस देश के ग़द्दार जेपी ने। कहा संघ अगर फ़ासिस्ट है तो मैं भी हूँ।
इंदिरा गांधी को आपातकाल लगाना पड़ा। इनसे निपट कर हटा लिया। चुनाव हारीं।
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बुरी तरह हारीं। तख्ता पलट की कोशिश नहीं की। विपक्ष में गयीं। लड़ीं।
तथ्य पर बोलिएगा। ये सब सही है या नहीं।
अफ़सोस- हमारी तरफ़ के तमाम लोग अब भी इन लोहिया जेपी के चरणों में पड़े हुए हैं। ये टुच्चे फ़ासिस्टों से देश बचायेंगे!
3 @AchryConfucious @NiranjanTripa16
हिटलर ने1000साल का थर्ड राइक् बनाने का दम भरा था।जर्मन लोग भी यही चाहते थे।
मुसोलिनी रोमन साम्राज्य रिक्रिएट करना चाहता था।इटली के लोग भी यही चाहते थे।
लेकिन बहुत जल्द इन देशो की जनता को इन सपनो का मतलब समझ मे आ गया।जो अपने देशके मुट्ठी भर लोगो के पपेट होकर जीने को मजबूर हुए।
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हिम्मत जुटाने में वक्त लगा,लेकिन मुसोलिनी को उसके ही लोगो ने लटका दिया। हिटलर को दुनिया के तमाम देशों ने सुसाइड पर मजबूर कर दिया।
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दुनिया मे कही एग्जाम्पल नही मिलता कि फासिज्म को इलेक्टोरली हराकर बाहर किया गया हो।भारत मे भी इलेक्टोरली हराने के सारे रास्ते बंद हो चुके हैं।
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डेमोक्रेसी ऐसे ही भंवर से गुजरकर मजबूत बनती है।यह ठीक उसी तरह है जैसे कमउम्र युवा हर चीज ठोकपीट कर सही कर देने की सोचता है।फासिज्म को समर्थन एमेच्योर लोगो की ठोक पीट पसन्द नीति की वजह से होता है। जेसीबी खुद की तरफ मुड़ते ही ऐसों की अक्ल हिरन हो जाती है।
पहले कही से,अचानक ज्ञानवापी शिवलिंग फव्वारा मुद्दा शुरू कर दिया जाता है ? क्यो ? अब तक वजह किसी को पता नही है ! सोशल मीडिया पर जमकर बहस कराई जाती है , मीम जारी किए जाते है..
पूरी स्क्रिप्ट को समझते जाइये,
उन्हें पता है शिव हमारे आराध्य है ,शिवलिंग का मजाक उड़ाने पे हिन्दू बहुत
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आहत महसूस करते हैं,सबके दिलों में आग लग रही है बवाल होने में जरा सी कहासुनी होने की देर है..इतना तीखापन है कि इस सब पे वाट्सप पे हमारा ग्रुप भी आपसमे लड़ रहा है!
इसी बीचमे कहीसे मोहन भागवतजी आगे आ कर मामला ठंडा कराते हैं!
"हर मस्जिद में शिवलिंग न तलाशे"कहते हैं!
और ज्ञानवापी
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मामला विलीन होने दिया जाताहै !
अब सीन क्रमांक दो
नूपर शर्मा का एक टीवी डिबेट "एक ऐसी बहस जो लाइव नही थी,उसमे एक आग लगाने वाला बयान देती है,नुपर की जिस डिबेट को प्रसारण के पूर्व ही रोका जा सकता था,बेरोकटोक सोशल मीडिया पे चलाया गया,मगर चार दिन तक कोई बवाल नही,फिर कहानीमें जुबेर
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सस्तेपन का दौर है,सस्ते ही महंगे में बिक रहा है, तो महंगा भी सस्तेपन को आतुर है।कि और महंगे दाम मिल सकें।
कथन कन्फ्यूजिंग है,मगर समझ आ जायेगा जब राज्यवर्धन सिंह राठौर की शक्ल देख लेंगे।
फौजी का बेटा,खुद फौजी,अतिविशिष्ट सेवा मेडल,पद्मश्री, खेल रत्न, ओलम्पियन, सिल्वर मेडलिस्ट,
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वर्ल्ड चैंपियन,एक्स कर्नल,एमपी,मिनिस्टर।
रोल मॉडल..
और अब चवन्नी छाप ट्रोल,झूठा,दोमुंहा नेता।
यह सस्तेपन का दौर है। मूर्तिभंजन का दौर है। जिंदगी भर जिन लोगो को बड़े सम्मान और सेलेब्रिटी की निगाह से देखा, इस दौर में सबह्यूमन, रीढ़हीन केंचुए साबित हुए है।
प्रोफेशनल भांड का
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चारणपना तो लाजिम है। अनुपम खेर, अभिजीत, सोनू निगम, लता मन्गेशकर, अमिताभ बच्चन, अक्षय कुमार, सचिन तेंदुलकर जैसों की करतूतों से दिल, महज दुखता है।
लेकिन वीके सिंह और राज्यवर्धन सिंह राठौर जैसो के कारनामों से दिल टूटता है। क्या फ़ौज में इन्हें ऐसी शिक्षा मिली।
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