बूंदी में हमने एक ऐसे परिवार के घर भोज किया जो किसी ज़माने में रजवाड़ों की तलवारों की मूठ (handle/grip) बनाने का काम करते थे। बात तलवारों की होती है तो महाराणा प्रताप की फौज में रहकर तलवार जैसे हथियार बनाने वाले (गाड़िया) लोहार ज़रूर याद आते हैं।
महाराणा कभी चित्तौड़गढ़ वापिस हासिल नहीं कर सके पर उनके काफिले के साथ चलते इन गाड़िया लोहारों ने भी प्रतिज्ञा ली कि महाराणा के बिना वापिस चित्तौड़गढ़ नहीं लौटेंगे।तब से आज तक बैलगाड़ियों पर घुमंतू की तरह एक से दूसरे राज्य भटकने वाले ये गाड़िया लोहार अपनी प्रतिज्ञा पर डटे हुए हैं।
अंग्रेज़ों की धूर्तता के चलते ऐसे कई कबीले 'क्रिमिनल ट्राइब' या जन्मजात अपराधी बना दिए गए,नागरिक सुविधाओं से वंचित रखे गए।आज़ादी के बाद आज के ही दिन इन्हें अपराधी के लेबल से 'विमुक्त' तो किया पर कई कमीशनों,कमिटियों के गठन के बावजूद इन्हें केंद्र में कोई आरक्षण या लाभ नहीं मिला।
इस अति-पिछड़े 'गाड़िया लोहार' समाज के लिए केंद्रीय कोटे में आरक्षण की आवाज़ उठाते बहुजन एक्टिविस्ट भी कम ही मिलेंगे क्योंकि महाराणा प्रताप के प्रति आज भी निष्ठा रखने वालों के लिए SC/ST/OBC कोटे में जगह बनाना कहां इनके Political Rhetoric में फिट बैठेगा?
"ना पाँव में सामाजिक रिवायतों की बेड़ियाँ और ना सिर पर स्थायित्व की गठड़ी, बस एक लम्बा रास्ता और साथ चलता कारवाँ- यही है बंजारों के स्वच्छंद जीवन का परिचय..."
प्रभात खबर अख़बार में बंजारों के जीवन पर छपे मेरे इस लेख को आप इस लिंक पर भी पढ़ सकते हैं:
एक पॉडकास्ट सुना जिसमें हमारे सम्मानित अग्रज और प्रख्यात बुद्धिजीवी भंवर मेघवंशी सर (राजस्थान में) जाति के प्रश्न पर अपनी बेबाक राय रख रहे हैं। इनका कहना है कि #राजस्थान सिर्फ़ भौगोलिक मरुस्थल ही नहीं, बल्कि एक बौद्धिक मरुस्थल भी हैं।
यह आगे कहते हैं,"यहां की शब्दावली ही सामंतवादी है।यहां का टूरिज्म 'रजवाड़ा कल्चर' & स्थापत्य का ही प्रचार करता रहा। यहां कोई सुधार आंदोलन सिर नहीं उठा पाया। दलित-पिछड़ों में उभरती हुई चेतना के बावजूद वे प्रतीक अपने शोषकों के(मूंछ/घोड़ी चढ़ना/सेहरा/तलवार/शेरवानी) ही अपना रहे हैं।"
भंवर सर की बात के साथ असहमति जताना बौद्धिक बेईमानी होगी, झूठ होगा। कोई दोराय नहीं कि हिंदी पट्टी के बाकि राज्यों की तरह राजस्थान भी घोर जातिवाद का गढ़ रहा है।
एक बार पुष्कर में एक आर्टिस्ट मिले जो आपके परिवार की फोटो से आपका 'रॉयल पोर्ट्रेट' बना सकते थे,जिसमें आपका परिवार शाही लिबास में राजसी अंदाज़ में रजवाड़ों की तरह पोज़ करते हुए दिखेगा!मैंने पूछा कि आम लोग ऐसे पोर्ट्रेट क्यों बनवाते हैं?उन्होंने कहा कि सब 'राजशाही की फील' चाहते हैं
कई साल बाद इस social phenomenon का असल शब्द मिला, 'RAJPUTISATION'. Hermann Kulke, Christophe Jaffrelot, Clarinda Still, Lucia Michelutti जैसे कई विख्यात लेखकों ने इसे राजपूत जीवनशैली के प्रतीकों-टाइटलों का समाजार्थिक तौर पर कथित निचले पायदान के समुदायों द्वारा अपनाया जाना कहा है
राजपूती प्रतीकों का अंगीकरण करके अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ाना मुख्यतः ओबीसी और आदिवासी समुदायों में देखा गया। यदुवंशी राजपूतों के यादव टाइटल का अहीरों द्वारा अंगीकरण India's silent revolution :The Rise of the Lower Castes in North India और Sons of Krishna जैसी किताबों में है।
पाकिस्तान के सिंध प्रान्त में आई भयावह बाढ़ से याद आई सिंध के ही थारपारकर सूबे में बसे हुए हज़ारों सोढ़ा राजपूतों की, जो भारत और पाकिस्तान को अपनी विरासत के धागे से आज भी बांधे हुए हैं। लेकिन यही सोढ़ा #राजपूत पिछले कुछ सालों से 'वीज़ा पॉलिटिक्स' का एकमुश्त शिकार हुए हैं।
एक तरफ जहां करतारपुर कॉरिडोर खोकर श्रद्धालुओं के मेलमिलाप के लिए रास्ते बनाए जा रहे हैं, वहीं पाक में बसे इन चुनिंदा सोढ़ा राजपूतों को 'ब्लैकलिस्ट' कर इन्हें भारतीय वीज़ा नहीं दिया जा रहा। तकरीबन 900 सोढ़ा राजपूत अब तक 'ब्लैकलिस्ट' किए जा चुके हैं।
यह वही सोढ़ा राजपूत हैं, जिनकी जागीर अमरकोट में जिलावतन हुए मुग़ल शासक जहांगीर को पनाह दी गई और इन्हीं सोढ़ा राजपूतों के संरक्षण के बीच पादशाहजा़दा अकबर की पैदाइश हुई।