नक्षत्रों का स्वामी चन्द्रमा है,नदियों की स्वामिनी गङ्गा,,वेदों में सर्वश्रेष्ठ सामवेद है,तथा तीर्थो में पुष्कर सभी तीर्थों में श्रेष्ठ है,उसी प्रकार आदि शङ्कराचार्य परंपरा में सभी सन्तों में
धर्मसम्राट स्वामी करपात्री जी महाराज सर्वश्रेष्ठ हैं।
महाराजश्री के भाषण,लेखन तथा शास्त्रार्थ पद्धति अभूतपूर्व थी, इसीलिए आपश्री को "अभिनव शङ्कर" भी कहते थे।
किन्तु कुछ विद्वान् कहते हैं कि- श्रीमद्भागवत् महापुराण के ५वें स्कन्ध तथा ११वें स्कन्ध में जो
भगवान् ऋषभदेव के सौ पुत्रों का वर्णन आया हैं, उनमें सबसे बड़े भरत जी हैं, जिन्हें 'जड़ भरत' के नाम से जानते हैं, उन्हीं के नाम से इस देश का नाम "भारतवर्ष" पड़ा, पहले इस देश का नाम "अजनाभवर्ष" हुआ करता था।
बाकी के ९९ में ९ पुत्र इस भारतवर्ष के ९ द्वीपों के
अधिपति हुए और बाकी के ८१ पुत्र कर्मकाण्ड के रचयिता ब्राह्मण हो गए।
बचे ९ ,वे ९ संन्यासी हो गये,जिनके नाम हैं- कवि,हरि,अंतरिक्ष,प्रबुद्ध,पिप्पलायन,आविर्होत्र, द्रुमिल,चमस और करभाजन।
इनमें से सबसे छोटे जो करभाजन ऋषि थे,,वे ही भगवान् की प्रेरणा प्राप्त करके कलिकाल
के जीवों को परम्पराप्राप्त वेदादि शास्त्रों का ज्ञानोपदेश तथा धर्म,भक्ति का प्रचार करने के लिए कलियुग में श्री स्वामी करपात्री जी के रूप में अवतरित हुए थे।
स्वामी जी ने विक्रम संवत् १९६४ (ईस्वी सन् १९०७) श्रावण शुक्ल द्वितीया में प्रतापगढ़ मानिकपुर तहसील के भटनी
ग्राम में सरयूपारीण ब्राह्मण कुल में जन्म लिया था,पिता का नाम श्री पं. रामनिधि ओझा तथा माता का नाम श्रीमती शिवरानी था।
आपश्री तीन भाई थे,,ज्येष्ठ का नाम श्री हरिहर प्रसाद, मंझले का श्री हरिशंकर तथा सबसे छोटे आप श्री हर नारायण थे।
आपके माता-पिता विशुद्ध सनातनी
शिव भक्त थे, आपने बाल्यवस्था में ही संस्कृत पढ़ने का निश्चय किया, ५ वर्ष की आयु में ही आपको गलबन्ध (हकलापन) का रोग हुआ, पिताजी को चिन्ता हुई, जन्मपत्रिका लेकर एक सुयोग्य ज्योतिषी के पास पहुँचे तथा भविष्य पूँछा,, पण्डित जी कुछ उत्तर दे पाते,,इससे पहले ही आपने पण्डित जी
से कहा- "बाबा !
हम तो बाबा बनेंगे"
तब किसी को क्या पता था कि यह संसार का महाविरक्त बाबा बनेगा।
गांव में ही प्रारम्भिक पाठशाला थी,,४ नवम्बर १९१८ ई. को आपने सीधे तीसरी कक्षा में प्रवेश लिया,पर इस पढ़ाई में आपका मन नहीं लगता था,,वहां से आप संस्कृत पढ़ने के लिए निकट ही
कर्पूरी गांव की संस्कृत पाठशाला में पं. श्री नागेश मिश्र जी की सेवा करते हुए अध्ययन करने लगे,घर में रहते हुए आपका मन नहीं लगता था,बाल्यावस्था में ही वैराग्य के भाव जगे,सबसे छोटे होने के कारण आप पर पिताजी का विशेष मोह था,कई बार आप घर से भागे भी, लेकिन फ़िर पकड़कर लाये
गये। ९ वर्ष की अवस्था में ही पिता ने इनको परम् उदासीन देखकर विवाह करने का निश्चय किया, उन दिनों पांच-सात वर्ष की आयु में कुलीन ब्राह्मणों का विवाह हो जाता था।
लड़की वालो का तांता लगा रहता था,अन्त में सन् १९१६ ईस्वी में जिला प्रतापगढ़ के खण्डवा गांव के पं. राम सुचित जी की
पुत्री महादेवी जी से आपका विवाह हुआ।
विवाह के उपरान्त भी आपका चित्त उदास ही रहा,एक दिन रात्रि में लोटा-डोर लेकर दबे पांव निकल गये,पिताजी फिर ढूंढकर ले आये,,कहा "कम से कम एक सन्तान तो हो जाये,तब गृह त्याग करना ठीक होगा"
आप घर में भी पूजन-भजन व सद्ग्रन्थों के अध्ययन
में ही समय लगाते थे,आपने गांव में दो भागवत सप्ताह किये,तीसरा सप्ताह ग्राम के समीप चारिहन पुरवा में शिवकुमारी के यहां किया।
आप गङ्गा-तट के जिस पाकड़ के पेंड़ के नीचे भजन करते थे,उसे आजकल गौरीशङ्कर की छोइयां कहते हैं।
कुछ समय पश्चात आपके घर एक कन्या का जन्म हुआ,अब तो
आपको घर की दीवारें तथा सामग्रियां फाड़ खाने लगी,एक-एक क्षण भी युग समान बीतता था,आपका मन पिंजरे में बन्द पक्षी के समान फड़फड़ाता था।
पुत्री का जन्म होते ही १९ वर्ष की आयु में आप घर छोड़कर जाने लगे,पिता और पुत्र में विवाद हुआ,इन्होंने कहा- "सन्तान उत्पत्ति तक आपको वचन दिया था,
वह पूरा हो गया,अब आज्ञा दें"
पिता को प्रणाम कर माता से आज्ञा लेने लगे,, माता रोने धोने लगी,,आपने माताजी से कहा कि तुम धर्म के मार्ग में बाधक क्यों बनती हो ?
आपने अपने वचनों से माताजी को भी सन्तुष्ट किया।
एक कोने में नवजात बालिका को गोद में लिये हुए गर्दन झुकाये अश्रुपूर्ण
नेत्रों से युक्त धर्मपत्नी मौन खड़ी थी,वह मौन भाषा में ही बहुत कुछ कह रही थी,किन्तु आप महा विरक्त योगी उस मोह बन्धन में न होकर तटस्थ रहे,,पत्नी ने भी अपनी मौन स्वीकृति दे दी।
सन् १९२६ में मात्र १९ वर्ष की आयु में पूरे परिवार को रोता-विलखता छोड़कर माता-पिता को प्रणाम
करके बालक हर नारायण सदा के लिए घर से चले गये,फ़िर जीवन में कभी लौटकर नहीं आये.!!
🙏हर हर महादेव🙏
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एक ऐसा बहुत बड़ा सच जो हम सब भारतवासियों से छिपाया गया...
👉क्या आप जानते हैं कि हमारे देश से 10 अरब रुपये की पेंशन प्रतिवर्ष महारानी एलिजाबेथ को जाती है...
आखिर वो कौनसा गोपनीय समझौता है जिसका खुलासा आज तक नहीं किया गया है...
👉आखिर वो कौनसा ऐसा गोपनीय समझौता है
जिसके तहत प्रति वर्ष 30 हजार टन गौ-मांस ब्रिटेन को दिया जाता है...
👉भारतीय संविधान के अनुच्छेदों 366, 371, 372 व 395 में परिवर्तन की क्षमता, भारत की संसद, प्रधानमंत्री यहाँ तक कि भारत के राष्ट्रपति के पास भी नहीं है...
👉हमारे मन में कभी यह सवाल क्यों नहीं आया कि भारत, जापान, चीन, रशिया इन देशों में तो भारत अपना एंबेसडर 【राजदूत】 नियुक्त करता है, लेकिन श्रीलंका, पाकिस्तान, कनाडा, आस्ट्रेलिया इन देशों में हाई कमिश्नर (उच्चायुक्त) नियुक्त करता है... आखिर क्यों...
महाकाल और युग प्रत्यावर्तन प्रक्रिया:
रावण का असीम आतंक अन्तत: यों समाप्त हुआ
एक नगरी थी लंका। जिसका राजा था अहंकार, प्रपंच, स्वार्थ और वासना का प्रतिनिधि-रावण। रावण की नीति थी-अपने असीम स्वाथों की असीम पूर्ति
और उसके लिये हर किसी का उत्पीड़न। उदारता उसके पास नाम को भी न थी। अपने सारे शरीर-बल, बुद्धि-बल और परिवार-बल का उपयोग वह दूसरों को आतंकित करने और मनमानी बरतने में करता था। इस प्रकार की अनीति का मार्ग अवलम्बन करने वाले
आरम्भ में फूलते-फलते भी देखे गये हैं। रावण भी खूब फूला-फला था। उसका कुटुम्ब परिवार बढ़ा। कहते हैं कि एक लाख पूत और सवा लाख नाती उसके थे। यह तो उसका निजी परिवार था। एक से एक बड़े मायावी साथी उसके थे।
त्रिजटा जो अनेक
जब उन्होंने इतना विशाल मंदिर तोड़ दिया पूरे मंदिर परिसर को नेस्तनाबूद कर दिया...तो उनके लिए नंदी की प्रतिमा तोड़ना कौन सी बड़ी बात थी...उन्होंने फिर भी उसे नहीं तोड़ा...क्यों...❓
चलो एक और सवाल का जवाब दो...❓वो
जब वजू के लिए जाते थें...उन्हें तो लगभग 13 फीट लंबा शिवलिंग दिखता ही होगा...वो उसे शिवलिंग पर कुल्ला करते थे...उस पर थूकते थे...अपने पैरों के नीचे रौंदते थें.😡
वो चाहते तो शिवलिंग को गायब भी कर सकते थे, या उसके टुकड़े-टुकड़े कर सकते थे...या वहां से हटाकर कहीं और रख सकते थे...
पर उन्होंने ऐसा नहीं किया...क्यों...❓
क्योंकि वो सदियों से सदियों तक तुम्हारे आराध्य को अपमानित करना चाहते थे...इस ज्योतिर्लिंग को अपने पैरों के नीचे कुचलना मसलना चाहते थे.😡
वो चाहते थे कि नंदी की दुर्दशा देखकर हर हिंदू रोए, बिलबिलाये, तड़पे, चीखे, चिल्लाए मगर कुछ कर ना सके.
यह ज्ञानवापी बड़ी दिव्य है इसके लिए स्कन्दपुराण के काशीखण्ड में स्वयं भगवान् विश्वनाथ कहते हैं कि, "मनुष्यों! जो सनातन शिवज्ञान है, वेदों का ज्ञान है, वही इस कुण्ड में जल बनकर प्रकट हुआ है।" सन्ध्या में व कलशस्थापना में जो "आपो हि ष्ठा"
आदि तीन मन्त्र प्रयुक्त होते हैं, उनका रहस्य इस ज्ञानवापी से ही सम्बद्ध है। उनमें शिवस्वरूप, ज्ञानस्वरूप जल से प्रार्थना है कि,
हे जल! तुम सुख देते हो, हममें ऊर्जा का आधान करते हो, हमें रमणीय शिव का दर्शन कराते हो, तुम यहाँ स्थापित हो जाओ।
हे जलदेव! तुम्हारा जो शिवस्वरूप रस है (शिवतमो रसः), हमें भी उसका उसी तरह पान कराओ जैसे माता अपने शिशु को दुग्धपान कराती है।
हे जलदेव! तुम्हारे उस शिवस्वरूप रस की प्राप्ति के लिए हम शीघ्र चलना चाहते हैं, जिससे तुम सारे जगत को तृप्त करते हो और हमें उत्पन्न करते हो।
चर्चा इसपर हो रही है कि अयोध्या के बाद काशी, मथुरा, कुतुबमीनार और अब ताजमहल, आखिर देश में हो क्या रहा है।
जबकि चर्चा इसपर होना चाहिए कि आखिर हर मस्जिद के अंदर से मंदिरों के प्रमाण कैसे निकल रहे है ? चर्चा इसपर होना चाहिए कि मंदिरों पर मस्जिद क्यों बनाई गई ?
चर्चा तो इस पर भी होनी ही चाहिए कि देश की स्वतंत्रता के बाद 60 वर्ष से अधिक एक ही दल ने शासन किया उसकी हिन्दुओं के प्रति नकारात्मक भूमिका क्यों रही । और हिन्दुओं के स्वाभिमान को क्यों कुचला।
चर्चा का विषय ये होना चाहिए कि तथाकथित महान मुगलों ने मंदिर क्यों विध्वंस किये ? और जिस दल द्वारा 60 वर्ष से अधिक देश पर एक छत्र शासन किया उस दौरान हिन्दुओं के हत्यारों और लुटेरों के नाम पर नगरों और मार्गो के नाम क्यो रखे । चर्चा में यह भी सम्मिलित होना चाहिए कि