लगातार सवाल पूछे जाना, नींद न लेने देना, घंटों खड़े रखना और इस सबसे भी भयंकर यह कि जलते तारकोल की गर्म लौ और धुंएँ के सामने बाँध देना रोज़ की ही बात थी।
जहां ब्रिटिश कैदियों को अच्छा भोजन और वस्त्र दिया जाता था, वहीं क्रांतिकारी कैदियों के साथ दुर्व्यवहार किया जाता था।
उनके बैरक में साफ-सफाई की अनदेखी की जाती थी जिससे कैदी बीमार और बेबस हो जाते थे। उनके साथ जानवरों से भी बदतर व्यवहार किया जाता था। गंदगी का यह आलम होता था कि किचन में कीड़ों और चूहों का जमावाड़ा होता था।
भगत सिंह सब कुछ सहते रहे पर वह नहीं चाहते थे कि आने वाले समय में राजनैतिक कैदियों के साथ यही व्यवहार हो।
असेम्बली बम काण्ड में गिरफ्तार होने बाद दिल्ली से चलने से पहले ही भगत सिंह और बटुकेश्वरदत्त ने भूख हड़ताल करने का निर्णय कर लिया था।
12 जून, 1929 को असेम्बली बमकाण्ड के मुकदमे में भगतसिंह और बटुकेश्वरदत्त को आजीवन कारावास का दण्ड सुनाया गया। उसके तुरन्त बाद ही 14 जून से उन्होंने भूख हड़ताल आरम्भ कर दी थी।
4 जुलाई 1929 में साण्डर्स हत्यांकाड के सम्बन्ध में मुकदमा मजिस्ट्रेट श्री कृष्ण की अदालत में शुरू हुआ।
भगत सिंह इसमें मुख्य अभियुक्त थे। भगत सिंह बहुत कमजोर थे, इसलिये उनको अदालत स्ट्रेचर पर लाया गया। बोस्टर जेल में उनके साथियों ने अनशन आरम्भ करने की घोषणा मजिस्ट्रेट की अदालत में ही कर दी।
उसके चार दिन बाद यतीन्द्र नाथ दास नामक युवक भी उस भूख हड़ताल में शामिल हो चुका था।
भगत सिंह ने इस भूख हड़ताल को संघर्ष और प्रचार का माध्यम बनाया था किन्तु यतीन्द्र नाथ दास ने प्राणों की बाजी लगाने का निर्णय लिया था। उनके लिये यह आमरण अनशन था।
सरकार के लिये यह भूख हड़ताल प्रतिष्ठा का प्रश्न बन चुकी थी ।
सरकार ने क्रान्तिकारियों की मांगे स्वीकार करने की बजाय उन्हें अपने निश्चय से हटाने के लिये अनेक प्रकार के अत्याचार करने प्रारम्भ कर दिये। भूख हड़ताल में भोजन का त्याग किया गया था किन्तु पानी का नहीं। जेल अधिकारियों ने पानी के घड़ों में दूध भर कर रखना शुरू कर दिया था।
जेल अधिकारी चाहते थे कि कैदी प्यास से विवश होकर दूध पी ले। किन्तु जब इन लोगों ने घड़ों को फोड़ना शुरू कर दिया तो जेल अधिकारियों की यह चाल भी विफल हो गयी।
इसके अलावा भूख हड़तालियों के आसपास फल मिठाई आदि खाने की वस्तुएं रख दी जाती थी ताकि इन लोगों के मन ललचाये और अनशनकारी अपने निश्चय से हट कर इन चीजों को खा ले।
वो चाहते थे कि यदि इनमें से किसी एक में भी यह कमजोरी आ जाये तो अधिकारी इन्हें बदनाम करके भूख हड़ताल की समाप्ति की घोषणा कर डालें ।
बल पूर्वक दूध पिलाने के लिए सात-आठ आदमी जुट जाते थे। चार आदमी हाथ पैर पकड़ लेते थे, एक आदमी छाती पर बैठ जाता था और कुछ लोग सिर पकड़ते थे। बाकी लोग ज़बरदस्ती नली से दूध डालने की कोशिश करते थे।
जब डाक्टर और कर्मचारी बलपूर्वक दूध देकर चले जाते तो अनशनकारी उसे किसी न किसी तरह से बाहर निकालने का प्रयास करते थे। सुखदेव ने दो तीन बार उंगली डालकर उल्टी करके दूध निकाल दिया। जब यह उपाय सफल नहीं हुआ तब मक्खी निगल ली।
किशोरी लाल जी नामक एक क्रांतिकारी ने खौलता गर्म पानी पीकर अपना गला जला लिया लिया। इससे गला इतना खराब हो गया कि नली नाम में डालते ही खांसी उठती थी और यदि नली डाक्टर तुरन्त न निकाले तो उनकी मौत हो सकती थी।
अनशनकारी धीरे-धीरे मृत्यु की ओर बढ़ रहे थे लेकिन सरकार की जिम्मेदारी अपने ऊपर नहीं लेना चाहती थी।
यतीन्द्र नाथ दास को जब पहली बार बलपूर्वक नली से दूध दिया गया तो वह सांस की नली में पहुंच गया और वे बेहोश हो गए थे।
इसके वाद उन्हें कभी बलपूर्वक दूध नहीं पिलाया गया। वास्तव में उन्होंने जीवन की बलि देने का निश्चय करके ही भूख हड़ताल आरम्भ की थी।
यतीन्द्र नाथ दास की हालत और बिगड़ी तो जेल के अधिकारियों ने उन्हें एनिमा देने का प्रयत्न किया किन्तु वह इसके लिये तैयार नहीं हुए।
2 सितम्बर 1929 को सरकार ने जेल इन्क्वायरी कमेटी की स्थापना की जिसमें भगत सिंह भी बातचीत में शामिल थे।
उनके सामने इस समय मुख्य प्रश्न यतीन्द्र नाथ दास को मरने से बचाना था। कमेटी के सदस्य इस बात पर राजी हो गए थे कि सब लोग भूख हड़ताल तोड़ दें तो सरकार यतीन्द्र नाथ दास को छोड़ देगी।
भगत सिंह चट्टान की तरह अडिग थे, तो संगठन के साथियों की जान के लिए मोम की तरह पिघलना भी जानते थे। उनकी सलाह से सभी ने भूख हड़ताल तोड़ दी । परन्तु यतीन्द्र नाथ दास नहीं माने और अपनी भूख हड़ताल जारी रखी।
दो दिन बाद ही फिर भूख हड़ताल आरम्भ हो गई। 2 सितम्बर को भगतसिह और वरटुकेश्वरदत्त की भूख हड़ताल का 81 वां दिन था और दूसरे साथियों का 53 वां। इस बार भगत और दत्त के साथ थे अजय घोष, विजयकुमार सिन्हा, शिव वर्मा और जितेन्द्र सान्न्याल।
वहाँ यतीन्द्र नाथ दास तिल-तिल कर घुल रहे थे। उनकी आवाज बन्द हो गई थी, आंखें मुंद गईं थी, सुनना बंद हो चुका था, शरीर के अंग हिलना बंद हो गए थे।
दास, जो उस समय केवल 25 वर्ष के थे, राजनीतिक कैदियों को अन्याय से बचाने के लिए 63 दिनों के उपवास के बाद, 13 सितंबर, 1929 को शहीद हो गए।
उनकी मृत्यु के बाद उनके पार्थिव शरीर को रेलवे स्टेशन ले जाने के बाद बड़ी संख्या में लोग लाहौर में जमा हो गए थे। जुलूस का नेतृत्व क्रांतिकारी नेता दुर्गा भाभी ने किया था। ट्रेन के रुकने पर हजारों की संख्या में लोग उन्हें श्रद्धांजलि देने के लिए जमा हो गए थे।
सुभाष चंद्र बोस जब कलकत्ता के हावड़ा रेलवे स्टेशन पर ताबूत लेने पहुंचे तो विशाल जुलूस का अंत भी नजर नहीं आ रहा था।
कुछ अनुमानों के अनुसार, शहर के अंतिम संस्कार में सात लाख से अधिक लोगों ने भाग लिया था।
उस समय, भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की फांसी की सजा अभी भी 18 महीने दूर थी। यदि गांधीजी ने जतिंद्र दास की शहादत का इस्तेमाल राजनीतिक बंदियों के अधिकारों की रक्षा के नाम पर राष्ट्रव्यापी आंदोलन शुरू किया होता तो यह तय है कि आज कहानी कुछ और होती।
वह चाहते तो आकाओं से मांग कर सकते थे कि किसी भी राजनीतिक बंदियों के लिए कोई मृत्युदंड नहीं होगा और उस समय का माहौल देखते हुए यह तय था कि भारत की जनता एकमत होकर गांधी जी का साथ देती और भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की फांसी को रोका जा सकता था।
दुर्भाग्य से, ऐसा नहीं हुआ और हमने जाने कितने क्रांतिकारियों को खो दिया, क्योंकि महात्मा गांधी के शांतिपूर्ण प्रतिरोध के मापदंडों के भीतर क्रांतिकारियों को फांसी जैसी “अहिंसात्मक सज़ा” देना पूरी तरह से फिट बैठता था।
बिनॉय कृष्णा बसु का जन्म 11 सितंबर 1908 को बांग्लादेश के मुंशीगंज जिले के रोहितभोग गांव में हुआ था। युवावस्था के आते-आते वे प्रसिद्ध क्रांतिकारी हेमचंद्र घोष के प्रभाव से, वह “मुक्ति संघ” में शामिल हो गए थे। #क्रांतिदूत#krantidoot
यह वही मुक्ति संघ था जिसके “जुगांतर पार्टी” से संबंधों के बारे में दबी जुबां में बातें होती रहती थीं।ढाका में मैट्रिक की परीक्षा पूरी करने के बाद, बेनॉय मिटफोर्ड मेडिकल स्कूल में शामिल तो हो गए थे लेकिन अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों के कारण वह अपनी शिक्षा पूरी करने में असमर्थ रहे।
प्रथम विश्व युद्ध के बाद, हेमचंद्र ने अपनी गतिविधियों को कलकत्ता में स्थानांतरित कर दिया था। 1928 में, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में सुभाष चंद्र बोस ने मेजर सत्य गुप्ता के नेतृत्व में "बंगाल वालंटियर्स" नाम के एक नए दल की घोषणा करते हैं।
मध्य प्रदेश के मुरैना जिला में चंबल नदी के किनारे स्थित एक बड़े
भूभाग को तोमरधार कहा जाता है। इसी क्षेत्र में चंबल नदी के किनारे बरवाई और रूअर नामक दो गाँव हैं। मुरैना जिला स्वाधीनता से पूर्व ग्वालियर की देशी रियासत में था। बिस्मिल साहब के वंशज इसी गाँव के थे।
अपनी आत्मकथा में बिस्मिल साहब ने अपने दादा का नाम श्री नारायणलाल,पिता का नाम श्री मुरलीधर, चाचा का नाम श्री कल्याणमल बताया है।
वो तोमर थे यह नहीं थे विवाद का विषय या नहीं है। चिंता की बात यह है कि आज़ाद साहब को ब्राहमण और बिस्मिल साहब को तोमर बताने वाले लोगों के दिल में क्या है?
#क्रांतिदूत शृंखला को लिखने के दौरान मेरी कोशिश रही है कि आप भगत सिंह को पढ़ें तो उनके तथाकथित नास्तिक या वामपंथी वाले रूप की जगह आपको सिर्फ भगत सिंह दिखायी दें। सान्याल साहब का नाम सिर्फ काकोरी से जुड़ कर ना रह जाए।
The account left by Subhas Babu, the great stalwart of the Congress and twice its president, explains what and how much Gandhi did to secure the release of Bhagat Singh and his two comrades in the condemned cells. #क्रांतिदूत#krantidoot
This means Gandhi left it to the viceroy's goodwill because he didn't want to jeopardize the so-called pact. Gandhi's eagerness to reach an agreement with the viceroy and thus advance his leadership made him allergic to what would have been a true test of the viceroy's sincerity.
Gandhi desired that any commutation take place outside of the pact.
Subhas babu further writes
“Anyhow the Mahatma and everybody else drew the conclusion from the attitude of the viceroy that the execution would be cancelled...
Just a week before the Lahore Congress session, which promised a lot, an attempt was made on the life of the viceroy, Lord Irwin, while he was travelling by train. The revolutionaries had made long preparation and laid a stick of dynamite under the railway track. #krantidoot
It called forth great ingenuity and perseverance as they had to do all this secretly. The dynamite exploded a few seconds too late with the result that the viceroy escaped with only a shock.
The Congress under the influence of Gandhi passed a
resolution which read-- #क्रांतिदूत
From "They Lived Dangerously" by Manmath Nath Gupta.
“सम्पादक चाहिए- वेतन दो सूखे टिक्कड़ और एक गिलास ठंडा पानी। हर सम्पादकीय लिखने पर दस वर्ष काले पानी की सज़ा।”
यह है एक ऐसे समाचार पत्र की कहानी जिसका कोई सम्पादक जब जेल जाता था तो उस समाचार पत्र में यही विज्ञापन छपता था।
स्वतंत्रता संग्राम के दौरान प्रकाशित होने वाली पत्र-पत्रिकाओं के संपादक, प्रकाशक एवं मुद्रकों को किसी का सहारा नहीं था। संसाधनों और संरक्षण दोनो की मारामारी थी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के कोई मायने नहीं थे। इन सबके बावजूद पत्रकारिता ‘व्यवसाय’ नहीं ‘मिशन’ के रुप में की जाती थी।
राजनारायण के केस के दौरान श्रीमती गांधी के गृह राज्य उत्तर प्रदेश से एक सांसद इलाहाबाद गए थे। उन्होंने अनायास ही सिन्हा से पूछ लिया था कि क्या वे 5 लाख रुपए में मान जाएँगे। सिन्हा ने कोई जवाब नहीं दिया था।
उस बेंच में उनके एक साथी ने बताया था कि उन्हें उम्मीद थी कि ‘इस फैसले के बाद’ उन्हें सुप्रीमकोर्ट का जज बना दिया जाएगा।गृह मंत्रालय में संयुक्त सचिव प्रेम प्रकाश नैयर ने देहरादून में उत्तर प्रदेश हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस से मुलाकात की थी और उनसे कहा था कि इस फैसले को टाल दिया जाए।
बस जज सिन्हा और उनके स्टेनोग्राफर को मालूम था कि क्या फैसला आनेवाला है। IB को भी कुछ पता नहीं था। उन्होंने सिन्हा के स्टेनोग्राफर नेगी राम निगम से राज उगलवाने की कोशिश भी की थी। लेकिन वे भी उसी मिट्टी के बने थे, जिस मिट्टी के जज साहब थे।