#ज्ञान
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कॉलबेल बजा! मैंने दरवाजा खोला तो एक लेडी खड़ी थी।
अच्छी लम्बाई, गोरा रंग,बड़ी-बड़ी ऑंखें, बिल्कुल सीधे बाल, तीखे-खूबसूरत नैन-नख्श..पर उसकी थुलथुली काया ने सारी खूबसूरती पर पानी फेर दिया था।
मैंने उसे कभी देखा नहीं था। चेहरे से उसकी उम्र का पता नहीं चला
#ज्ञान
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कॉलबेल बजा! मैंने दरवाजा खोला तो एक लेडी खड़ी थी।
अच्छी लम्बाई, गोरा रंग,बड़ी-बड़ी ऑंखें, बिल्कुल सीधे बाल, तीखे-खूबसूरत नैन-नख्श..पर उसकी थुलथुली काया ने सारी खूबसूरती पर पानी फेर दिया था।
मैंने उसे कभी देखा नहीं था। चेहरे से उसकी उम्र का पता नहीं चला।
तो मैने आप ही कहना सही समझा--
"जी कहिये!"
"हैलो जी! मैं कृतिका! सेकंड फ्लोर पर रहती हूं। आज मेरी बेटी का फर्स्ट बड्डे है क्या आप अपने बच्चे को भेज देंगी शाम को? बच्चा पार्टी कर रही हूँ।"
"हां जी बिल्कुल भेज दूँगी। आप नयी आयी हैं क्या यहां? पहले
कभी देखा नहीं।"
"नयी तो नही हूँ.. छः महीने हुए यहां आए। पर मैं निकलती नहीं। ज्यादा जरूरत हो तो हस्बैंड के साथ गाड़ी से जाती हूँ। ऑटो सूट नहीं करता मुझे।"
-उसने ऑंखें मटकाते हुए कहा।
"हम्म! कितने बच्चे हैं आपके?"
"ये तो पहली ही बच्ची है मेरी। दो ही साल हुए हैं शादी को।"
हे भगवान जी! मतलब मुश्किल से 25-30 के बीच की है और क्या हाल बना रखा है शरीर का।
मैंने मन ही मन सोचा।
उसे अंदर आने को जैसे ही कहा।
"नहीं! नहीं! मैं तो बिल्कुल नही बैठूंगी। मेरी मेड नहीं आ रही कई दिन से। सारा काम पड़ा है मैं जा रही हूं। परेशान कर दिया मेरी मेड ने मुझे।"
ओह! मैं समझ सकती थी उसकी परेशानी। जब मेरी मेड नहीं आती तो मेरे ऊपर भी वज्रपात होता है।
तो सहानुभूति हुई उससे।
मैंने कहा- "कई दिनों से नही आ रही! तो निकालो बाहर। क्यों रखी हो उसे। वैसे मेरी गौरी दी बहुत अच्छी है। सबसे बड़ी बात एब्सेंट बिल्कुल नहीं करती। रखनी है तो बोलो बात करूं!"
मेरे बोलते ही वो..
"अरे नई! नई! आँटी जी टाइप नहीं चाहिए। बहुत ज्ञान देती है ये आंटियां और मुझे हद चिढ़ है ज्ञान से। तभी तो मैं अपनी सास के पास भी नहीं रही।"
मैं उसका रिएक्शन देखकर हैरान रह गयी।
"अरे ज्ञान क्यों देगी!"
"देती है! इन ओल्ड लेडीज की हर
बात में ज्ञान देने की बीमारी होती है। मैंने बहुत झेला हुआ है। ऐसे मेड से बेहतर मैं खुद काम कर लूं। मैंने जो लड़की रखी है काम पर, उसे मैं ही डांटती रहती हूं। इन आंटियों को तो एक शब्द बोलना भी मुहाल। आ जायेगी मेरी वाली अपने से। मैं मैनेज कर लूंगी।"
"ओह! फिर करो इंतज़ार।"
मैंने
जले मन से कहा। उसकी बातें सुनकर चिढ़ सी हुई थी। मैं ठहरी फोर्टी प्लस! आंटियों में आती थी। बोली," आपसे मिलकर अच्छा लगा।"
काश मैं भी यही बोल पाती उसे..आपसे मिलकर अच्छा लगा।
खैर जन्मदिन के लिए बच्चे को भेज दिया। उसके बाद एक- दो बार उसे देखा, पर न उसने मुझे टोका, न मैंने उसे।
एक रात मैं पानी पीने उठी तो बाहर से आती आवाजें सुनकर चौंक गई।
"इतनी रात में कौन शोर कर रहा!"
मैने डोरहोल से झांका। सामने वाले फ्लैट के दरवाजे पर वहीं खड़ी थी। परेशान सी।
कृतिका! इस वक़्त। मैंने दरवाजा खोला।
"क्या हुआ!"
--मैंने पूछा।
आवाज़ सुनकर वो मेरी ओर घूमी।
"देखिये न! मेरी बच्ची पिछले दो घण्टे से रोई जा रही है। सब करके थक गई चुप ही नहीं हो रही। इससे यही पूछने आयी थी कोई आईडिया है क्यों रोते हैं बच्चे!"
मैंने उसकी हमउम्र सखी की ओर देखा!
उनींदी आँखों को मटमटाते हुए उसने कहा-
"मुझे आईडिया नहीं यार! तू वेट कर ले न सुबह तक।"
"रुको! मैं देखती हूँ। मैंने दरवाजा बाहर से लॉक किया और सीढियां उतरने लगी।
बच्ची के रोने की आवाज बाहर तक आ रही थी। आँसुओं से तर-ब-तर लाल चेहरा! उसके पति गोद मे बच्ची को झूला रहे थे।
मैंने उसे लिटाकर पेट देखा। मुलायम था, मतलब गैस या पेट दर्द नहीं था। गौर किया तो बच्ची बार-बार
अपना हाथ कान पर ले जाती और जोर जोर से रोती।
"इसके कान में दर्द है शायद! कोई इयर डॉप है?"
मैंने पूछा।
"ईयर ड्रॉप तो नहीं रखते! अब क्या करें!"
बोलते हुए लगा अब वो रो देगी।
"परेशान न हो। ठीक हो जाएगा। मैं आती हूँ अपने घर से।"
ईयर ड्राप मेरे घर भी नही था। मैंने गेंदे की पत्तियां तोड़ी और नीचे आ गयी।
कृतिका हैरत से देख रही थी।
मैंने पत्तियों को कुचलकर उसका रस निकाला और गुनगुना कर उसकी कुछ बूंदें बच्ची के कान में डाल दी।
थोड़ी देर में बच्ची का रोना कम हो गया। मैने तेल गरम करके उसे पकड़ाया-
"मसाज कर दो हल्के हाथों से। रो-रोकर थक गई है बच्ची।"
उसने हाँ में सिर हिलाया और मसाज करने लगी। आराम मिला और कुछ ही देर में बच्ची सो गई।
रात ज्यादा हो गयी थी। मैं अपने फ्लैट लौट आयी।
सुबह-सुबह कृतिका हाज़िर दरवाजे पर।
मैंने देखते ही पूछा-
"अब कैसी है बाबू?"
"ठीक है दीदी। थैंक यू बोलने आयी हूँ। रात अगर आप न होती तो.."
"दीदी भी बोल दिया और थैंक यू भी बोल रही हो! एक बात बताओ..तुमलोग अभी भी फैन चलाते हो क्या? मुझे लगता है उसे इसी वजह से कान में दर्द हुआ। मत चलाना अब से..और शाम होते ही उसे पूरे आस्तीन के कपड़े पहनाओ और स्कार्फ जरूर से"
बोलते-बोलते मैं अचानक से रुक गयी। मुझे उसकी वो ज्ञान वाली बात याद आ गयी।
मुझे अचानक चुप देख उसने पूछा--"क्या स्कार्फ दी! स्कार्फ बांधने से ठीक रहेगा? ओके फिर रोज बांध दूँगी।"
मैंने मुस्कुराकर कहा-"मुझे लगा मैं भी कहीं ज्ञान तो नहीं दे रही तुम्हें!"
"शर्मिंदा मत कीजिये दीदी"
उसने मेरा हाथ अपने हाथों में ले लिया।
"कल रात अगर आप न होती तो मेरी बच्ची की रात तो रोते-रोते ही कट जाती।"
बोलते हुए उसका चेहरा फिर से रुआंसा हो गया।
"दीदी! आज फिर मेरी मेड नहीं आएगी फोन करके बहाने बना रही..क्या आपकी गौरी दी करेगी मेरे घर?"
"बिल्कुल करेगी मैं बात करके भेजती हूँ तेरे घर।"
मैंने लाड़ से कहा।
वो निकलने लगी तो मैंने हंसकर कहा-- "और सुन! वो सच में बहुत ज्ञान देती है.."
" हहहहह! सुन लूँगी दीदी..!
-उसने जोर से कहा और हंसती हुई सीढियां उतरने लगी।
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एक वृद्ध माँ रात को 11:30 बजे रसोई में बर्तन साफ कर रही है, घर में दो बहुएँ हैं, जो बर्तनों की आवाज से परेशान होकर अपने पतियों को सास को उल्हाना देने को कहती हैं।
वो कहती है आपकी माँ को मना करो इतनी रात को बर्तन धोने के लिये हमारी नींद खराब होती है। साथ ही सुबह 4 बजे उठकर फिर
खट्टर पट्टर शुरू कर देती है। सुबह 5 बजे पूजा आरती करके हमे सोने नही देती ना रात को ना ही सुबह जाओ सोच क्या रहे हो जाकर माँ को मना करो।
बड़ा बेटा खड़ा होता है और रसोई की तरफ जाता है रास्ते मे छोटे भाई के कमरे में से भी वो ही बाते सुनाई पड़ती जो उसके कमरे हो रही थी वो छोटे भाई के
कमरे को खटखटा देता है छोटा भाई बाहर आता है।
दोनो भाई रसोई में जाते हैं, और माँ को बर्तन साफ करने में मदद करने लगते है।
माँ मना करती पर वो नही मानते, बर्तन साफ हो जाने के बाद दोनों भाई माँ को बड़े प्यार से उसके कमरे में ले जाते है , तो देखते हैं पिताजी भी जागे हुए हैं।
एक समाजसेवी के पास किन्ही सज्जन का फोन आया। पूछा कि वृद्धाश्रम में एडमिट कराने का क्या प्रोसेस है और चार्जेस क्या है?
पूछा किसे कराना है तो जवाब मिला कि हमारे पड़ोस में एक वृद्ध महिला हैं, उनके बच्चों के पास समय नहीं है।
सच कहूं तो अंदर तक हिल गई कि क्या अब इस स्तर तक गिर गए हम।
निःसंदेह वो वृद्धा उनकी खुद की मां थी, वरना कोई दूसरा कैसे वृद्धाश्रम में एडमिट करा सकता है।
उन्होंने अपने क्रोध और वेदना पर नियंत्रण रखते हुए कहा कि यूं क्यों नहीं कहते कि आपकी मां हैं वो। कुछ पल के मौन के बाद बोले कि हां मां है, पर अब मेरी बीवी रखना नही चाहती।
मैं वहीं बैठी थी। अब मेरी बारी थी। मैंने पूछा कि मकान किसके नाम पर है, तो सकुचाते हुए बोले कि मां के नाम पर।
ओर पिता?
वो कई साल पहले गुजर गए, मां तो आराम से रह सकती है क्योंकि उनकी पेंशन आती है पिता जी सरकारी नौकरी में थे।
आप उनकी जगह पर नौकरी पा गए, मेरे सवाल पर वो कुछ झल्ला
मैं तीसरी में था ! उस कन्या विद्यालय में कोएजुकेशन कक्षा 5 तक था उस समय ।
स्कूल में बड़ी लड़कियों, (मतलब कक्षा 6 से इंटर तक , ) का एक कोर्स कुकरी का भी होता था ।
एक दिन बताया गया कि कल छुट्टी है , स्कूल में मेला और खाने
के स्टॉल भी लगेंगे , सब को आना है ।
मेरी क्लास टीचर बहनजी जिनके घर गणित की ट्यूशन लेने भी जाता था ने मुझे बताया कि कल बड़ी लड़कियाँ रसगुल्ले बनाएंगी , स्कूल ज़रूर आना , खाने हो तो । मेरी तो मन मांगी मुराद पूरी हो गई ।
पहुँच गया सवेरे 10 बजे ।
मुझे
देखते ही वहाँ के स्टॉल्स पर खड़ी लड़कियों ने बुलाना शुरू किया । कोई रसगुल्ले दिखा रही थी , तो कोई जलेबी, किसी के स्टॉल पर मलाई के लड्डू थे तो कोई पेड़ा दोने में लिए खड़ी थी ।
मेरी ऐसी आवभगत कभी हुई नही थी , फिर क्या था , हर स्टॉल पर जा कर ख़ूब उड़ाया ।
आज तक जितनी शादियों मे मै गई हूँ, उनमे से करीब 80% में दुल्हा-दुल्हन की शक्ल तक नही देखी... उनका नाम तक नही जानती थी... अक्सर तो विवाह समारोहों मे जाना और वापस आना भी हो गया, पर ख्याल तक नही आया और ना ही कभी देखने की कोशिश भी की, कि स्टेज कहाँ सजा है, युगल कहाँ बैठा है...
बैठा भी है कि नहीं, या बरात आई या नहीं...
और अब तो ये pre wedding shoot का भौंडापन भी होने लगा।
भारत में लगभग हर विवाह में हम 70% अनावश्यक लोगों को आमंत्रण देते हैं...
अनावश्यक लोग वो है जिन्हें आपके विवाह मे कोई रुचि नही,वे केवल दावत में आये होते हैं...आपका केवल नाम जानते हैं।
जो केवल आपके घर की लोकेशन जानते हैं.. जो केवल आपकी पद-प्रतिष्ठा जानते हैं...
और जो केवल एक वक्त के स्वादिष्ट और विविधता पूर्ण व्यञ्जनों का स्वाद लेने आते हैं...
ये होते हैं अनावश्यक लोग....
विवाह कोई सत्यनारायण भगवान की कथा नही है कि हर आते जाते राह चलते को रोक रोक कर
जड़ें
बहन के साथ चार दिन हरिद्वार की यात्रा कर लौटी मालती को हॉल में कदम रखते ही सब कुछ बदला बदला सा लगा जैसे किसी और के घर चली आयी हो । बरसों से चीजों को ख़ास जगहों पर देखने की अभ्यस्त आँखें एक कोने से दूसरे कोने तक घूम रहीं थी । दीदी की बड़बड़ाहट आते ही चालू हो गयी " चार दिन
क्या घर छोड़ कर गयी महारानी की हुकूमत शुरू हो गयी । अच्छे ख़ासे सेटिंग को उलट पलट कर रख दिया । पहले वाले साज - सज्जा में क्या बुराई थी भाई? पर नहीं इन्हें तो सब कुछ अपने हिसाब से चलाना है ।" मैं कह रही हूँ मालती अपनी जगह
तू मज़बूती से पकड़ी रह । तूने कुछ ज़्यादा ही छूट दे रखी है अपनी बहू को । अभी आए छह महीने हुए नहीं कि ....."
"अरे दीदी लो पानी पियो " बात बदलते हुए मालती ने पानी की ट्रे लेकर खड़ी कम्मो बाई के हाथ से पानी की ग्लास लेते हुए कहा । "जाओ भई चाय लेकर आओ दीदी के लिए अच्छी सी ।"